आज जब अपने बचपन की बातें याद करता हूँ तो बड़ा आनन्द आता है। बताना आवश्यक है कि मैं गाँव के खेतिहर किसान के घर पैदा हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा एक कोस दूर प्राइमरी स्कूल में प्राप्त किया। गाँव की चौपाल से लेकर वर्तमान के कथित हाई प्रोफाइल सोसाइटी के लोगों के बीच बहुत कुछ सीखने को मिला। बचपन प्राइमरी स्कूल की शिक्षा के समय पाठशाला में पण्डित जी, मंशी जी और बाबू साहब अध्यापक हुआ करते थे। खेतों की मेड़ों से गुजरते हुए चौधरिया ताल पर सुस्ताने के बाद स्कूल पहुँचता था। स्कूल पहुँचने में देरी हो जाने पर डण्डों की मार खानी पड़ती थी। मैं अपने दोस्तों का आभारी हूँ कि वह लोग स्कूल देरी से पहुँचने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर मेरे बदले में कुछ अधिक डण्डे खा लिया करते थे।
मेरे बचपन के दोस्तों में अधिकाँश अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी बहुत याद आती है। मैं जब स्कूल जाते समय थक जाता था तो वह लोग मुझे अपने कन्धों पर बिठाकर स्कूल तक ले जाते थे। हम सब चौधरिया ताल पर अपनी-अपनी तख्ती में एवरेडी बैटरी का मसाला लगाकर चमकाते थे और चना, चबैना, भेली (गुड़) खाया करते थे। स्कूल जो खुले आसमान के नीचे संचालित होता था वहाँ जमीन पर बैठने के लिए घर से लेकर टाट पट्टी (बोरों के टुकड़े) व पुराने अंगोछे लेकर जाते थे। अब वह जमाना लद गया। स्कूल भी अब कई तरह के होने लगे हैं। छोटे नन्हें-मुन्नों के स्कूल इंग्लिश मीडियम, कान्वेण्ट और हिन्दी अंग्रेजी दोनों माध्यमों के। बच्चा अंगरेजी सीख जाएगा तो कलेक्टर बनेगा फिर क्या सारी गरीबी समाप्त। सीधा कहा जाए तो कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाना हर आम संरक्षक का स्टेटस सिम्बल बन गया है। स्वयं हिन्दी का ज्ञान नहीं और पाल्यों को बना रहे हैं अंगरेज।
परिषदीय/बेसिक शिक्षा द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूलों में भेजना तौहीन समझने वाले लोगों के बच्चे उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप कितना खरा उतर रहे हैं यह तो ठीक से नहीं मालूम, लेकिन आँकड़े यही बताते हैं कि मिड डे मील खाकर शिक्षित होने वाले बच्चे कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ने वालों से कहीं बेहतर होते हैं। कान्वेण्ट का बच्चा घड़ी देखना नहीं जातना वह मोबाइल में देखकर पता करता है कि कितना बजा है। वहीं मिड डे मील ग्रहण करके प्राथमिक वि़द्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे इनसे बेहतर तरीके से घड़ी देखना जानते हैं। मुझे याद आ रहा है कि वर्ष 1960 में इलाहाबाद विश्व विद्यालय में पढ़ने वाले मेरे काका (चाचा) ने घर के दरवाजे की जमीन पर मेरा नाम अंगरेजी में लिख दिया था। बस क्या था वह मेरे लिए सबसे बड़ा सबक था। उसी वर्ष मैने प्राइमरी स्कूल पास किया था और कक्षा 6 में प्रवेश लिया था।
काका द्वारा लिखा गया मेरा नाम मेरे लिए अंग्रेजी का महा शब्दकोष बन गया। फिर तभीं से मैं अंग्रेजी विषय की कक्षा में ‘मॉनीटर’ हुआ करता था। एक देहात का लड़का अंग्रेजी में इतना इन्टेलीजेन्ट होगा इसे अध्यापक भी नहीं जान पाते थे। आज आई.ए.एस./आई.पी.एस./पी.सी.एस. की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर अफसर बनने वालों की हस्तलिपि वैसी नहीं दिखती जितनी हमारे जैसे गँवई लोगों की। हमारे बचपन में मिड डे मील व्यवस्था नहीं थी वर्ना चना-चबैना भेजी (गुड़) न खाकर सप्ताह के दिनों अलग-अलग मेनू के अनुसार भोजन करते। हाँ यह बात बत अलहिदा होती कि पढ़ाई कम भोजन पर ध्यान ज्यादा देना पड़ता। हम घड़ी भी देख लेते थे, गिनती, पहाड़ा, सवैय्या, ड्योढ़ा, अढैय्या भी कण्ठस्थ रहता था। आज के बच्चों की तरह नहीं थे। हिन्दी, इतिहास, भूगोल, संस्कृत अब भी है जो हमारे बचपन में पढ़ाये जाते थे। 50 वर्ष पूर्व और आज की शिक्षा पद्धति में तब्दीली भी आई है, इसीलिए कहा जा सकता है कि वर्तमान पीढ़ी का ऊपर वाला ही मालिक है।
मेरे बचपन के दोस्तों में अधिकाँश अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी बहुत याद आती है। मैं जब स्कूल जाते समय थक जाता था तो वह लोग मुझे अपने कन्धों पर बिठाकर स्कूल तक ले जाते थे। हम सब चौधरिया ताल पर अपनी-अपनी तख्ती में एवरेडी बैटरी का मसाला लगाकर चमकाते थे और चना, चबैना, भेली (गुड़) खाया करते थे। स्कूल जो खुले आसमान के नीचे संचालित होता था वहाँ जमीन पर बैठने के लिए घर से लेकर टाट पट्टी (बोरों के टुकड़े) व पुराने अंगोछे लेकर जाते थे। अब वह जमाना लद गया। स्कूल भी अब कई तरह के होने लगे हैं। छोटे नन्हें-मुन्नों के स्कूल इंग्लिश मीडियम, कान्वेण्ट और हिन्दी अंग्रेजी दोनों माध्यमों के। बच्चा अंगरेजी सीख जाएगा तो कलेक्टर बनेगा फिर क्या सारी गरीबी समाप्त। सीधा कहा जाए तो कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाना हर आम संरक्षक का स्टेटस सिम्बल बन गया है। स्वयं हिन्दी का ज्ञान नहीं और पाल्यों को बना रहे हैं अंगरेज।
परिषदीय/बेसिक शिक्षा द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूलों में भेजना तौहीन समझने वाले लोगों के बच्चे उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप कितना खरा उतर रहे हैं यह तो ठीक से नहीं मालूम, लेकिन आँकड़े यही बताते हैं कि मिड डे मील खाकर शिक्षित होने वाले बच्चे कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ने वालों से कहीं बेहतर होते हैं। कान्वेण्ट का बच्चा घड़ी देखना नहीं जातना वह मोबाइल में देखकर पता करता है कि कितना बजा है। वहीं मिड डे मील ग्रहण करके प्राथमिक वि़द्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे इनसे बेहतर तरीके से घड़ी देखना जानते हैं। मुझे याद आ रहा है कि वर्ष 1960 में इलाहाबाद विश्व विद्यालय में पढ़ने वाले मेरे काका (चाचा) ने घर के दरवाजे की जमीन पर मेरा नाम अंगरेजी में लिख दिया था। बस क्या था वह मेरे लिए सबसे बड़ा सबक था। उसी वर्ष मैने प्राइमरी स्कूल पास किया था और कक्षा 6 में प्रवेश लिया था।
काका द्वारा लिखा गया मेरा नाम मेरे लिए अंग्रेजी का महा शब्दकोष बन गया। फिर तभीं से मैं अंग्रेजी विषय की कक्षा में ‘मॉनीटर’ हुआ करता था। एक देहात का लड़का अंग्रेजी में इतना इन्टेलीजेन्ट होगा इसे अध्यापक भी नहीं जान पाते थे। आज आई.ए.एस./आई.पी.एस./पी.सी.एस. की प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर अफसर बनने वालों की हस्तलिपि वैसी नहीं दिखती जितनी हमारे जैसे गँवई लोगों की। हमारे बचपन में मिड डे मील व्यवस्था नहीं थी वर्ना चना-चबैना भेजी (गुड़) न खाकर सप्ताह के दिनों अलग-अलग मेनू के अनुसार भोजन करते। हाँ यह बात बत अलहिदा होती कि पढ़ाई कम भोजन पर ध्यान ज्यादा देना पड़ता। हम घड़ी भी देख लेते थे, गिनती, पहाड़ा, सवैय्या, ड्योढ़ा, अढैय्या भी कण्ठस्थ रहता था। आज के बच्चों की तरह नहीं थे। हिन्दी, इतिहास, भूगोल, संस्कृत अब भी है जो हमारे बचपन में पढ़ाये जाते थे। 50 वर्ष पूर्व और आज की शिक्षा पद्धति में तब्दीली भी आई है, इसीलिए कहा जा सकता है कि वर्तमान पीढ़ी का ऊपर वाला ही मालिक है।
-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
चना-चबैना, भेली गुड़ का जमाना और वर्तमान
Reviewed by rainbownewsexpress
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12:28:00 pm
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