राजनीतिक आजादी ही नहीं, राष्ट्रभाषा भी आवश्यक

-शिवप्रसाद भारती/ 15 अगस्त 1947 में हमें राजनीतिक आजादी मिली और 26 जनवरी 1950 को ‘‘गणतन्त्र’’ देश के रूप में मान्यता मिली, जब हमने अपने देश की जनभावनाओं के अनुसार अपना संविधान स्वीकार किया। अपना संविधान स्वीकार कर लेने के बाद सैद्धान्तिक तौर पर तो हम अपने को पूर्ण स्वतन्त्र कहते हैं किन्तु तत्कालीन स्थितियों परिस्थितियों को देखें तो यही कहा जा सकता था कि अभी केवल राजनीतिक आजादी मिली है अभी आर्थिक, सामाजिक आजादी मिलना शेष है। संविधान में दिये गये मौलिक और अधिकारों के अनुसार देखें तो देश के सभी नागरिकों को राजनीति के साथ आर्थिक गतिविधियां संचालित करने, सामाजिक अधिकारों के साथ रहन-सहन, बोल-चाल, मिल-जुल कर रहने तथा अपनी इच्छानुसार पूजा-पाठ, इबादत और अभिव्यक्ति की आजादी मिली, इसी में भाषायी स्वतन्त्रता भी शामिल है किन्तु देश के अधिकतर क्षेत्रों में बोली जाने वाली और स्वतन्त्रता संग्राम की सम्पर्क भाषा हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिला जो वास्तव में मिलना चाहिये था। संविधान में हिन्दी को केवल राजभाषा का दर्जा दिया गया जबकि राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाना चाहिये था।
संविधान में अनुच्छेद-343 के अनुसार देश की राजभाषा देवनागरी में लिखित हिन्दी मानी गयी है। संविधान सभा ने एक लम्बे विचार विमर्श के बाद ‘‘हिन्दी’’ को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था। संविधान सभा में यद्यपि अधिकतर सदस्य अंग्रेजी लिखने बोलने वाले थे लेकिन उन्ळोंने बड़ी ईमानदारी से देश की भाषा हिन्दी को ही राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।
जब देश में राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न आता है तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कभी कहा गया यह कथन ‘‘राष्ट्रभाषा के बिना देश गूंगा है हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है’’ अधिक प्रासंगिक हो उठता है उनका यह सन्देश राजनेताओं, नौकरशाहों, शिक्षकों, लेखकों, पत्रकारों और देश के बुद्धिजीवियों के लिये समान रूप से था जो 69 साल बाद आज भी जस का तस है। हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न है कि भारत एक राष्ट्र है, एक राष्ट्रीय ध्वज है, एक राष्ट्रीय गीत है किन्तु राजभाषा (राष्ट्रभाषा) 22 हैं। इन 22 भाषाओं में एक सर्वमान्य भाषा को राष्ट्रभाषा स्वीकार करना है जिसकी सच्ची अधिकारणी हिन्दी है किन्तु यह आज तक नहीं स्वीकार की जा सकी है।
हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देते समय संविधान सभा द्वारा जो किन्तु और परन्तु लगाये गये थे उनमें एक था कि ‘‘जब तक भारत के समस्त राज्य हिन्दी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा) के रूप में स्थापित करने को सहमत नहीं होते, तब तक हिन्दी के साथ अंग्रेजी सम्पर्क भाषा के रूप में व्यवहार में रहेगी।’’ अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को सर्वमान्य भाषा के रूप में स्वीकार करने को 15 वर्ष का समय दिया गया था जिसमें 15 वर्ष की जगह 65 वर्ष का समय व्यतीत हो गया है और सन् 1950 में जो किन्तु परन्तु लगाये गये थे वे आज भी जस के तस बने हुये हैं।
देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा व सर्वमान्य भाषा बनाने के लिये ऐसा नहीं है कि सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया, सरकार ने पूरा एक राजभाषा (राष्ट्रभाषा) विभाग बनाकर पूरे देश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य किया है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिवर्ष 14 सितम्बर ‘‘हिन्दी दिवस’’ को हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़े के आयोजन होते हैं किन्तु ये आयोजन केवल वार्षिक समारोह बनकर रह जाते हैं। इन आयोजनों से देश में हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी है ऐसा कहना अतिश्योक्ति ही होगा।
हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ाने, सर्वमान्य भाषा के रूप में मान्यता दिलाने में राजनीतिक कारण भी रहे हैं। एक तरफ जहां देश के अधिकतर प्रदेशों के लोग, जनप्रतिनिधि हिन्दी को राष्ट्रभाषा दिलाने के लिये प्रयत्नशील हैं वहीं कुछ प्रदेशों के लोग और उनके जनप्रतिनिधि सर्वमान्य भाषा स्वीकार करने में अड़ंगा लगाते रहते हैं। इनके अलावा सरकारी कार्यप्रणाली में भी हिन्दी को हतोत्साहित किया जाता है। देश का ‘‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’’ 55 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग न होने पर एक तरफ तो खेद व्यक्त करता है और सभी विश्वविद्यालयों को हिन्दी विभाग खोलने के निर्देश दे रहा है (जिसमें पांच वर्ष तक शिक्षकों का वेतन भी देने की बात है), वहीं दूसरी ओर कहा जा रहा है कि ‘‘हिन्दी की पढ़ाई अनिवार्य करने की बाध्यता नहीं है।’’
इन विश्वविद्यालयों में यदि हिन्दी की पढ़ाई की स्थिति देखें तो बड़ी निराशा होती है। देश के कुल 451 विश्वविद्यालयों में से 232 में हिन्दी की पढ़ाई नहीं होती, दिल्ली के प्रतिष्ठित जे0एन0यू0 में भी हिन्दी विभाग नहीं है वहां भारतीय भाषाओं के रूप में हिन्दी पढ़ाई जाती हैं। उत्तर प्रदेश के 50 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती। इसी प्रकार मध्य प्रदेश के 26 में से 9, हरियाणा के 19 में से 10, हिमांचल के 15 में 9, उत्तराखण्ड के 12 में 6, झारखण्ड के 10 में 3, बिहार के 15 में से 3 विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग संचालित नहीं है। देश के 220 निजी विश्वविद्यालयों में शायद ही किन्हीं एक-दो विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग हों। हिन्दी के राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार व राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिस्थापित कराने वाले अन्य विभागों की भी यही स्थिति है जिसका परिणाम हम सबके सामने है।
एक तरफ जहां हिन्दी की यह स्थिति है वहीं एक दूसरी अच्छी स्थिति भी है। हिन्दी बिना किसी सरकारी प्रयास के अपने आप देश के 80 प्रतिशत से अधिक लोगों की सम्पर्क भाषा बन चुकी है। हिन्दी भाषी प्रदेशों के अलावा प्रदेशों के लोग हिन्दी लिखने, पढ़ने, बोलने और समझने में समर्थ हैं। सबसे अधिक हिन्दी की लोकप्रियता व्यवसायिक सम्पर्क भाषा के रूप में हुई है जो देश की सीमाओं से निकलकर विदेशों में भी अपना झण्डा गाड़ने में सफल रही है। यदि विश्व में हिन्दी की स्थिति देखी जाय तो हिन्दी चौथे स्थान पर है। एथनालॉग डाट काम न्यूज एजेन्सी के अनुसार विश्व में 39.9 करोड़ लोग स्पेनिश, 33.5 करोड़ अंग्रेजी, 26 करोड़ हिन्दी, 24.2 करोड़ अरबी और 1.19 अरब चीनी बोलने वाले लोग हैं जो विश्व में सबसे अधिक है। हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठापित करने में विश्व हिन्दी सम्मेलनों का भी अहम योगदान है। विश्व के अनेक देशों में 10 सम्मेलन आयोजित किये हैं।
देश में हिन्दी राजभाषा और अंग्रेजी सम्पर्क भाषा के रूप में अवश्य प्रतिष्ठापित हैं किन्तु प्रदेशों की राज्य सरकारों को आन्तरिक स्वतन्त्रता है कि वे अपने-अपने प्रदेशों की भाषाओं में कार्य कर सकती हैं। इसी आन्तरिक आजादी के फलस्वरूप जम्मू कश्मीर में कश्मीरी, मणिपुर में मणिपुरी, गुजरात में गुजराती, तमिलनाडु में तमिल आदि प्रदेश सरकारों की क्षेत्रीय भाषायें स्वीकार की गयी हैं। अधिकृत रूप से हिन्दी का प्रयोग करने वाले 10 प्रदेश हिमांचल, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखण्ड राज्य हैं किन्तु देश के सभी राज्यों में वह केवल सम्पर्क भाषा के रूप में ही नहीं समन्वय भाषा के रूप में भी बोली जाती है। केवल मिजोरम और नागालैण्ड ऐसे राज्य हैं जहां अंग्रेजी में कामकाज होता है। ऐसा नहीं है कि यहां भी हिन्दी को समझने वाले लोग नहीं हैं? अधिकतर लोग वे राजनीतिक कारणों से हिन्दी की उपेक्षा करते हैं।
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी अवश्य देश-विदेश में अपनी बात हिन्दी में कह रहे हैं किन्तु हिन्दी की सेवा में लगे शिक्षक, कलमकार, बुद्धिजीवी और कवियों, साहित्यकारों का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में नगण्य योगदान है। इतना ही नहीं संसद में देश का प्रतिनिधित्व करने वाले 540 सांसद और प्रदेश विधानसभाओं के प्रतिनिधि विधायकों/ विधान परिषद सदस्यों का इन्तजार है कि कब वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिये सशक्त पहल करेंगे? इस दिशा में भले ही निराशा दिखायी देती हो किन्तु राष्ट्रीय  राजधानी क्षेत्र की एक सक्षम ‘‘राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास गाजियाबाद’’ हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की दिशा में प्रयत्नशील है, जिसकी पहल सराहनीय कही जा सकती है। 
(लेखक-स्वतंत्र लेखक/पत्रकार एवं सूचना एंव जनसम्पर्क विभा उ.प्र के पूर्व उप सूचना निदेशक है)
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(शिवप्रसाद भारती)
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