-जावेद अनीस/ हमारे समाज की मानसिकता बड़ी अजीब है एक तरफ तो महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है तो वहीँ दूसरी तरफ उन्हें एक तरह से प्रापर्टी के रुप में देखते हुए उनके साथ हिंसा, भेदभाव और गैरबराबरी भरा व्यवहार किया जाता है। इस मानसिकता के पीछे समाज में मर्दानगी और पितृसत्तात्मक विचारधारा का हावी होना है। इस सोच के चलते महिलाओं के साथ पुरषों को भी समस्या होती है । कोई भी व्यक्ति इस तरह की सोच को लेकर पैदा नहीं होता है बल्कि बचपन से ही हमारे परिवार और समाज में ऐसा सामाजिकरण होता है जिसमें महिलाओं और लड़कियों को कमतर व पुरुषों और लड़कों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानने के सोच को बढ़ावा दिया जाता है। लोगों को समाज,परिवार और व्यवस्थाओं द्वारा तैयार किये गये भूमिका में ढाला जाता है और कई बार ऐसा करने लिए उन्हें मजबूर भी किया जाता है कि वह इस बनाये हुए भूमिका के आधार पर ही व्यवहार करें।
मर्दानगी का एक रुप नही होता है यह डायनमिक है, हर व्यक्ति की एक अपनी निजी, सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक सोच होता है जो उसके व्यक्तित्व और व्यवहार का मूल आधार होता है, इसी के हिसाब से मर्दानगी भी बार-बार बदलती रहती है । एक ही परिवार के दो लोग अलग अलग होते हैं एक व्यक्ति जो व्यवहार करता है उसके पीछे बहुत सारी चीजों का योगदान होता है। आधुनिक समय में इस मानसिकता को बनाने में मीडि़या का भी बड़ा रोल है, 1990 के बाद भूमंडलीकरण के बाद से तो मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है। अब महिलायें,बच्चे ,प्यार,सेक्स,व्यवहार और रिश्ते एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं, कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा,बेचा या अदला बदला जा सकता है जिसकी एक एक्स्पाइरी डेट भी होती है। आज महिलाओं और पुरुषों दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है,कैसे व्यवहार करना है,क्या खाना है, किसके साथ संबंध बनाना है। यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, वहां भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है।
इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष होना एक विषेषाधिकार को जन्म देता है, उसे हर वो चीज आसानी से मिल जाती है जिसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है। अगर महिलाऐं इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती है,समस्याऐं सामने आने लगती हैं। लेकिन इसी के साथ इस व्यवस्था में महिलाओं के साथ पुरषों से भी एक खास तरीके से ही जीने की उम्मीद करती है और दोनों को ही इसकी कसौटियों पर खरा उतरना होता है। जो इसके नियमों को नहीं मानता वह इस व्यवस्था में बेमेल हो जाता है । लैंगिक असमानता एक ऐसी विचारधारा है जो एक समाज में महिलाओं और पुरुषों दोनों में विकसीत हो सकती है और इसे बनाये रखने में महिला और पुरुष दोनो ही सहयोग करते हैं।कुल मिलाकर यह एक जटिल मुद्दा है।
आर बाल्की के यहाँ कोई चलताऊ फार्मूला नहीं होती है, वह तय किये गये रास्ते पर नहीं चलते हैं और उनका ट्रैक स्थापित मान्यातों से उल्टा होता है । बाल्की अपनी फिल्मों में नये और अनछुए विषयों को छूने को कोशिश करते हैं 'चीनी कम' और 'पा' और शमिताभ जैसी उनकी पिछली फिल्में इसी लिए जानी जाती हैं। आर बाल्की कहते भी हैं कि मैं तब तक कोई फिल्म शुरू नहीं करता, जब तक मुझे नहीं लग जाता है कि यह मेरे पिछले अनुभवों से कुछ अलग है लेकिन वह संदेश देने के लिए फिल्म नहीं बनाते, बल्कि उनका उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना होता है। एक तरह से उनकी फिल्में कमर्शियल सिनेमा का अच्छा उदाहरण होती ।“शमिताभ” की बाक्स ऑफिस पर असफलता के बाद वह अपनी नयी फिल्म फिल्म 'की एंड का' के साथ वापस आये हैं। हमेशा की तरह उनकी इस फिल्म का कंसेप्ट भी नया और ताजा है और यह अपने विषय के हिसाब से एक गैर-पारंपरिक फिल्म है। 'की एंड का' परदे भी दिखाए जाने वाले आम कहानियों से अलग है जो आम धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है और जेंडर भूमिकाओं और परिवारों में शक्ति संतुलन जैसे सवालों से टकराती है.
मर्दानगी का एक रुप नही होता है यह डायनमिक है, हर व्यक्ति की एक अपनी निजी, सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक सोच होता है जो उसके व्यक्तित्व और व्यवहार का मूल आधार होता है, इसी के हिसाब से मर्दानगी भी बार-बार बदलती रहती है । एक ही परिवार के दो लोग अलग अलग होते हैं एक व्यक्ति जो व्यवहार करता है उसके पीछे बहुत सारी चीजों का योगदान होता है। आधुनिक समय में इस मानसिकता को बनाने में मीडि़या का भी बड़ा रोल है, 1990 के बाद भूमंडलीकरण के बाद से तो मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है। अब महिलायें,बच्चे ,प्यार,सेक्स,व्यवहार और रिश्ते एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं, कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा,बेचा या अदला बदला जा सकता है जिसकी एक एक्स्पाइरी डेट भी होती है। आज महिलाओं और पुरुषों दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है,कैसे व्यवहार करना है,क्या खाना है, किसके साथ संबंध बनाना है। यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, वहां भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है।
इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष होना एक विषेषाधिकार को जन्म देता है, उसे हर वो चीज आसानी से मिल जाती है जिसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है। अगर महिलाऐं इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती है,समस्याऐं सामने आने लगती हैं। लेकिन इसी के साथ इस व्यवस्था में महिलाओं के साथ पुरषों से भी एक खास तरीके से ही जीने की उम्मीद करती है और दोनों को ही इसकी कसौटियों पर खरा उतरना होता है। जो इसके नियमों को नहीं मानता वह इस व्यवस्था में बेमेल हो जाता है । लैंगिक असमानता एक ऐसी विचारधारा है जो एक समाज में महिलाओं और पुरुषों दोनों में विकसीत हो सकती है और इसे बनाये रखने में महिला और पुरुष दोनो ही सहयोग करते हैं।कुल मिलाकर यह एक जटिल मुद्दा है।
आर बाल्की के यहाँ कोई चलताऊ फार्मूला नहीं होती है, वह तय किये गये रास्ते पर नहीं चलते हैं और उनका ट्रैक स्थापित मान्यातों से उल्टा होता है । बाल्की अपनी फिल्मों में नये और अनछुए विषयों को छूने को कोशिश करते हैं 'चीनी कम' और 'पा' और शमिताभ जैसी उनकी पिछली फिल्में इसी लिए जानी जाती हैं। आर बाल्की कहते भी हैं कि मैं तब तक कोई फिल्म शुरू नहीं करता, जब तक मुझे नहीं लग जाता है कि यह मेरे पिछले अनुभवों से कुछ अलग है लेकिन वह संदेश देने के लिए फिल्म नहीं बनाते, बल्कि उनका उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन करना होता है। एक तरह से उनकी फिल्में कमर्शियल सिनेमा का अच्छा उदाहरण होती ।“शमिताभ” की बाक्स ऑफिस पर असफलता के बाद वह अपनी नयी फिल्म फिल्म 'की एंड का' के साथ वापस आये हैं। हमेशा की तरह उनकी इस फिल्म का कंसेप्ट भी नया और ताजा है और यह अपने विषय के हिसाब से एक गैर-पारंपरिक फिल्म है। 'की एंड का' परदे भी दिखाए जाने वाले आम कहानियों से अलग है जो आम धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है और जेंडर भूमिकाओं और परिवारों में शक्ति संतुलन जैसे सवालों से टकराती है.
फिल्म की कहानी एक लड़की व लड़का की है, जिनके नाम किया व कबीर है, दोनों की शख्सियत बहुत अलग है लेकिन कई मसलों पर उनके सोचने का तरीके और हित सामान है. “किया” एक कामकाजी लड़की है और अपने जीवन को लेकर बहुत ऐम्बिशस है वहीँ कबीर का जीवन को लेकर दर्शन अलग है एक बड़े बिजनेसमैन का बेटा होने के बावजूद वह “कॉरपोरेट रोबो” नहीं बनना चाहता है और ना ही वह कभी खत्म होने वाले इस खेल का हिस्सा बनना चाहता है उसकी महत्वाकांक्षायें भी अलग है जो बाजार ही नहीं सामाजिक मान्यताओं से भी मेल नहीं खाती हैं, कबीर अपनी मां जैसा बनना चाहता है जो एक हाउस वाइफ थीं। उसे घर संभालना, खाना बनाना पसंद है ,वह ‘हाउसहसबैंड’ बनकर रहना चाहता है, ऐसा नहीं है कि वह कामचोर है और इस काम को आसन समझता है इसलिए इसे करना चाहता है, वह सही में इसे महत्वपूर्ण काम मानता है और उसे लगता है कि इस काम को करने में उसे ज्यादा मजा आयेगा और वह खुश रह सकेगा।
बहरहाल दोनों मिलते हैं और हितों के मिलने के बाद एक दुसरे से शादी कर लेते है, शादी के बाद कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक चलता है, दोनों के के बीच टकराहट तब पैदा होती है जब अर्जुन कपूर अपने अलग से लगने वाले काम की वजह से धीरे-धीरे मशहूर हो जाते हैं, बाजार की ताकतें और मीडिया उन्हें लैंगिक समानता का प्रतीक बना देती हैं और वे अचानक मशहूर सेलेब्रिटी बन जाता है, इन सब से महत्वाकांक्षी, “किया” को जलन और तकलीफ होने लगती है और अहंकार को चोट पहुचती है. उसे लगता है कि कबीर को घर का काम ही करना चाहिए और चूंकि वह बाहर रहकर “कमाने वाला “ काम करती है इसलिए मशहूर होने और नियंत्रण रखने का स्वाभाविक हक उसी को है,यही टकराहट फिल्म को अपने अंत तक ले जाती है।
भारतीय समाज की बनावट के हिसाब से “की एंड का” एक जबरदस्त विचार है,लेकिन दुर्भाग्य से इस विचार को सिनेमा की भाषा में अच्छे तरीके से उतारा नहीं जा सका और आखिर में फिल्म पति-पत्नी के पारंपरिक भूमिकाओं की एक रूमानी अदला-बदली बन कर रह जाती है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी थानक और प्रस्तुतिकरण है, कई जगह दोहराव भी देखने को मिलता है जो इसे उबाऊ बनता है खासकर सेकंड हाफ और प्रभावहीन क्लाइमेक्स। इन सबके बावजूद “की एंड का” अपने विषय की वजह से एक ऐसे साहसिक फिल्म के रूप में याद की जायेगी जो हमारे समाज के मूलभूत मान्यताओं से टकराने का साहस जुटाती है।
बहरहाल दोनों मिलते हैं और हितों के मिलने के बाद एक दुसरे से शादी कर लेते है, शादी के बाद कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक चलता है, दोनों के के बीच टकराहट तब पैदा होती है जब अर्जुन कपूर अपने अलग से लगने वाले काम की वजह से धीरे-धीरे मशहूर हो जाते हैं, बाजार की ताकतें और मीडिया उन्हें लैंगिक समानता का प्रतीक बना देती हैं और वे अचानक मशहूर सेलेब्रिटी बन जाता है, इन सब से महत्वाकांक्षी, “किया” को जलन और तकलीफ होने लगती है और अहंकार को चोट पहुचती है. उसे लगता है कि कबीर को घर का काम ही करना चाहिए और चूंकि वह बाहर रहकर “कमाने वाला “ काम करती है इसलिए मशहूर होने और नियंत्रण रखने का स्वाभाविक हक उसी को है,यही टकराहट फिल्म को अपने अंत तक ले जाती है।
भारतीय समाज की बनावट के हिसाब से “की एंड का” एक जबरदस्त विचार है,लेकिन दुर्भाग्य से इस विचार को सिनेमा की भाषा में अच्छे तरीके से उतारा नहीं जा सका और आखिर में फिल्म पति-पत्नी के पारंपरिक भूमिकाओं की एक रूमानी अदला-बदली बन कर रह जाती है। फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी थानक और प्रस्तुतिकरण है, कई जगह दोहराव भी देखने को मिलता है जो इसे उबाऊ बनता है खासकर सेकंड हाफ और प्रभावहीन क्लाइमेक्स। इन सबके बावजूद “की एंड का” अपने विषय की वजह से एक ऐसे साहसिक फिल्म के रूप में याद की जायेगी जो हमारे समाज के मूलभूत मान्यताओं से टकराने का साहस जुटाती है।
“की एंड का” के बहाने
Reviewed by rainbownewsexpress
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8:30:00 pm
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