मैं मुंतज़िर था

● शहंशाह आलम
मैं मुंतज़िर था कि समुन्दर आएगा लहालोट बिलकुल
मेरी हज़ार सालों की तन्हाइयों को मार भगाता हुआ

मैं मुंतज़िर था कि हवाएँ आएँगी
मेरे गले में पड़ी ज़ंजीरों को काट डालेंगी
अपने ज़ुल्फ़ को मुहब्बत से लहराते हुए

मैं मुंतज़िर था कि तोतों के झुंड आएँगे
मेरे शबोरोज़ को रंग देंगे रंगरेज़ के पानी से

मैं मुंतज़िर था कि परियाँ आएँगी मासूम पौधों-सी
मुझे चाँद-तारों से नहला देंगी खुले आसमाँ के नीचे

लेकिन मेरा इंतज़ार इंतज़ार ही रहा सदियों से
इन बेजान-बेहिस बुतों के बीच रहते हुए

यह मेरी नहीं देवताओं की त्रासदी थी
कि मेरी आज़ादी के लिए जो करना था
मुझे ही करना था पानी को कुंड को हँसाते हुए।
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                                  ● शहंशाह आलम
मैं मुंतज़िर था मैं मुंतज़िर था Reviewed by rainbownewsexpress on 12:33:00 pm Rating: 5

1 टिप्पणी:

dr.pushplata adhiwaqta ने कहा…

सुन्दर

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