राजनैतिक उलटफेर बरास्ता अंबेडकरवाद

परिवर्तन के इतिहास का एक चक्र पूरा हो गया। लगभग ढाई दशक की जददोजहद के बाद मंडल ने कमंडल पर निर्णायक बढ़त हासिल कर ली है। राम मंदिर निर्माण की प्रतिबद्धता की जगह कमंडल खेमे का वर्तमान नेतृत्व आधुनिक शंबूक बाबा साहब अंबेडकर के संवैधानिक संकल्पों को पूरा करने की हुंकार भर रहा है। केंद्र में नई सत्ता के आने के बाद आरक्षण की व्यवस्था को लज्जित करने का सुनियोजित अभियान बढ़ा लेकिन विडंबना यह है कि इसको भी प्रोत्साहित करने की बजाय नेतृत्व ने आरक्षण के मामले में जो रुख दिखाया है उससे यह सारी धमाचैकड़ी अरण्यरोदन की तरह अर्थहीन होकर रह गई है।

 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद देश में सामाजिक परिवर्तन का एक नया तूफान मचल पड़ा। यह तत्कालीन नेतृत्व की एकांगी कार्रवाई नही थी। बल्कि परिवर्तन के तकाजे का पूरा वृत्त इसके साथ में तत्कालीन नेतृत्व ने समेट रखा था। जिसमें बाबा साहब अंबेडकर को इतिहास के तहखाने से बाहर निकालकर देश की राजनीति के केंद्र बिंदु में लाने के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न दिये जाने की घोषणा शामिल थी। लेकिन परिवर्तन का यह मंसूबा इतनी आसानी से सफल कैसे हो सकता था। 

तथागत् बुद्ध के महान दर्शन को भी किनारे करके जिन वर्चस्ववादियों ने उसके पराभव के बाद ऊंच-नीच की व्यवस्था को अछूत प्रथा जैसी कुरीतियों के साथ और बर्बर तरीके से लागू करके दिखा दिया हो उनसे पार पाना इतना आसान नही था। कमंडल का ब्रहमास्त्र राम मंदिर आंदोलन के बहाने छोड़कर उन्होंने परिवर्तन के रथ को तात्कालिक तौर पर तो पलटा ही दिया था। प्रतिगामी राजनीति की बहाली में बड़ी भूमिका सामाजिक परिवर्तन की राजनीति के आधुनिक सुग्रीव और विभीषणों ने भी निभाई। 

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव 2017 के चुनावी मोड में आने के बाद भले ही पिछड़ी जातियों की अस्मिता की राजनीति को अपने एजेंडें में प्रमुखता देने पर उतर आये हों। लेकिन अखिलेश ने शुरू में सत्ता संभाली थी उसके चार वर्ष तक तो उन्होंने जाति विशेष को जन्मना समाजवादी का प्रमाणपत्र बांटने में कोई कसर नही छोड़ी थी। उनके द्वारा दूसरों की वंदना और महिमा मंडन के तरीकों से पिछड़ी जातियां अखिलेश की सरकार के चार साल तक ठगी सी हालत में रहीं। लेकिन आज वे न केवल पिछड़ा गर्व को हवा देने की रणनीति में अग्रणी है बल्कि बाबा साहब अब उन्हें भी अचानक विद्वान और श्रद्धेय लगने लगे हैं। परिवर्तन की राजनीति की एक और होस्टाइल गवाह के रूप में मायावती का भी नाम है। जिन्होंने हाथी नही गणेश है, ब्रहमा, विष्णु, महेश है का नारा गढ़ कर अंबेडकरवाद को शीर्षासन कराने में कसर नही छोड़ी थी। लेकिन इस बार मायावती के भी सुर बदले हुए हैं। अपनी इस ईजाद को दोहराने और याद करने से तो वे परहेज कर ही रहीं हैं साथ ही यह संकेत भी देने में नहीं चूक रही कि इस बार टिकिट वितरण में भटकाव दिखाने की बजाय वे मूल बहुजन अवधारणा के मुताबिक प्रत्याशियों का चयन करेंगी।

    भाजपा ने काफी पहले ही बाबा साहब की जयंती मनाने की शुरूआत कर दी होे लेकिन पहले यह आयोजन रस्म अदायगी के लिए होते थे। आज मोदी दौर में बाबा साहब से जुड़े आयोजनों में जो जज्बा दिखाया जा रहा है वह राजेश खन्ना और अभिताभ बच्चन की एक पुरानी फिल्म नमक हराम की याद दिलाता है। मजदूरों के आंदोलन पर पानी डालने के लिए फैक्ट्री मालिक का मित्र उनका छद्म नेता बन गया। लेकिन मजदूरों के बीच रहते-रहते उसकी वर्ग चेतना जागृत हुई तो उसमें एक नमक हराम हीरो का अवतार पैदा हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में ऐसे ही कुछ लक्षण दिखने तो लोक सभा चुनाव के समय से ही नजर आने लगे थे लेकिन बिहार का चुनाव उनमें नया माइंडसेट गढ़ने का निर्णायक कारण बना।

संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण को लेकर बयान से चुनाव में यथा स्थिति वादी और परिवर्तनकारी सामाजिक शक्तियों के बीच कुरुक्षेत्र सजने का कारण बन गया और इसमें संघ व मोदी दोनों का प्रताप हवा-हवाई होेते देर नही लगी। इसी के बाद मोदी का रुख आरक्षण को लेकर कठोर होता गया और उनके भाषणों में बाबा साहब का मंत्र जाप बढ़ता गया।

    आज हालत यह है कि संघ प्रमुख भले ही मोदी के इस रुख से असहज हों लेकिन उनमें मोदी के प्रतिकार का साहस नही रह गया। बाबा साहब के गुणगान से खाटी संघियों के संस्कार किस तरह आहत हो रहे हैं इसका अनुमान लगाया जा सकता है। बाबा साहब को आधुनिक शंबूक कहना इसलिए सटीक है कि उन्होंने रिडल्स इन हिंदुज्म नाम से अपनी पुस्तक में मर्यादा के उस रोल माॅडल को आइना दिखाने में कोई कसर नही छोड़ी। जिसमें मर्यादा का अर्थ केवल वर्ण व्यवस्था की मर्यादा को बल देने का अभिप्राय निहित रहा है। बाबा साहब के नाम की तोप का मुंह बदलने के लिए इस्लाम के बारे में आखिर में उनके द्वारा लिखी गई बेबाक पुस्तक को मोहरा बनाने की रणनीति संघ परिवार अपनाये हुए हैं। लेकिन लोग बाबा साहब का खंडित मैसेज पढ़ने की बजाय उनकी विचार श्रृंखला को सम्पूर्णता में ग्रहण कर रहे हैं जिससे उनमें हताशा पैदा होना लाजिमी है।


    बहरहाल परिवर्तन का यह दौर न तो देश में किसी सिविल वार के रूप में देखा जाना चाहिए और न ही किसी वर्ग शत्रु के विरुद्ध अभियान के रूप में। बाबा साहब ने अपने राजनैतिक अभियान के हर चरण में समावेशी फैसलें करने की कोशिश की। उन्होंने शिडयूल् काॅस्ट फैडरेशन पार्टी का गठन क्रिप्स मिशन से वार्ता के लिए मजबूरी की वजह से किया था। वरना उन्होंने पहली पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नाम से बनाई और बाद में वे शिडयूल् काॅस्ट फैडरेशन को रिपब्लिकन पार्टी में विसर्जित करने का प्लान तैयार कर चुके थें। हालांकि इसके पहले ही उनका देहावसान हो गया। इससे बाबा साहब के सार्वभौम दृष्टिकोण का पता चलता है। उनका अपने नाम के साथ पुस्तैनी सरनेम की जगह अपने ब्राहमण शिक्षक का अंबेडकर सरनेम इस्तेमाल करना भी उनकी भावना को बताता है। उन्होंने 1927 में जब अस्पृश्य कारिणी सभा की बैठक में मनुस्मृति जलाने का फैसला किया तो इसके प्रस्तावक के रूप में सोशल लीग के ब्राहमण नेता सहस्त्रबुद्धे सामने आये।

जाहिर है कि बाबा साहब ने समाज के सभी घटकों को परिवर्तन की राजनीति में जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने देश आजाद होने के बाद लोकतंत्र की सफलता के लिए कहा था कि राजनैतिक लोकतंत्र के पहले सामाजिक लोकतंत्र कायम करना होगा। यह प्रक्रिया शुरूआत में रूढ़िवादियों के हावी होने के बावजूद सफलता पूर्वक आगे बढ़ी। जिसकी वजह से कई जड़ सामाजिक संरचनायें ध्वस्त हो गईं। कभी यह कल्पना नही की गई थी कि देश के सबसे बड़े सूबे में दलित मुख्यमंत्री के लिए सवर्ण पीछे दौड़ सकते हैं। पहले राजे-महाराजों का प्रभाव समाप्त हुआ इसके बाद हाशिये पर पड़ी सामाजिक शक्तियों के सत्ता में पहुंचने का रास्ता हमवार हुआ और अब ऊंच-नीच की व्यवस्था को ढहाने के लिए परिवर्तन की लड़ाई नये आवेग के साथ आगे बढ़ चली है। यह सकारात्मक ढंग से अपनी परिणति पर पहुंचे इसके लिए अगर बाबा साहब के प्रति मोदी की भावनाओं में ईमानदारी है तो उन्हें भूमिका निभानी पड़ेगी। भाजपा में उन्हें ऐसे कैडर क्लाॅस चलाने की हिम्मत दिखानी होगी जिससे उनके समर्थक युवाओं के एक वर्ग को आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के पीछे जो सैद्धान्तिक औचित्य हैं उन्हें समझने में मदद मिले। साथ ही धर्म के मामले में भी उनकी तात्विक समझ बढ़े और धर्म व सामाजिक प्रभुता के विचारों के बीच के अंतर को समझकर वे इस क्षेत्र में नीरक्षीर करने का विवेक हासिल कर सकें।

-K.P. Singh, Orai-Jalaun(U.P.)
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