अपनी इज्जत अपने हाथ

जैसे-जैसे आदमी/मानव जैसा प्राणी उम्र दराज होता है उसे अपना व्यतीत याद आता है। मैं भी एक जीव हूँ-मानव। आदमी-इंसान में अन्तर होता है इसलिए भय लग मैं सोचता हूँ कि दूसरों और अपने को क्या कहूँ। आदमी का विलोम और इंसान का शैतान होता है। हिन्दी साहित्य बड़ा है इसके प्रत्येक शब्द का अर्थ निकाल पाना कठिन है। लगभग 4 दशक पूर्व जब मैंने लिखना शुरू किया तब पढ़ना छूट गया वर्ना एक जमाना था गुलशन नन्दा और इब्ने सफी बी.ए. के उपन्यास यानि सामाजिक और जासूसी दोनों तरह की कहानियाँ लिखी पुस्तकें (उपन्यास) हमेशा हाथों में रहा करते थे। खूब पढ़ता था। एक मिनट में एक पेज पढ़ने का मेरा कीर्तिमान मेरे हम उम्र नहीं तोड़ पाए। बहरहाल अब मैं डींगे मारना बन्द करता हूँ वर्ना आप मुझसे ‘जीलस’ हो जाएँगे। इस आलेख के पाठकों एक राज की बात बताऊँ- वह यह कि 4 दशक पूर्व मैने एक भयंकर गलती कर दिया जिसकी सजा आज तक पा रहा हूँ। गलती वह भी भयंकर आप सोच सकते हैं कि वह कौन सी गलती है।
यही जिस दिन दिनाँक को लिखने के लिए कलम पकड़ा तो आज तक यह आदत नहीं छूटी। क्या-क्या सपने थे मेरे परिजनों के वह सब चकनाचूर हो गए अधिकाँश बुजुर्ग मुझसे कुछ धन पाने की लालसा अपने दिल में सँजोए ही परलोक गमन कर गए। वर्तमान समय के लोग पारिवारिक सदस्य मन मसोस कर अपना-अपना काम कर रहे हैं। मेरा लिखना किसी को रास नहीं आता और अब तो मैं भी घर के बरामदे में ढकेल दिया गया हूँ। आप सोचने होंगे कि मैं लिखता क्या हूँ। स्पष्ट कर दूँ यह 21वीं सदी है जिसका असर बीती सदी के 70 के दशक से ही मुझ पर होने लगा है। जैसे कोई व्यक्ति आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचकर उसे माडर्न आर्ट कहता है ठीक उसी अन्दाज में मैं भी अनाप-शनाप लिखकर इसे आधुनिक लेखन कहूँगा।
पुराने जमाने के लेखक, रचनाकार असल मायने में बुद्धिजीवी थें, क्योंकि लेखन की एवज में उन्हें धन मिलता था। मुझ जैसों के आलेख यदि कहीं छप गए तो बस नाम छापकर सम्पादक गण मुझ पर एहसान करते हैं। क्या मजाल कि अपने लाखों के पैकेज मे से कुछ अंश मुझे भी दे दें। मुझे आप सिर्फ एक कलमकार ही कह सकते हो। पहले जब मेरा नाम आलेख के साथ छपता था तब लोग कहते थे कि यार तुम तो बड़े लेखक बन गए हो अमुक पत्र-पत्रिका में छप रहे हो। उनकी इसी प्रशंसा से पेट भर जाता था, हालाँकि मुझे रात पेट पर हाथ रखकर करवटें बदलते ही गुजारनी पड़ती थी। अब एक दशक से मैंने लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया है। सभा, मीटिंग्स से मुझे एलर्जी हो गई है। हो भी क्यों ना वह क्या है कि कपड़ा प्रेस करने वाले से लेकर पम्फलेट छापने वालों ने अपने दो पहिया/चार पहिया आटो वाहनों पर प्रेस/मीडिया लिखवा लिया है और दिन भर नेताओं, पार्टी कार्यालयों, अफसरों के दफ्तरों में चक्कर लगाकर उनसे खीसें निपोरें इस तरह की कुटिल मुस्कान बिखेरते नजर आते हैं, जैसे इन्हीं की वजह से समाज के तीनों अन्य स्तम्भों का संचालन हो रहा है।
प्रेस/मीडिया का नाम रोशन करने वाले इन तथा कथित पत्रकारों की अज्ञानता और बेहूदगी पर सोच-सोच कर ‘हाइपर’ हो गया हूँ इसलिए पी.एम./सी.एम./डी.एम./एस.पी. की मीटिंग्स अटेण्ड करना छोड़ दिया। अपनी इज्जत अपने हाथ। इसी के दृष्टिगत मैंने अपनी सक्रियता को लगभग समाप्त कर दिया। यह तो गनीमत है कि वर्तमान पत्रकारों ने अभी तक हमें बख्शा है वर्ना क्या भरोसा कि इज्जत पानी उतार देते। ‘‘रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरै मोती, मानुष, चून’’ को गाँठ बाँध कर स्वयं कदम फूँक-फूँक कर रखता हूँ। कई ऐसों को देखा है कि स्कूल/कालेज का मुँह नहीं देखे हैं, और बड़े प्रेस/मीडिया परसन बने मोटर बाइकों पर फर्राटा मारते हैं। अलख सुबह अस्पताल, थानों, सरकारी कार्यालयों में प्रवेश करते हैं और निकलते कब हैं इसकी जानकारी नहीं है मुझे। इन लोगों के बारे में कहा जाता है कि अखबारी कार्यालयों से सम्बद्ध हरकारे हैं, खाने, पीने की एवज में दौड़-धूप का काम करते हैं। हुकुम बरदार हैं चूँकि अखबारों के दफ्तरों में काम करते हैं सो इनकी मोटर बाइकों पर ‘प्रेस’ तो लिखा ही रहेगा। ये लोग प्रेस विज्ञप्तियाँ, बन्द लिफाफों को व्यूरो/कार्यालयों में प्रेस के प्रमुखों को देते हैं।
बहरहाल! आज बदले परिदृश्य का रोना रोने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। गुजरा जमाना याद करके यही कोफ्त होती है कि काश! मैं यह गधागीरी न करता, नसीब कोसने से क्या फायदा बस कलम घसीटने को मैं गधागीरी ही कहूँगा। गधा बड़ा ही सीधा मेहनती और सब्र वाला प्राणी होता है ठीक हलवाई के ऊँट की तरह। कपड़ों का गट्ठर लादे हर घण्टे ढेंचू-ढेंचू बोलना आदत है। सीधा, मेहनती और धैर्यवान अल्पज्ञ लोग ही प्रेस से जुड़ते हैं। प्रेस का लेबल चिपकाए अगर दुलत्ती झाड़ भी दें तो उनकी क्या गलती यह तो प्रेस के लेबल का असर है। बस फिर कभी..............।

-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

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