क्या यही है 'सबका साथ-सबका विकास की परिभाषा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश की जनता के मध्य बार-बार दिया जाने वाला नारा- 'सबका साथ सबका विकास निश्चित रूप से अत्यंत लोकप्रिय तथा लोकलुभावना नारा है। इस नारे ने कई विदेशी पत्र-पत्रिकाओं तथा विश्व के अनेक नेताओं का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया है। और यही नारा यदि धरातल पर वास्तविकता का रूप धारण कर ले तो देश के लिए इससे बेहतर कोई और दूसरा नारा हो भी क्या सकता है? केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा ऐसी कई योजनाएं भी शुरु की गई हैं जिनके बारे में सरकार का दावा है कि यह उनके इसी नारे को अमली जामा पहनाने की दिशा में उठाए गए रचनात्मक कदम हैं। परंतु इसी भारतीय जनता पार्टी के संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अंतर्गत काम करने वाले कुछ संगठन ऐसे भी हैं जिनकी कारगुज़ारियों को देखकर यह कतई नहीं कहा जा सकता कि वे सरकार के या भाजपा अथवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उपरोक्त नारे का समर्थन करते हैं अथवा उससे सहमत हैं। बजाए इसके ऐसा महसूस होता है कि प्रधानमंत्री व भाजपा का यह नारा इन संगठनों से हज़म नहीं हो पा रहा है। और ऐसा भी प्रतीत होता है कि वे 'सबका साथ सबका विकास की किसी भी अवधारण को पूरी तरह से नकारते हुए केवल अपने एकपक्षीय हठधर्मी विचारों को देश पर थोपने पर तुले हुए हैं। और ऐसा करते समय वे निश्चित रूप से यह भूल रहे हैं कि उनकी ऐसी हरकतें आग से खेलने के सिवा और कुछ नहीं।
बजरंग दल, राष्ट्रीय स्वयं संघ के अधीन संचालित होने वाला एक उग्र हिंदुत्ववादी संगठन है। पिछले दिनों बजरंग दल ने अयोध्या के कार सेवक पुरम क्षेत्र में एक ऐसा शिविर आयोजित किया जिसमें शस्त्र चलाने, अपने दुश्मन पर आक्रमण करने, दुश्मन के ठिकानों पर आग लगाने, हत्या करने व निशानेबाज़ी, तलवारबाज़ी, त्रिशूल तथा भाला आदि चलाने का प्रशिक्षण दिया गया। इस प्रशिक्षण शिविर में अपने दुश्मन के रूप में जो प्रतीक निर्धारित किया गया उसे अल्पसंख्यक समुदाय से मेल खाता हुआ बनाया गया। अर्थात् उसके सिर पर टोपी रखी गई और चेहरे पर दाढ़ी दर्शाई गई। इस विवादित शिविर के शुरु होते ही उत्तर प्रदेश के समाचार पत्रों में इसकी आलोचना की जाने लगी। परंतु दुर्भाग्यवश प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक को इस शिविर में कुछ भी आपत्तिजनक नज़र नहीं आया जबकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इसके आयोजक के विरुद्ध मकद्दमा दर्ज किया। इस शिविर के बारे में आयोजकों के पक्षकारों की ओर से यह दलील दी गई कि यह विश्व विख्यात आतंकी संगठन आईएसआईएस से निपटने हेतु आयोजित किया जाने वाला प्रशिक्षण शिविर है।
जब उत्तरप्रदेश सरकार इस विवादित शिविर को लेकर हरकत में आई उस समय अयोध्या में तो यह प्रशिक्षण शिविर बंद कर दिया गया परंतु बजरंग दल ने इसके बाद दिल्ली से सटे नोएडा में ऐसा ही प्रशिक्षण शिविर पुन: शुरु कर दिया। अब इस प्रशिक्षण शिविर का नाम आत्मरक्षा प्रशिक्षण शिविर बताया गया। खबरों के अनुसार नोएडा में संचालित इस शिविर में केवल अल्पसंख्यक व्यक्ति के प्रतीकस्वरूप कुछ नहीं रखा गया जबकि शेष पूरी कार्रवाई पिछले प्रशिक्षण शिविर की तरह से ही चलाई गई। इस प्रकार के प्रशिक्षण केंद्र आखिर हमारे देश तथा यहां के शांतिपूर्ण समाज को क्या संदेश देते हैं? क्या इस प्रकार की तनाव पैदा करने वाली तथा उकसाने वाली कार्रवाई 'सबका साथ सबका विकास जैसे लोकलुभावने नारे को परिलक्षित करती है? इन परिस्थितियों में यह सवाल और भी अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है जबकि इसी बजरंग दल, विश्वहिंदू परिषद तथा राष्ट्रीय स्वयं संघ के अनेक सदस्य इस समय सांसद, विधायक यहां तक कि मंत्री जैसे जि़म्मेदार पदों पर विराजमान हैं?  एक ओर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईरान जाकर इस्लाम धर्म की तारीफ के पुल बांध रहे हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति सहित दुनिया के कई राष्ट्राध्यक्ष भारतीय मुसलमानों के आतंकवाद के प्रति असहमति व असहयोग के रवैये की प्रशंसा करते नहीं थक रहे तो दूसरी ओर इसी भारत सरकार के समर्थक संगठन देश के अल्पसंख्यकों में भय पैदा करने के लिए अपने संगठन से जुड़े  युवकों व युवतियों को शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दे रहे हैं?  
इस संदर्भ में एक बात और भी काबिलेगौर है कि इस प्रशिक्षण शिविर के संचालकों का कथन है कि वे आईएसआईएस से निपटने हेतु युवाओं व युवतियों को प्रशिक्षित कर रहे हैं। आत्मरक्षा के नाम पर ऐसे ही कुछ शिविर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कई स्थानों पर लगाए जा चुके हैं। यदि इन्हें आतंकवाद का मु$काबला करना ही है और आत्मरक्षा हेतु नौजवानों को प्रशिक्षित करना ही इनका असल मकसद है तो देश में माओवाद, नक्सलवाद सहित पूर्वोत्तर के कई राज्यों व कश्मीर घाटी में आतंकवादी सक्रिय रहते हैं। उन हथियारबंद आतंकवादियों से मुकाबला करने हेतु ऐसे संगठनों के प्रशिक्षित कार्यकर्ता आखिर क्यों नहीं कूच करते हैं? इन आतंकवादियों द्वारा अब तक हमारे देश में हज़ारों सुरक्षाकर्मियों की हत्याएं की गईं, हज़ारों बेगुनाह लोग इनके हाथों मारे गए यहां तक कि इनकी आतंकी गतिविधियों से देश का विकास व पर्यट्न उद्योग भी बाधित होता रहा है। फिर आखिर इनसे निपटने के लिए यह प्रशिक्षित युवा क्यों नहीं कूच करते? आईएस की भारत में सक्रियता तो अभी महज़ समाचारों में ही सुनाई देती रहती है। ऐसे में जो आतंकवाद देश की धरती पर आया ही नहीं उससे निपटने हेतु प्रशिक्षण शिविर चलाने की बात कहना कहां तक जायज़ है?
यह तो रही प्रशिक्षण शिविर के नाम पर समाज में दहशत फैलाने तथा विघटन की कोशिशों की बात। इसके पूर्व महाराष्ट्र के पुणे तथा गुजरात के सूरत जैसे महानगरों से गत् वर्ष कुछ ऐसे समाचार मिले थे जिसमें स्थानीय पुलिस विभाग द्वारा मॉक ड्रिल किया गया था। इसमें भी एक प्रतीक आतंकवादी का इस्तेमाल किया गया था जिसके सिर पर मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली टोपी रखी गई थी तथा उसके चेहरे पर भी दाढ़ी दर्शाई गई थी। इस मॉक ड्रिल की भी मीडिया द्वारा का$फी आलोचना की गई थी। ऐसी ही एक पुलिसिया प्रशिक्षण कार्रवाई उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में गत् वर्ष की गई। इसमें हाथों में भगवा झंडा लिए हुए एक व्यक्ति को दंगाई के रूप में दिखाया गया जिसपर घुड़सवार पुलिस नियंत्रण करते दिखाई गई। इन उदाहरणों से यह बात सा$फतौर पर ज़ाहिर होती है कि केवल बजरंग दल जैसे हिंदूवादी संगठनों द्वारा ही नहीं बल्कि सरकारी स्तर पर भी ऐसे उकसाने वाले तथा समाज को धर्म के आधार पर बांटने वाले प्रयासों का समर्थन किया जाता रहा है। चाहे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रामनाईक का अयोध्या शिविर को समर्थन देना हो या फिर उत्तर प्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र की पुलिस द्वार धर्मविशेष से संबंध रखने वाले प्रतीक का प्रयोग करते हुए समाज को धर्म के आधार पर बांटने का प्रयास करना हो। ऐसे सभी प्रयास देश की एकता, अखंडता तथा हमारे देश की सबसे बहुमूल्य धरोहर समझी जाने वाली धर्मनिरपेक्षता के बिल्कुल विरुद्ध है।
इस समय केवल भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बेरोज़गारी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। और इसी बेरोज़गारी का लाभ उठाकर दुनिया के अनेक आतंकवादी संगठन धर्म के नाम पर तथा पैसों की लालच में अपने-अपने संगठनों में काफी तेज़ी से बेरोज़गार युवा आतंकियों की भर्ती कर रहे हैं। यहां तक कि उन्हें पैसों के बदले आत्मघाती हमलावर तक उपलब्ध हो रहे हैं। ऐसे में धर्म रक्षा के नाम पर अपने देश में भी बेरोज़गार युवाओं व युवतियों को भर्ती करना तथा उन्हें धर्म के नाम पर प्रशिक्षित करना कोई बड़ी बात नहीं है। किसी भी धर्म से संबंध रखने वाला देश व समाज में एकता व सद्भाव चाहने वाला कोई भी कामकाजी व्यक्ति ऐसे प्रशिक्षण शिविरों में भाग लेना कतई पसंद नहीं करेगा। वैसे भी हमारे देश की राज्य की पुलिस, अर्धसैनिक बलों व सैनिकों का हौसला इतना बुलंद है कि वे भीतरी व बाहरी किसी भी आतंकवाद का समय-समय पर मुंहतोड़ जवाब देते रहते हैं। यहां यह भी सोचने का विषय है कि यदि आत्मरक्षा, आत्मसम्मान आदि के नाम पर ऐसे ही प्रशिक्षण शिविर दूसरे धर्मों व समुदायों के लोगों द्वारा भी आयोजित किए जाने लगे तो उन परिस्थितियों में देश की क्या स्थिति होगी?
लिहाज़ा देश की राजनीति में सक्रिय सत्ता के शातिर खिलाडिय़ों को चाहिए कि वे देश की आर्थिक व सामाजिक स्थिति पर अपनी दया दृष्टि बनाए रखें और महज़ धर्म आधारित ध्रुवीकरण की खातिर गुजरात जैसा खेल पूरे देश में खेलने की कोशिश कतई न करें। क्योंकि जब-जब ऐसे खूनी खेल खेलने की कोशिश की जाती रही है, ऐसे चक्रव्यूह रचने के विशेषज्ञ राजनीतिज्ञ तो सुरक्षा के विशेष घेरे में स्वयं को कैद कर के किन्हीं सुरक्षित स्थानों में अपना मुंह छुपाने में कामयाब हो जाते हैं जबकि इनके बहकावे में धर्म ध्वजा लेकर सड़कों पर उतर आने वाले अबोध, सीधे-सादे व बेरोज़गार युवक या तो दूसरे के खून से अपने हाथ रंग बैठते हैं या फिर स्वयं अपनी जान गंवाकर अपने परिवार को रोता-बिलखता छोड़ जाते हैं। ऐसे प्रयासों से 'सबका साथ सबका विकास की परिकल्पना आखिर कैसे की जा सकती है?              
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