जनकवि आरसी प्रसाद सिंह : संस्मरण एवं श्रद्धांजलि

19 अगस्त जन्मदिन पर विशेष

बाल्यकाल से पूज्य पिताजी (स्व0 धर्मदेव राय, ग्राम- नारेपुर, टोला- धर्मपुर, बछवाड़ा, जिला- बेगूसराय) की गहरी साहित्यिक अभिरूचि के कारण मुझमें साहित्यकारों के प्रति प्रबल आदर भाव उत्पन्न हो गया। पिताजी की कई समकालीन लब्धप्रतिष्ठ साहित्यसेवियों से आत्मीयता थी तथा उनके साथ नियमित पत्राचार भी होता था। वैसे पत्रों में कविवर आरसी प्रसाद सिंह (19.8.1911 - 15.11.1996) का हस्तलिखित पत्र मोती के दाने जैसे अक्षरों तथा सरल, प्रवाहमय शैली के कारण मुझे बचपन में काफी आकर्षित किया। मैं उत्सुकतापूर्वक पिताजी को लिखे गये उनके पत्रों को पढ़ने के लिए इंतजार करता था।
बचपन में आकाशवाणी द्वारा रेडियो पर सायंकाल में राष्ट्र-भक्ति गीतों के कार्यक्रम में आरसीजी की दो प्रसिद्ध कविताएँ, जो देश भक्ति से सराबोर राष्ट्रीय चेतना को प्रभावी ढ़ंग से जागृत करती हैं यथा ‘तरूण स्वदेश के उठो तुम्हें वतन पुकारता। तुम्हें धरा पुकारती, तुम्हें गगन पुकारता।।’ और, ‘सारे जग को पथ दिखलाने वाला जो धुरव तारा है। भारत-भू ने जन्म दिया है, यह सौभाग्य हमारा है।’ बड़े ही रोचक ढ़ंग से प्रस्तुत किया जाता था जिसे मैं चाव से सुनता था। लोक हृदय में रचे-बसे जनकवि आरसी गुलाम भारत में क्रांतिकारियों के राष्ट्र-भक्ति भाव का आंदोलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम की चरम अवस्था में लिखी गयी उनकी कविता ‘दीवाने’ की चर्चा पिताजी अक्सर किया करते थेः ‘हम हैं वह जो घर उजाड़कर कारागार बसानेवाले, सात समुन्दर पार अन्दमन को आबाद बनाने वाले।’
आरसीजी द्वारा रचित तमाम कविता संग्रह पिताजी के निजी पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है। उनके दिलचस्प बाल साहित्य को मैं विद्यालय में अध्ययन के दौरान पढ़ लिया था। उन्होंने बहुत सुन्दर बाल कविताएँ लिखी। उनकी कविताओं को बालकों ने स्वर में स्वर मिलाकर अपना कण्ठ-हार बनाया। उनका स्पष्ट मत था कि जहाँ बाल-मनोभाव है वही बाल-साहित्य है। यह समझना भ्रम है कि उच्च कोटि का साहित्य प्रबुद्व-प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए है और निम्न कोटि की रचनाएँ बालको के लिए। बाल साहित्य भी जीवंत और उत्तम कोटि का हो सकता है यह उन्होंने अपनी रचनाओं से सिद्ध कर दिया। बालकों की रूचि के अनुसार ही भाव, भाषा, विषय, शैली और प्रवाह को चुना। अपनी पुस्तक ‘जगमग’ में उन्होंने बालकों के लिए प्रार्थना में इस तरह का भाव व्यक्त किया हैः
    ‘छल, प्रवन्चना, मिथ्यादिक को
    कृपया दूर भगा देना,
    पर-सेवा के सद्भावों को
    उर में ताल जगा देना।’


    उच्च विद्यालय में हिन्दी के पाठ्यक्रम में आरसीजी की प्रसिद्ध कविता ‘जीवन का झरना’ श्रद्धेय श्री महेन्द्र नारायण शर्मा द्वारा, जो उनके बड़े प्रशंसक थे तथा उनके वैयक्तिक गुणों से भी प्रभावित थे, बड़े जोशीले ढ़ंग से पढ़ाया जाता था। यह कविता जीवन की गत्यात्मकता और आशावादिता को भाषिक दक्षता के साथ प्रस्तुत करता हैः
    ‘यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
    सुख-दुःख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।
    चलना है, केवल चलना है! जीवन चलता ही रहता है।
    रूक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़कर कहता है।’

   
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आरसीजी के प्रति अपना उदगार यों व्यक्त किया हैः ‘सचमुच यह कवि मस्त है। सोंदर्य को देख लेने पर यह बिना कहे नहीं रह सकता। भाषा पर सवारी करता है।................. उपस्थापन में अबाध प्रवाह है। भाषा में सहज सरकाव।’ उनकी कविताओं में जीवन के प्रति अटूट आस्था और विश्वास का स्वर लगातार मुखरित हुआ है। उनकी कविताएँ आदमी के जीवन-संघर्ष को गति प्रदान करते हुए उनकी अनुभूति और दृष्टि में उम्मीद की लौ प्रज्वलित करती है।
1964 में आठवीें कक्षा में प्रवेश के बाद वर्ग शिक्षक द्वारा सभी छात्रों को विद्यालय की पत्रिका के लिए रचनाएँ देने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। मैंने पिताजी के समक्ष मेरी तरफ से किसी रचना लिखने का अनुरोध किया। उन्होंने आरसीजी की नामधारी कविता संग्रह (796 कविताओं का संकलन) की मोटी किताब खोलकर कुछ कविताओं का जिक्र किया जिसके आधार पर एक कविता लिखी जा सकती थी। मुझे आरसीजी की ‘भावी साहित्यिक’ कविता अत्यंत प्रीतिकर लगा। इसी कविता के तर्ज पर मैं ‘नेताजी’ पर तुकबंदी कर खुद लिखने का दुस्साहस किया। पिताजी द्वारा संशोधन-परिमार्जन के बाद यह एक कविता छपी और इसका स्पष्ट उल्लेख किया गया था कि यह आरसीजी की ‘भावी साहित्यिक’ कविता के आधार पर विडंबना काव्य है। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैः ‘ये नेताजी हैं प्रखंड के, इन्हें प्रणाम करो झुककर! लोहियाजी है मात कभी के, जयप्रकाश के ये गुरूवर!’
आरसीजी की कविताएँ, पिताजी से उनका सामीप्य तथा उनके पत्रों से प्रभावित होकर स्वाभाविक तौर पर उनसे मिलने की मेरी उत्कट अभिलाषा जागृत हुई। दिनांक 17.4.1966 को महाकवि के दर्शन का सुयोग मिला। उसे मैं अपने जीवन का अमूल्य क्षण मानता हूँ। आज भी मेरी याद्दाष्त में मेरे निवास स्थान पर उनके काव्यपाठ का वह उज्ज्वल काल बिंदु कायम हैं। तीन बड़े चौकियों को सटाकर ग्रामीण परिवेश में मंच तैयार किया गया था। मंच पर बहुत से स्थानीय कवि और साहित्यनुरागी मौजूद थे। श्रद्धेय लक्ष्मी नारायण शर्मा ‘मुकुर’, वशिष्ट नारायण सिंह ‘बिंदु’, महेन्द्र नारायण शर्मा, नंद किशोर प्रसाद सिंह, भुवनेश्वर राय, ब्रह्मदेव राय ‘विमुक्त’, बैद्यनाथ चौधरी, कपिलदेव कुमार शर्मा तथा देव कुमार झा ‘मयंक’ प्रमुख रूप से उपस्थित थे। बड़ी संख्या में उस इलाके के उत्सुक श्रोतागण देर रात तक ग्राम्य वातावरण में सहजता से रूचिकर कविताओं का आनंद लेते रहे। आरसीजी के आगमन से नारेपुर (धर्मपुर टोला) सचमुच तीर्थवत् हो गया था। उनका कंठ अत्यंत मधुर था तथा बड़ी मस्ती से कविता पाठ करते थे जो श्रोताओं को भावविमुग्ध कर देता था। उनकी कविता के अमृतोपम ध्वनि तरंगो के मृदुल स्पर्श से हम सब आह्लादित हो रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि किसी महाकवि के साथ ही एक महासंत का भी दर्शन हो रहा है। उन्होंने स्थानीय कवियों को कविता पाठ का भरपूर अवसर दिया तथा प्रोत्साहन एवं स्नेहाशीष भी। आरसीजी जिस प्रकार के श्रेष्ठ कवि थे, प्रभु कृपा से उन्हें उसी कोटि की श्रेष्ठ वाणी भी प्राप्त थी। उनका गोरा चेहरा, ऊँची नुकीली नाक, दिव्य ललाट, शील एवं सौम्यता के कारण उनके व्यक्तित्व का सम्मोहन छा गया था। उनके काव्य पाठ में उनका एक-एक सारगर्भित पंक्ति उनके बोल ही नहीं सम्पूर्ण भाव भंगीमा में ऊर्जस्वित हो रहा था। उनके शब्दों की ध्वनि के साथ विचारों की चमक दिखाई पड़ रही थी। महान साहित्यकार शिव पूजन सहाय जी ने आरसीजी पर सटीक टिप्पणी की हैः ‘उनके नाम, उनकी प्रकृति एवं प्रवृति में, उनकी आकृति और मनोवृति कों भी साहित्यिकता का आभास होता है।’
उनकी ‘वैज्ञानिक’ कविता का पाठ सुनकर ग्रामीण श्रोतागण काफी प्रभावित हुएः

‘दिल्ली में जलपान करूँगा दिन का भोजन लंदन में।
और शाम तक पेरिस होते जा पहुचूँ वाशिंगटन में।
पर, चिन्ता मत कर, मैं तेरे पास लौट आ जाऊँगा।
अरी रात का भोजन तेरे हाथों से ही खाऊँगा।।’..............
‘तू चाहे जो समझे लेकिन नहीं रूकेगा युग मेरा।
मानव निर्मित चाँद लगाता अब तो धरती का फेरा।’

उनकी कल्पना आसमानी न होकर जीवन की वास्तविकता से आकार ग्रहण करती है। भाषा में तीव्र गतिशीलता और प्रबल भावधारा हैं।
उन्होंने दूसरी कविता ‘भावना’ का पाठ किया। इस कविता के दर्शन को भी दृष्टांत देकर ग्रामीण श्रोताओं को समझाया। प्रसंग था भगवान राम सेतु का निर्माण कर रहे थे। सभी हितैषी अपने सामर्थ्य के अनुसार इस कार्य में मदद कर रहे थे। एक गिलहरी जो भगवान राम के विजय की कामना कर रही थी, अपने सूक्ष्म काया के बावजूद मदद को तत्पर थी। वह बगल के धूल में लोटकर कुछ धूलकण अपने रोओं में समेट लेती थी और निर्माण स्थल पर जाकर झाड़ देती थी। महाकवि ने इस उदाहरण के माध्यम से समझाया कि ऐसी भावना साधना से काफी बलशाली होती है। इन पंक्तियों में भावना वरेण्य हैः

   ‘हमारी साधना का बल नहीं, तुम भावना देखो।
    हमारे प्रेम का अभिनय नहीं, उन्मादना देखो।
    कहाँ है चंद्रमा आकाश का, भूतल कहाँ है?
    हृदय-संबंध में क्या भेद? कोई छल कहाँ हैं।....
    समर्पण यह अधूरा मत, मिलन संभावना देखो,
    हमारी साधना का बल नहीं, तुम भावना देखो।’

उन्होंने कहा था कि भावनाएँ संवाद करती हैं और हमें उनको बारीकी से सुनना और पहचानना चाहिए। यदि भावनाएँ प्रीतिकर हैं तो हमें उनमें बहकर उल्लसित होना चाहिए। ऐसी भावनाएँ हमें उद्धात बनाती है। केवल भाव-व्यंजना कविता का साध्य नहीं हो सकती। उसके लिए पारदर्शी संवाद आवश्यक है। भाव संवाद से आगे बढ़कर बोध में परिणत हो जाता है। यह बोध एक ओर भावों को स्पंदित करता है तो दूसरी तरफ, उनसे ऊपर उठकर एक तटस्थ और व्यापक ज्ञान प्रदान करता है। आरसीजी ने कहा था कि भावों के अंतःस्थल से ज्ञानदृष्टि का उपजना, जो अन्ततः यथार्थबोध है, कवि का परम लक्ष्य हैं।
मेरे यहाँ रात्रि-विश्रााम के बाद दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर मेरी गृह-वाटिका में भ्रमण करते वक्त पौधों एवं फूलों को आरसीजी इस कदर निहार रहे थे मानो उनसे मौन, अर्थपूर्ण संवाद कर रहे हों। प्रकृति से आरसीजी का अत्यंत लगाव था। हर तरह के मुलम्मों को हटाकर सत्य को अनावृत करना उनका ध्येय था। प्रकृति के सौंदर्य एवं पुष्पों की गंध में उन्हें पृथ्वी का गंध मिलता था जो विविध रूपों  में उनकी कविताओं में प्रस्फुटित हुआ है। पर्यावरण एवं हरियाली के प्रति सजग रहनेवाले आरसीजी पेड़-पौधो की अवैध कटाई से मर्माहत होकर एक स्थान पर लिखा है- ‘आज अरण्य स्वंय रूदन करता है और उसका रूदन कोई नहीं सुनता। अरण्य का रूदन कोई सुनता तो इस पर भला कुल्हाड़ी ही क्यों चलाता?’ उनकी कविताओं में प्रकृति के साथ अनुराग का अद्भुत सांमजस्य है।
आरसीजी स्वभाव से विनम्र और मितभाषी थे। उनके सौम्य व्यक्तित्व में मानवीय पक्षों की प्रबलता थी जिसके कारण वे सर्वप्रिय जनकवि माने जाते थे। वे खुले दिल के खुशमिजाज व्यक्ति थे। वे निश्छल, उत्साही और मिलनसार थे। नवोदित साहित्यकारों तथा रचनाकर मित्रों का यथेष्ठ मदद और मार्गदर्शन करते थे। उनके व्यवहार में ग्रामीण हार्दिकता का घनत्व बहुत ज्यादा था। वे जितने बड़े कवि थे, उससे भी बड़े इंसान थे। ईमानदारी एवं पारदर्शिता से जनित खुलापन उनमें प्रचुरता से विद्यमान था। वे मनोयोगपूर्वक लिखते थे तथा परिश्रमपूर्वक परिमार्जन करते थे। उनमें अद्भुत सादगी थी। विस्तृत राग-रंग के मध्य भी निस्पृह तटस्थता और अप्रतिम करूणा उनके व्यक्तित्व का अपरिहार्य अवयव था। वे स्फूर्ति के सजीव प्रतिमूर्ति थे।
वे एक गंभीर अध्येता थे जो विचारों एवं तथ्यों की जड़ तक पहुँचकर दाने और भूसी को पृथक् कर देते थे। उनके लिखने की कला विशिष्ट थी और उनका लिखा आईने की तरह साफ-सुथरा दिखता था। वे स्व-प्रशंसा से हमेशा दूर रहते थे। अपनी प्रतिभा और अप्रतिम लगन से उन्होंने मैथिली साहित्य को नई ऊचाँई प्रदान की। मैथिली काव्य संग्रह ‘सूर्यमुखी’ के लिए उन्हें 1948 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। उनकी रचनाओं में लोकत्व एवं माटी की सुगंध कूट-कूट कर भरी है। आरसीजी ने कहा हैः ‘हमारे हिन्दी पाठको की समझदारी का औसत मान-दंड वही होना चाहिए जो प्रायः तुलसीकृत रामायण से प्रकट होता है। मेरा काव्य उसी शैली-शिल्प-विधान में निर्मित हुआ है, जिसे कोटि-कोटि हिन्दी भाषा-भाषी जन-गण-मन उन्मुक्त कंठ से बोला-गा सकते है।’ अपने काव्य ‘नंददास’ की प्रस्तावना में आरसीजी ने लिखा हैः ‘यदि एक भी समानधर्मा व्यक्ति का हृदय मेरे इस काव्य का मर्मस्थल स्पर्श कर सहानुभूति तथा संवेदन के सांमजस्यपूर्ण स्वरों की रस-वर्षा से आप्लावित हो उठेगा, तो मैं अपने को कृतार्थ समझूगाँ।’
पिताजी बताते थे कि 1930 की दशक में मुंशी प्रेमचन्द द्वारा संपादित प्रतिष्ठित एवं उत्कृष्ठ पत्रिका ‘हंस’ के मुख पृष्ठ पर आरसीजी की कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित की जाती थी। प्रेमचन्द अपने समय के श्रेष्ठ एवं युवा रचनाकारों को प्रोत्साहित किया करते थे। रचनाकर से वे निःस्वार्थ श्रम की उम्मीद रखते थे। उनका कहना था- ‘हिन्दी में आज हमें न पैसे मिलते हैं, न यश मिलता है। दोनों ही नहीं। इस संसार में लेखक को चाहिए, किसी की भी कामना करे बिना लिखता रहे।’ आरसीजी ने भी पिताजी को 1963 में लिखे एक पत्र में रचनाकारों की व्यथा को चित्रित किया हैः
    प्रिय धर्मदेव जी,
सी 31/8, पेपर मिल कालोनी,
निशातगंज, लखनऊ। 10.9.1963
आपका कृपा-पत्र मिला। बहुत दिनों के बाद कुशल-समाचार जानकर प्रसन्नता होना स्वाभविक ही है। मैं लखनऊ में हूँ। एक पोंव गाँव में रहता है, एक पोंव यहाँ। जब लखनऊ से जी उबता है, तो गॉव चला जाता हूँ और गाँव से जी उबता है, तो लखनऊ। बस यही कार्यक्रम है। मुक्त हूँ, कोई नौकरी-चाकरी, सेवा-टहल नहीं। बेकारी सी मुक्ति है। लिखना, पढ़ना, कविता, गीत, रचना, यह तो हमारे देश में अभी कोई काम नहीं समझा जाता है। फिर कैसे कहूँ कि क्या करता हूँ? कैसे रहता हूँ?
                                आपका, विनीत, आरसी
उनकी प्रवाहमय लेखन शैली से प्रभावित होकर रामवृक्ष बेनीपुरी ने उन्हें ‘युवक’ समाचार पत्र में अवसर प्रदान किया। उनके आलेखों में ओजपूर्ण एवं क्रांतिकारी शब्दों के प्रयोग से कुपित होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया था। उन्होंने 1956-1957 तक आकाशवाणी लखनऊ एवं इलाहाबाद में हिन्दी कार्यक्रम अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएँ दी। जीवन पर्यन्त नियंत्रण के खिलाफ आक्रोश जताते रहे और कभी परवशता को स्वीकार नहीं किया। कहा जाता है कि 1940 की दशक में जयपुर के महाराजा आरसीजी को अपने यहाँ राजकवि का सम्मानित पद देना चाहते थे। काफी आग्रह के बावजूद आरसीजी इस चारणवृति को ठुकराकर अपने स्वभिमानी स्वरूप का अनोखा परिचय दिया। उनकी अंतरात्मा को आर्थिक विपन्नता, राजनीतिक प्रपंच, संकीर्णता एवं भ्रष्टाचार ने बुरी तरह झकझोर दिया था। अपनी अंर्तपीड़ा को उन्होंने इस तरह मुखरित किया हैः
  
 ‘मन में कोई  बात छिपाए, मुँह से कोई और कहे।
    राजनीति में यही दुरंगी चाल महान सफलता है।।
    पर साहित्य-जगत में दिल की बात उमड़ती बाहर में।
    राजनिति का कूट नहीं साहित्य जगत में चलता है।।’


अपनी ईमानदारी और गैर - समझौतावादी स्वभाव के कारण वे किसी एक जगह टिक नहीं पाये। हमेशा अपनी शर्त्तो पर जिए। हर जगह कठिन आत्म-सघर्ष की स्थिति बनी रही। उन्होंने अपनी काव्य-सृष्टि में उन समस्त कटु-मधु अनुभवों को अक्षरित किया है जिन्हें जीने के क्रम में प्राप्त किया था। विचारों की दृढ़ता के साथ उनके स्वभाव में अजीब लचीलापन था जिसके कारण विभिन्न तबके के व्यक्तियों के दिल को वे जीत लेते थे। अर्थाभावग्रस्त और स्वाभिमानी स्वरूप उनकी इन कविताओं में परिलक्षित होता हैः

    ‘स्वाभिमान के धनी, विचारक निष्प्रम और अनाथ रहे।
    चापलूस जो नहीं अभागे, मलते अपने हाथ रहे।’


    ‘किसी बुद्धिजीवी कलम पर नियंत्रण
    सरीखा नहीं है कहीं पाप कोई।
    उदर के लिए स्वाभिमानी हृदय के
    दमन-सा नहीं अन्य संताप कोई।
    न वनराज को पींजरा है सुहाता,
    न गजराज को मत्त अंकुश गवारा।
    अभी और कुछ दूर चल नाव लेकर,
    न जाने किधर से बुला ने किनारा।।’


अपनी कविता ‘भ्रष्टचार संहिता’ में उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार पर व्यंगयात्मक प्रहार किया हैः
    ‘बरसाती मेढ़क-से फूले, पीले-पीले गदराये
    गाँव-गाँव में लाखों नेता खद्दरपोश निकल आये।
    पर जन को क्या पता कि उनके नेता जो कहलाते हैं।
    वे ही उनके हिस्से का भी माल हड़प ले जाते हैं।’

उनकी रचनाओं में मौलिक अभिव्यक्ति का बहुआयामी आस्वाद तथा गति और प्रज्ञा का अद्भुत सम्मिश्रण है। सूक्षम प्रेक्षण उनकी कविता के अयस्क में ढ़लकर संवेदना के स्वर झंकृत करते है। उनकी विलक्षण प्रतिभा प्रतिक्षण नूतनता का अन्वेषण करती रहती थी। काव्य रचना के अलावे साहित्य की अन्य विधाओं का भी उन्होंने श्री-संपन्न किया। दरअसल नव्य सृजन दृष्टियों से उनकी कविताएं आच्छादित है। डा0 रामचन्द्र महेन्द्र ने उनकी चिंतनपरक कविताआंे के बारे में कहा हैः ‘हिन्दी संसार ने कवि के रूप में उनकी कृतियों की महत्ता और मौलिकता का लोहा माना है। यह सत्य है कि कवि के रूप में आरसी ने मर्मस्पर्शी काव्य की सृष्टि की है, किन्तु अपनी एकांकियों में भी आप चिंतन-प्रधान गंभीर साहित्य की सृष्टि कर सके हे। इनमें समाज, धर्म, राजनीति, सामायिक घटनाओं, भौतिकवाद, समाजवाद एवं साम्यवाद आदि का विवेचन हुआ है।‘
1972 में मेरी शादी के अवसर पर पिताजी ने आरसीजी को आमंत्रित किया था। जवाब में लाल स्याही से अपनी सुंदर लिखावट में स्नेहिल शब्द-स्फीति से सिक्त दो लघु कविताएं ‘वर एवं वधु के प्रति‘ उन्होंने भेजी थी जो मेरी स्मृति-वीथिका में चिर अंकित रहेगाः

    ‘वर-वधु का चिर प्रणय हो,
    एक उर और एक लय हो।’


23 सितंबर, 1972 को फुलवरिया (बरौनी) हाई स्कूल में राष्ट्रकवि दिनकर की 64 वीं वर्षगाँठ मनायी गयी थी। दिनकर जी का आर्शीवाद एवं स्नेह पिताजी को कॉलेज के दिनों से ही प्रचुर मात्रा में प्राप्त था। सौगाग्यवश मुझे भी राष्ट्रकवि के दर्शन का सौभाग्य मिला। दिनकर जी के सम्मान में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था जिसमें प्रसिद्ध कविगण के साथ आरसीजी भी भाग लिए थे। इन दोनों कवियों का एक लंबे समय के बाद मिलन हुआ था। दोनों कवियों को मंच पर एक साथ देख तमाम साहित्यकारगण एवं श्रोतागण मुग्ध एवं विस्मित थे। आरसीजी जब दिनकरजी को ‘राका’ का दिनकर विषेषांक समर्पित करने को उठे तो दिनकरजी चिल्ला पड़े ‘अरे! कोई फोटोग्राफर नहीं है क्या जो इस दृष्य को कैमरे मे कैद कर लेता?’ दुर्भाग्यवष फोटोग्राफर वहाँ मौजूद नहीं था। आरसीजी ने कविगोष्ठी का संचालन किया था तथा अंत में दिनकरजी पर अपनी प्रसिद्ध पुरानी कविता का प्रेमिल पाठ किया थाः

    ‘मेरे दिनकर, मेरे उदार!
    बरसाया था बरसों पहले तुमनें जो मुझ पर अमित प्यार,
    है फेंक दिया है उसे आज इस दूरी ने है अपार।‘

पिताजी ने दोनों कवियों के लगभग बीस साल बाद मिलन पर अपने आलेख “आरसीः अमर चेतना का कथाकार शिल्पी“ में विस्तार से चर्चा की है जो अक्टूबर, 1974 में कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। पिताजी के शब्दों मेंः ‘आरसी और दिनकर में कुछ समताएं थी फिर भी काफी अंतर था। आरसी जी सरल, निश्छल, निराभिमानी परन्तु घोर स्वाभिमानी हैं। वे बाह्याडंबर से दूर तथा किसी के खुशामद को नफरत की निगाह से देखने को आदी रहे है। इस विज्ञापन-प्रधान युग में भी उन्होंन प्रचार का आश्रय नहीं लिया अतः बर्हिमुखी विकास नहीं कर पाये। दिनकर राष्ट्रीय कविताओं के माध्यम से आगे बढे, राजनीति को भी कसके पकड़े। राज्य सभा के सदस्व्य बने और अपनी अनेक पुस्तकें यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में लगवाने में सफल रहे। अध्यात्म की किरणें दोनों में जगी परन्तु दिनकर जी में जरा देर से। आरसी जी के ‘नन्ददास‘ की सराहना में दिनकर स्वयं इस बात को स्वीकारते हैः

    ‘अमृत सिक्त यह किरण शुभ्र जन-मन का तिमिर हरे,
    शंकित भ्रमित अशान्त भुवन में नव विश्वास भरे।
    जनम रहा पीयूष प्राण में जो कवि बन्धु तुम्हारे,
    सब को दे परमायु और मेरा भी स्पर्श करे।‘

    आरसीजी द्वारा पिताजी के लिखे पत्र मे अक्सर पुस्तक प्रकाशन संबंधी समस्या का जिक्र रहता था। बानगी के तौर पर एक पत्र उद्धृत हैः
                                रोड नं0‘13-बी, राजेन्द्र नगर
प्रिय धर्मदेव जी, प्रणाम।                        पटना-16, दिनांक 9.8.1986
आपका 4.8.1986 दिनांकित पत्र प्राप्त हुआ। समाचार से अवगत हुआ। मेरे जन्म दिन के उपलक्ष्य में आपकी शुभकामनाओं से उत्साहित हुआ। परमात्मा आप को भी सुखी और सानंद रक्खे।
यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप मेरी 100 कविताओं का सर्वश्रेष्ठ संकलन प्रकाशित करवाने की दिशा में प्रयत्न कर रहे है। आशा है, शीघ्र इस संबंध में आपका कोई शुभ समाचार प्राप्त होगा। पुस्तकों तो कई प्रेस में जाने को तैयार हैं पर इस समय एक भी छप नहीं रही है। छिटफुट रूप से लिखना भी चल रहा है।
    शुभकामनाओं के साथ,
        आपका, आरसी प्रसाद सिंह।

वे आजीवन काव्य की एकांत साधना में लगे रहे। उनके संपर्क में रहनेवाले साहित्यिकों एवं ग्रामीणों द्वारा कहा जाता है कि उनकी जितनी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं, उससे कहीं ज्यादा अप्रकाशित है। यह बड़ी विडंबना है कि लगभग 15 कविता संग्रह, 4 प्रबंध काव्य तथा 6 गीत संग्रह अभी प्रकाशन का बाट जोह रही है। सरकार एवं लोकोपकारी संस्थाओं द्वारा अविलंब अमूल्य पांडुलिपियों को संरक्षित कर पुस्तकाकार देने का शुभ कार्य अपेक्षित है। इससे उत्साह, उमंग एवं अतिरेक मनोदशा को व्यक्त करने वाले काव्य हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि करेेगें। साथ ही, असंख्य पाठकों को भाषा सिद्ध रूप, जीवन, यौवन, एवं प्रेम के कवि के बहुआयामी कृतित्व से अवगत करायेगें। उनके बहुरंगंी साहित्य का विस्तृत अध्ययन और अनुसंधान परमावश्यक है ताकि महाकवि के जीवन -दर्षन एवं काव्य साहित्य के सार-तत्व आरसी-प्रेमियों को परोसा जा सके। उनके कृतित्व में भावनाओं, सौंदर्याकर्षणों तथा कल्पना-चित्रों को निपुणता से उकेड़ने का अद्भुत प्रयास है। उनकी संवेदना हृदयस्पर्शी है तथा भाषिक चेतना समावेशी है। उनके काव्य में कर्म की गत्यात्मक एवं अविराम धारा का प्रवाह है तथा क्रिया-प्रधान जीवन-दृष्टि का रूपायन है।
वस्तुतः कवि अपनी काया में नहीं, अपने सृजन संसार में जीवित रहता है। कहा गया है कि एक कवि की मृत्यु नहीं होती है। अपनी कविताओं के माध्यम से वह सदैव जीवित रहता है। आरसीजी का भौतिक शरीर धरा-धाम से दिनांक 15.11.1996 को उठ गया लेकिन उनका यशःकाय, जो उनकी कृतियों में निहित है, सदैव जीवित रहेगा।

-प्रभात कुमार राय
मुख्यमंत्री, बिहार के ऊर्जा सलाहकार
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