-एडवोकेट विजयपाल तोमर के प्रयासों ने नहीं पूरी होने दी Akhilesh Government की मंशा
-प्रदेश सरकार का संरक्षण ही बना हुआ था प्रशासन के ढीले रवैये की वजह
-विजयपाल तोमर ने अवमानना की कार्यवाही न की होती तो अब भी खाली न होता जवाहर बाग
-प्रदेश सरकार का संरक्षण ही बना हुआ था प्रशासन के ढीले रवैये की वजह
-विजयपाल तोमर ने अवमानना की कार्यवाही न की होती तो अब भी खाली न होता जवाहर बाग
मथुरा। 280 एकड़ में फैले उद्यान विभाग के जिस "जवाहर बाग" से अवैध कब्जा हटवाते हुए कल दो जांबाज पुलिस अफसर शहीद हो गए और दर्जनों पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हुए हैं, उसे कथित सत्याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर देने की प्रदेश सरकार ने पूरी तैयारी कर ली थी। इस बात का दावा बार एसोसिएशन मथुरा के पूर्व अध्यक्ष और इस पूरे मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट तक ले जाने वाले एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर ने किया है।
एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर का कहना है कि यदि वह समय रहते जवाहर बाग पर अवैध कब्जे के मामले को हाईकोर्ट में नहीं ले जाते तो प्रदेश सरकार इस बेशकीमती सरकारी जमीन का पट्टा मात्र 1 रुपया सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से कथित सत्याग्रहियों के नाम कर चुकी होती। एडवोकेट विजयपाल तोमर को इस आशय की जानकारी सारा मामला हाईकोर्ट में ले जाने के तत्काल बाद ही हो गई थी और इसीलिए हाईकोर्ट ने उस पर कड़ा संज्ञान लेते हुए शासन प्रशासन को जवाहर बाग खाली कराने के आदेश दिए।
एडवोकेट विजयपाल तोमर के अनुसार मथुरा का जिला प्रशासन पूरी तरह प्रदेश सरकार के दबाव में था और इसीलिए वह चाहते हुए तथा कोर्ट के सख्त आदेश होने के बावजूद कथित सत्याग्रहियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही नहीं कर पा रहा था जबकि प्रशासन के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला भी शुरू हो चुका था।
विजयपाल तोमर का कहना है कि कल भी जवाहर बाग को कथित सत्याग्रहियों के कब्जे से मुक्त कराने में अहम भूमिका पुलिस व आरएएफ के उन जवानों ने निभाई है, जो अभी-अभी ट्रेनिंग पूरी करके आए हैं और जिन्होंने अपने अफसरों को कथित सत्याग्रहियों की एकतरफा फायरिंग में घायल होते व दम तोड़ते देखा था अन्यथा पुलिस प्रशासन तो कल भी जवाहर बाग को शायद ही कब्जामुक्त करा पाता।
हालांकि इस सबके बावजूद एडवोकेट विजयपाल तोमर मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार तथा एसएसपी राकेश सिंह को इस बात के लिए धन्यवाद देते हैं कि शासन स्तर से भारी दबाव में होने पर भी दोनों अधिकारियों ने जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हरसंभव प्रयास किया। यह बात अलग है कि शासन के दबाव में वह कब्जाधारियों के खिलाफ उतनी सख्त कार्यवाही नहीं कर सके, जितनी सख्ती की दरकार थी। एडवोकेट विजयपाल तोमर का कहना है कि यदि पूर्व में ही कब्जाधारियों के ऊपर आवश्यक बल प्रयोग किया गया होता तो न उन्हें इतना असलाह जमा करने का अवसर मिलता और न वो पुलिस प्रशासन पर एकतरफा हमलावर होने की हिम्मत जुटा पाते।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जवाहर बाग को खाली करवाने में एडवोकेट विजयपाल तोमर ने बड़ी भूमिका निभाई क्योंकि वह जवाहर बाग पर कब्जा होने के कुछ समय बाद ही इस मामले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ले गए। उनकी याचिका पर हाईकोर्ट ने 20 मई 2015 को ही सरकारी बाग खाली कराने के आदेश शासन-प्रशासन को दे दिए थे किंतु शासन के दबाव में प्रशासन यथासंभव नरमी बरतता रहा। हारकर विजयपाल तोमर ने जब शासन-प्रशासन के खिलाफ 22 जनवरी 2016 को न्यायालय की अवमानना का केस शुरू किया, तब शासन प्रशासन सक्रिय हुआ लेकिन उसके बाद भी 4 महीने पर्याप्त फोर्स का इंतजाम न होने के बहाने गुजार दिए जिससे कब्जाधारियों को अपनी ताकत बढ़ाने तथा अवैध असलाह जमा करने का पूरा मौका मिला।
एडवोकेट विजयपाल तोमर की बात में इसलिए भी दम लगता है कि कब्जा करने वाले कथित सत्याग्रहियों का संबंध बाबा जयगुरुदेव में आस्था रखने वाले एक गुट से ही बताया जाता है। हालांकि जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग इस बात का खंडन करते हैं। उल्लेखनीय है कि जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्था की मथुरा में बेहिसाब चल व अचल संपत्ति है। जयगुरूदेव के जीवित रहते तथा अब उसके बाद भी जिन जमीनों पर आज जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्था काबिज है, उनमें से अधिकांश जमीन विवादित हैं और उनके मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। इन जमीनों में सर्वाधिक जमीन ओद्यौगिक एरिया की है जिसे कभी उद्योग विभाग ने विभिन्न उद्यमियों के नाम एलॉट किया था।
जवाहर बाग पर कब्जा करने वाले कथित सत्याग्रहियों की प्रमुख मांग में यह भी शामिल था कि जिला प्रशासन उन्हें बाबा जयगुरुदेव का मृत्यु प्रमाणपत्र उपलब्ध कराए। कथित सत्याग्रहियों का कहना था कि बाबा जयगुरूदेव की मौत हुई ही नहीं है और जिस व्यक्ति को उनके नाम पर मृत दर्शाया गया था, वह कोई और था। बाबा जयगुरूदेव को उनके कथित अनुयायियों ने उनकी सारी संपत्ति हड़पने के लिए कहीं गायब कर दिया है।
कथित सत्याग्रहियों की इस मांग से यह तो साबित होता है कि किसी न किसी स्तर पर बाबा जयगुरुदेव तथा उनकी धर्म प्रचारक संस्था से कथित सत्याग्रहियों का कोई न कोई संबंध जरूर था अन्यथा उन्हें बाबा जयगुरुदेव की मौत से लेना-देना क्यों होता।
इस सबके अतिरिक्त सरकारी जमीन कब्जाने की उनकी कोशिश भी जयगुरूदेव व उनके अनुयायियों की मंशा से मेल खाती है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि जवाहर बाग को 2 साल से कब्जाए बैठे कथित सत्याग्रहियों के पास हर दिन हजारों लोगों के लिए रसद का इंतजाम कहां से हो रहा था। कौन कर रहा था यह इंतजाम ? इस सवाल का जवाब आज 2 साल बाद भी जिला प्रशासन के पास क्यों नहीं है। यही वो सवाल है जिससे एडवोकेट विजयपाल तोमर के इस दावे की पुष्टि होती है कि कथित सत्याग्रहियों को प्रदेश सरकार का संरक्षण प्राप्त था और प्रदेश सरकार जवाहर बाग को उन्हें 99 साल के पट्टे पर देने की पूरी तैयारी कर चुकी थी।
यूं भी कथित सत्याग्रहियों का नेता कभी बाबा जयगुरुदेव के काफी निकट रहा था, इस बात की पुष्टि तो हो चुकी है लिहाजा आज जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग भले ही कथित सत्याग्रहियों से अपना कोई संबंध न होने की बात कहें लेकिन उनकी बात पूरी तरह सच नहीं है। कथित सत्याग्रहियों की कार्यशैली से साफ जाहिर था कि वह उसी तरह जवाहर बाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर काबिज होना चाहते थे जिस तरह बाबा जयगुरुदेव के रहते उनके अनुयायियों ने वर्षों पूर्व मथुरा के इंडस्ट्री एरिया तथा नेशनल हाईवे नंबर- 2 के इर्द-गिर्द की सैकड़ों एकड़ जमीन कब्जा ली थी और जिस पर आज तक मुकद्दमे चल रहे हैं।
स्वयं बाबा जयगुरुदेव का भी आपराधिक इतिहास था।
मूल रूप से इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव खितौरा निवासी बाबा जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था। बाबा पर उनके गृह जनपद ही नहीं, लखनऊ में भी आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हुए और उनमें सजा हुई। मुकद्दमा अपराध संख्या 226 धारा 379 थाना कोतवाली इटावा के तहत बाबा को 13 अक्टूबर सन् 1939 में छ: माह के कारावास की सजा हुई। इसके बाद लखनऊ के थाना वजीरगंज में अपराध संख्या 318 धारा 381 के तहत 25 नवम्बर सन् 1939 को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। यह बात दीगर है कि बाबा जयगुरुदेव ने जब से आध्यात्मिक दुनिया में खुद को स्थापित किया, तब से कभी कानून के लंबे हाथ भी उनके गिरेबां तक नहीं पहुंच सके। इस दौरान एक सभा में खुद को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस बताने पर बाबा का भारी अपमान हुआ और आपातकाल में उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी लेकिन उसके बाद वोट बैंक की राजनीति के चलते इंदिरा गांधी तक बाबा के दर पर आने को मजबूर हुईं।
गौरतलब है कि बाबा जयगुरुदेव और उनकी धर्मप्रचारक संस्था से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव का नाम जुड़ता रहा है। शिवपाल यादव समय-समय पर बाबा के पास आते भी रहते थे। कहा जाता है कि बाबा के उत्तराधिकारी के तौर पर उनके ड्राइवर पंकज को काबिज कराने में भी शिवपाल यादव की अहम भूमिका रही है। वही पंकज जो आज पंकज बाबा के नाम से बाबा के उत्तराधिकारी बने बैठे हैं। प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी कुनबे की बाबा जयगुरुदेव से निकटता का एक बड़ा कारण बाबा जयगुरुदेव का सजातीय होना भी रहा है। उधर जिस ग्रुप से कथित सत्याग्रहियों का संबंध बताया जा रहा है, उस ग्रुप के तार उस उमाकांत तिवारी से भी जाकर जुड़ते हैं जो कभी बाबा जयगुरुदेव का दाहिना हाथ हुआ करता था और जिसकी मर्जी के बिना बाबा जयगुरुदेव एक कदम आगे नहीं बढ़ते थे। जिस दौरान बाबा जयगुरूदेव और उनकी संस्था का उमाकांत तिवारी सर्वेसर्वा हुआ करता था, उन दिनों भी शिवपाल यादव का मथुरा स्थित जयगुरुदेव आश्रम में आना-जाना था इसलिए ऐसा संभव नहीं है कि शिवपाल यादव तथा समाजवादी कुनबा उमाकांत तिवारी से अपरिचित हो।
बताया जाता है कि जवाहर बाग 99 साल के पट्टे पर दूसरे गुट को दिलाने के पीछे भी समाजवादी कुनबे की यही मंशा थी कि एक ओर इससे जहां दोनों गुटों के बीच का विवाद हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा, वहीं दूसरी ओर दूसरा गुट भी इस तरह समाजवादी पार्टी के कब्जे में होगा। पूर्व में भी समाजवादी पार्टी द्वारा दोनों गुटों के बीच इसीलिए समझौते के प्रयास किए गए बताए। दरअसल, जवाहर बाग की 280 एकड़ जमीन कलक्ट्रेट क्षेत्र में आगरा रोड पर है और इसलिए बेशकीमती है। पूरी जमीन फलदार वृक्षों से अटी पड़ी है और इससे सालाना करोड़ों रुपए की आमदनी होती रही है। यह जमीन सेना की छावनी के क्षेत्र से भी जुड़ी है और पूरा प्रशासनिक अमला इसी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। यहां तक कि जिले की जुडीशियरी भी यहीं रहती है। अब जरा विचार कीजिए कि ऐसे क्षेत्र में कैसे तो अवैध कब्जा हो गया और कैसे कथित सत्याग्रहियों ने इतनी ताकत इकठ्ठी कर ली कि पुलिस-प्रशासन पर बेखौफ हमलावर हो सकें।
जाहिर है कि यह सब किसी सामर्थ्यवान का संरक्षण पाए बिना संभव नहीं है।
कल एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष कुमार सिंह की शहादत के बाद सक्रिय हुए पुलिस प्रशासन ने जितनी तादाद में जवाहर बाग से अवैध असलाह बरामद किया है, वह न तो एक-दो दिन में एकत्र होना संभव है और ना ही किसी के संरक्षण बिना संभव है। पुलिस प्रशासन की ठीक नाक के नीचे इतनी बड़ी संख्या में अवैध हथियारों का जखीरा इकठ्ठा कर लेना, इस बात का ठोस सबूत है कि कथित सत्याग्रहियों को उच्च स्तर से संरक्षण प्राप्त था।
जहां तक सवाल कल के घटनाक्रम का है तो आज उत्तर प्रदेश के डीजीपी जाविद अहमद ने प्रेस कांफ्रेस में मथुरा हिंसा के तहत कुल 24 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है। उधर अपुष्ट खबरों तथा अफवाहों का बाजार गर्म है। कोई कह रहा है सैकड़ों की संख्या में सत्याग्रही भी मारे गए हैं और उनकी लाशें गायब कर दी गई हैं। कोई कह रहा है कि जिन पुलिसकर्मियों को सत्याग्रही उठा ले गए थे, उनका अब तक पता नहीं है। इसी प्रकार कथित सत्याग्रहियों के नेता रामवृक्ष यादव की भी कोई खबर जिला प्रशासन नहीं दे रहा इसलिए उसे लेकर भी अफवाहों का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उसे कल ही पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। अपने अफसरों की शहादत से आक्रोशित पुलिसजनों ने उसके ऊपर कारतूसों की पूरी मैगजीन खाली कर दी थी। एक अफवाह यह भी है कि हाईवे स्थित नीरा राडिया के नयति हॉस्पीटल में भी लाशों का ऐसा ढेर देखा गया है जिसकी शिनाख्त करने वाला कोई नहीं है।
सच्चाई क्या है और कभी वह सामने आयेगी भी या नहीं, इस बारे में तो कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि पुलिस-प्रशासन पिछले चार महीनों से जिस मंथर गति के साथ कार्यवाही कर रहा था, उसके पीछे कोई न कोई शक्ति जरूर थी। चार महीने की कोशिशों के बाद भी कथित सत्याग्रहियों को खदेड़ने के लिए शासन स्तर से पर्याप्त सुरक्षाबल उपलब्ध न कराना, किसी न किसी सोची-समझी रणनीति की ओर इशारा करता है। मथुरा की जनता और सत्याग्रहियों के खिलाफ पिछले काफी समय से आवाज बुलंद करने वाले विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों का भी मानना है कि यदि सारा मामला मथुरा की पुलिस व प्रशासन के जिम्मे छोड़ दिया जाता और वह बिना दबाव के अपने स्तर से कार्यवाही करते तो न 2 जांबाज पुलिस अफसरों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते और न इतना रक्तपात हुआ होता।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच से भी छनकर आ रही खबरें इस बात की पुष्टि करती हैं कि 2017 में प्रस्तावित प्रदेश के विधानसभा चुनाव तथा उनके मद्देनजर वोट की राजनीति को देखते हुए शासन स्तर से जिला प्रशासन को इस आशय की स्पष्ट हिदायत दी गई थी कि कथित सत्याग्रहियों के खिलाफ किसी प्रकार की सख्ती न बरती जाए। प्रदेश सरकार को डर था कि जवाहर बाग को खाली कराने के लिए बरती गई सख्ती 2017 के चुनावों में वोट की राजनीति को प्रभावित कर सकती है और उसका लाभ विपक्षी दल उठा सकते हैं। पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच की इन खबरों में इसलिए भी सत्यता मालूम होती है क्योंकि एक चारदीवारी के अंदर सिमटे बैठे मात्र तीन-चार हजार कथित सत्याग्रहियों के सामने जिस तरह मथुरा का जिला प्रशासन असहाय व लाचार नजर आ रहा था, वह किसी की भी समझ से परे था। ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपनी कुर्सी व मथुरा में अपनी तैनाती बचाने के लिए ही कवायद कर रहे थे, न कि 280 एकड़ में फैले सरकारी जवाहर बाग को खाली कराने की कोशिश में लगे थे।
पत्रकार शिशिर मिश्रा के फेसबुक वाल सेएडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर का कहना है कि यदि वह समय रहते जवाहर बाग पर अवैध कब्जे के मामले को हाईकोर्ट में नहीं ले जाते तो प्रदेश सरकार इस बेशकीमती सरकारी जमीन का पट्टा मात्र 1 रुपया सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से कथित सत्याग्रहियों के नाम कर चुकी होती। एडवोकेट विजयपाल तोमर को इस आशय की जानकारी सारा मामला हाईकोर्ट में ले जाने के तत्काल बाद ही हो गई थी और इसीलिए हाईकोर्ट ने उस पर कड़ा संज्ञान लेते हुए शासन प्रशासन को जवाहर बाग खाली कराने के आदेश दिए।
एडवोकेट विजयपाल तोमर के अनुसार मथुरा का जिला प्रशासन पूरी तरह प्रदेश सरकार के दबाव में था और इसीलिए वह चाहते हुए तथा कोर्ट के सख्त आदेश होने के बावजूद कथित सत्याग्रहियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही नहीं कर पा रहा था जबकि प्रशासन के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला भी शुरू हो चुका था।
विजयपाल तोमर का कहना है कि कल भी जवाहर बाग को कथित सत्याग्रहियों के कब्जे से मुक्त कराने में अहम भूमिका पुलिस व आरएएफ के उन जवानों ने निभाई है, जो अभी-अभी ट्रेनिंग पूरी करके आए हैं और जिन्होंने अपने अफसरों को कथित सत्याग्रहियों की एकतरफा फायरिंग में घायल होते व दम तोड़ते देखा था अन्यथा पुलिस प्रशासन तो कल भी जवाहर बाग को शायद ही कब्जामुक्त करा पाता।
हालांकि इस सबके बावजूद एडवोकेट विजयपाल तोमर मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार तथा एसएसपी राकेश सिंह को इस बात के लिए धन्यवाद देते हैं कि शासन स्तर से भारी दबाव में होने पर भी दोनों अधिकारियों ने जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हरसंभव प्रयास किया। यह बात अलग है कि शासन के दबाव में वह कब्जाधारियों के खिलाफ उतनी सख्त कार्यवाही नहीं कर सके, जितनी सख्ती की दरकार थी। एडवोकेट विजयपाल तोमर का कहना है कि यदि पूर्व में ही कब्जाधारियों के ऊपर आवश्यक बल प्रयोग किया गया होता तो न उन्हें इतना असलाह जमा करने का अवसर मिलता और न वो पुलिस प्रशासन पर एकतरफा हमलावर होने की हिम्मत जुटा पाते।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जवाहर बाग को खाली करवाने में एडवोकेट विजयपाल तोमर ने बड़ी भूमिका निभाई क्योंकि वह जवाहर बाग पर कब्जा होने के कुछ समय बाद ही इस मामले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ले गए। उनकी याचिका पर हाईकोर्ट ने 20 मई 2015 को ही सरकारी बाग खाली कराने के आदेश शासन-प्रशासन को दे दिए थे किंतु शासन के दबाव में प्रशासन यथासंभव नरमी बरतता रहा। हारकर विजयपाल तोमर ने जब शासन-प्रशासन के खिलाफ 22 जनवरी 2016 को न्यायालय की अवमानना का केस शुरू किया, तब शासन प्रशासन सक्रिय हुआ लेकिन उसके बाद भी 4 महीने पर्याप्त फोर्स का इंतजाम न होने के बहाने गुजार दिए जिससे कब्जाधारियों को अपनी ताकत बढ़ाने तथा अवैध असलाह जमा करने का पूरा मौका मिला।
एडवोकेट विजयपाल तोमर की बात में इसलिए भी दम लगता है कि कब्जा करने वाले कथित सत्याग्रहियों का संबंध बाबा जयगुरुदेव में आस्था रखने वाले एक गुट से ही बताया जाता है। हालांकि जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग इस बात का खंडन करते हैं। उल्लेखनीय है कि जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्था की मथुरा में बेहिसाब चल व अचल संपत्ति है। जयगुरूदेव के जीवित रहते तथा अब उसके बाद भी जिन जमीनों पर आज जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्था काबिज है, उनमें से अधिकांश जमीन विवादित हैं और उनके मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। इन जमीनों में सर्वाधिक जमीन ओद्यौगिक एरिया की है जिसे कभी उद्योग विभाग ने विभिन्न उद्यमियों के नाम एलॉट किया था।
जवाहर बाग पर कब्जा करने वाले कथित सत्याग्रहियों की प्रमुख मांग में यह भी शामिल था कि जिला प्रशासन उन्हें बाबा जयगुरुदेव का मृत्यु प्रमाणपत्र उपलब्ध कराए। कथित सत्याग्रहियों का कहना था कि बाबा जयगुरूदेव की मौत हुई ही नहीं है और जिस व्यक्ति को उनके नाम पर मृत दर्शाया गया था, वह कोई और था। बाबा जयगुरूदेव को उनके कथित अनुयायियों ने उनकी सारी संपत्ति हड़पने के लिए कहीं गायब कर दिया है।
कथित सत्याग्रहियों की इस मांग से यह तो साबित होता है कि किसी न किसी स्तर पर बाबा जयगुरुदेव तथा उनकी धर्म प्रचारक संस्था से कथित सत्याग्रहियों का कोई न कोई संबंध जरूर था अन्यथा उन्हें बाबा जयगुरुदेव की मौत से लेना-देना क्यों होता।
इस सबके अतिरिक्त सरकारी जमीन कब्जाने की उनकी कोशिश भी जयगुरूदेव व उनके अनुयायियों की मंशा से मेल खाती है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि जवाहर बाग को 2 साल से कब्जाए बैठे कथित सत्याग्रहियों के पास हर दिन हजारों लोगों के लिए रसद का इंतजाम कहां से हो रहा था। कौन कर रहा था यह इंतजाम ? इस सवाल का जवाब आज 2 साल बाद भी जिला प्रशासन के पास क्यों नहीं है। यही वो सवाल है जिससे एडवोकेट विजयपाल तोमर के इस दावे की पुष्टि होती है कि कथित सत्याग्रहियों को प्रदेश सरकार का संरक्षण प्राप्त था और प्रदेश सरकार जवाहर बाग को उन्हें 99 साल के पट्टे पर देने की पूरी तैयारी कर चुकी थी।
यूं भी कथित सत्याग्रहियों का नेता कभी बाबा जयगुरुदेव के काफी निकट रहा था, इस बात की पुष्टि तो हो चुकी है लिहाजा आज जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग भले ही कथित सत्याग्रहियों से अपना कोई संबंध न होने की बात कहें लेकिन उनकी बात पूरी तरह सच नहीं है। कथित सत्याग्रहियों की कार्यशैली से साफ जाहिर था कि वह उसी तरह जवाहर बाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर काबिज होना चाहते थे जिस तरह बाबा जयगुरुदेव के रहते उनके अनुयायियों ने वर्षों पूर्व मथुरा के इंडस्ट्री एरिया तथा नेशनल हाईवे नंबर- 2 के इर्द-गिर्द की सैकड़ों एकड़ जमीन कब्जा ली थी और जिस पर आज तक मुकद्दमे चल रहे हैं।
स्वयं बाबा जयगुरुदेव का भी आपराधिक इतिहास था।
मूल रूप से इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव खितौरा निवासी बाबा जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था। बाबा पर उनके गृह जनपद ही नहीं, लखनऊ में भी आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हुए और उनमें सजा हुई। मुकद्दमा अपराध संख्या 226 धारा 379 थाना कोतवाली इटावा के तहत बाबा को 13 अक्टूबर सन् 1939 में छ: माह के कारावास की सजा हुई। इसके बाद लखनऊ के थाना वजीरगंज में अपराध संख्या 318 धारा 381 के तहत 25 नवम्बर सन् 1939 को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। यह बात दीगर है कि बाबा जयगुरुदेव ने जब से आध्यात्मिक दुनिया में खुद को स्थापित किया, तब से कभी कानून के लंबे हाथ भी उनके गिरेबां तक नहीं पहुंच सके। इस दौरान एक सभा में खुद को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस बताने पर बाबा का भारी अपमान हुआ और आपातकाल में उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी लेकिन उसके बाद वोट बैंक की राजनीति के चलते इंदिरा गांधी तक बाबा के दर पर आने को मजबूर हुईं।
गौरतलब है कि बाबा जयगुरुदेव और उनकी धर्मप्रचारक संस्था से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव का नाम जुड़ता रहा है। शिवपाल यादव समय-समय पर बाबा के पास आते भी रहते थे। कहा जाता है कि बाबा के उत्तराधिकारी के तौर पर उनके ड्राइवर पंकज को काबिज कराने में भी शिवपाल यादव की अहम भूमिका रही है। वही पंकज जो आज पंकज बाबा के नाम से बाबा के उत्तराधिकारी बने बैठे हैं। प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी कुनबे की बाबा जयगुरुदेव से निकटता का एक बड़ा कारण बाबा जयगुरुदेव का सजातीय होना भी रहा है। उधर जिस ग्रुप से कथित सत्याग्रहियों का संबंध बताया जा रहा है, उस ग्रुप के तार उस उमाकांत तिवारी से भी जाकर जुड़ते हैं जो कभी बाबा जयगुरुदेव का दाहिना हाथ हुआ करता था और जिसकी मर्जी के बिना बाबा जयगुरुदेव एक कदम आगे नहीं बढ़ते थे। जिस दौरान बाबा जयगुरूदेव और उनकी संस्था का उमाकांत तिवारी सर्वेसर्वा हुआ करता था, उन दिनों भी शिवपाल यादव का मथुरा स्थित जयगुरुदेव आश्रम में आना-जाना था इसलिए ऐसा संभव नहीं है कि शिवपाल यादव तथा समाजवादी कुनबा उमाकांत तिवारी से अपरिचित हो।
बताया जाता है कि जवाहर बाग 99 साल के पट्टे पर दूसरे गुट को दिलाने के पीछे भी समाजवादी कुनबे की यही मंशा थी कि एक ओर इससे जहां दोनों गुटों के बीच का विवाद हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा, वहीं दूसरी ओर दूसरा गुट भी इस तरह समाजवादी पार्टी के कब्जे में होगा। पूर्व में भी समाजवादी पार्टी द्वारा दोनों गुटों के बीच इसीलिए समझौते के प्रयास किए गए बताए। दरअसल, जवाहर बाग की 280 एकड़ जमीन कलक्ट्रेट क्षेत्र में आगरा रोड पर है और इसलिए बेशकीमती है। पूरी जमीन फलदार वृक्षों से अटी पड़ी है और इससे सालाना करोड़ों रुपए की आमदनी होती रही है। यह जमीन सेना की छावनी के क्षेत्र से भी जुड़ी है और पूरा प्रशासनिक अमला इसी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। यहां तक कि जिले की जुडीशियरी भी यहीं रहती है। अब जरा विचार कीजिए कि ऐसे क्षेत्र में कैसे तो अवैध कब्जा हो गया और कैसे कथित सत्याग्रहियों ने इतनी ताकत इकठ्ठी कर ली कि पुलिस-प्रशासन पर बेखौफ हमलावर हो सकें।
जाहिर है कि यह सब किसी सामर्थ्यवान का संरक्षण पाए बिना संभव नहीं है।
कल एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष कुमार सिंह की शहादत के बाद सक्रिय हुए पुलिस प्रशासन ने जितनी तादाद में जवाहर बाग से अवैध असलाह बरामद किया है, वह न तो एक-दो दिन में एकत्र होना संभव है और ना ही किसी के संरक्षण बिना संभव है। पुलिस प्रशासन की ठीक नाक के नीचे इतनी बड़ी संख्या में अवैध हथियारों का जखीरा इकठ्ठा कर लेना, इस बात का ठोस सबूत है कि कथित सत्याग्रहियों को उच्च स्तर से संरक्षण प्राप्त था।
जहां तक सवाल कल के घटनाक्रम का है तो आज उत्तर प्रदेश के डीजीपी जाविद अहमद ने प्रेस कांफ्रेस में मथुरा हिंसा के तहत कुल 24 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की है। उधर अपुष्ट खबरों तथा अफवाहों का बाजार गर्म है। कोई कह रहा है सैकड़ों की संख्या में सत्याग्रही भी मारे गए हैं और उनकी लाशें गायब कर दी गई हैं। कोई कह रहा है कि जिन पुलिसकर्मियों को सत्याग्रही उठा ले गए थे, उनका अब तक पता नहीं है। इसी प्रकार कथित सत्याग्रहियों के नेता रामवृक्ष यादव की भी कोई खबर जिला प्रशासन नहीं दे रहा इसलिए उसे लेकर भी अफवाहों का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उसे कल ही पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। अपने अफसरों की शहादत से आक्रोशित पुलिसजनों ने उसके ऊपर कारतूसों की पूरी मैगजीन खाली कर दी थी। एक अफवाह यह भी है कि हाईवे स्थित नीरा राडिया के नयति हॉस्पीटल में भी लाशों का ऐसा ढेर देखा गया है जिसकी शिनाख्त करने वाला कोई नहीं है।
सच्चाई क्या है और कभी वह सामने आयेगी भी या नहीं, इस बारे में तो कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि पुलिस-प्रशासन पिछले चार महीनों से जिस मंथर गति के साथ कार्यवाही कर रहा था, उसके पीछे कोई न कोई शक्ति जरूर थी। चार महीने की कोशिशों के बाद भी कथित सत्याग्रहियों को खदेड़ने के लिए शासन स्तर से पर्याप्त सुरक्षाबल उपलब्ध न कराना, किसी न किसी सोची-समझी रणनीति की ओर इशारा करता है। मथुरा की जनता और सत्याग्रहियों के खिलाफ पिछले काफी समय से आवाज बुलंद करने वाले विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों का भी मानना है कि यदि सारा मामला मथुरा की पुलिस व प्रशासन के जिम्मे छोड़ दिया जाता और वह बिना दबाव के अपने स्तर से कार्यवाही करते तो न 2 जांबाज पुलिस अफसरों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते और न इतना रक्तपात हुआ होता।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच से भी छनकर आ रही खबरें इस बात की पुष्टि करती हैं कि 2017 में प्रस्तावित प्रदेश के विधानसभा चुनाव तथा उनके मद्देनजर वोट की राजनीति को देखते हुए शासन स्तर से जिला प्रशासन को इस आशय की स्पष्ट हिदायत दी गई थी कि कथित सत्याग्रहियों के खिलाफ किसी प्रकार की सख्ती न बरती जाए। प्रदेश सरकार को डर था कि जवाहर बाग को खाली कराने के लिए बरती गई सख्ती 2017 के चुनावों में वोट की राजनीति को प्रभावित कर सकती है और उसका लाभ विपक्षी दल उठा सकते हैं। पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच की इन खबरों में इसलिए भी सत्यता मालूम होती है क्योंकि एक चारदीवारी के अंदर सिमटे बैठे मात्र तीन-चार हजार कथित सत्याग्रहियों के सामने जिस तरह मथुरा का जिला प्रशासन असहाय व लाचार नजर आ रहा था, वह किसी की भी समझ से परे था। ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपनी कुर्सी व मथुरा में अपनी तैनाती बचाने के लिए ही कवायद कर रहे थे, न कि 280 एकड़ में फैले सरकारी जवाहर बाग को खाली कराने की कोशिश में लगे थे।
जवाहरबाग काण्ड : कथित सत्याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर जवाहर बाग देने की हो चुकी थी तैयारी
Reviewed by rainbownewsexpress
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1:11:00 pm
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