प्रदेश भाजपा खेमे कि बैचनी पैदा दी थी और करीब एक दशक से पस्त पड़ी कांग्रेस वापसी के लिये अपने आप को संभाल कर मैदान में दिखाई देने लगी थी। लेकिन अपनी मात से सबक हासिल करना शिवराज सिंह की हमेशा से ही बड़ी खासियत रही है, और मैहर में एक बार फिर यही साबित हुआ है, इस जीत के सहारे वे अपनी विश्वसनीयता को वापस हासिल करने में कामयाब रहे हैं,उधर मैहर में हार के बाद कांग्रेस एक बार फिर अपने पुराने गुटबाजी में फंसती हुई दिखाई पड़ रही है ।
ऐसा प्रतीत होता है मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सीख ना लेकर उसे लगातार दोहराने की आदत सी बना ली है । अगर दस साल बीत जाने के बावजूद वह अभी तक खुद को जनता के सामने भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करने में नाकाम रही है तो इसके पीछे शिवराजसिंह चौहान और भाजपा नहीं बल्कि खुद कांग्रेस के नेता हैं । वह लगातार तीन विधानसभा चुनाव हार चुकी है पिछले लोकसभा चुनाव में उसे प्रदेश की कुल 29 सीटों में से मात्र दो सीटें ही मिलीं थीं । मध्यप्रदेश में कांग्रेस नहीं बल्कि इसके नेताओं के गुट ही काम करते हुए दिखाई देते हैं, हर चुनाव में यह गुट भाजपा से ज्यादा एक दुसरे के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही नजर आते हैं।
झाबुआ की तरह जब कभी भी ये सभी गुट एकसाथ मिलकर लड़े हैं तो इसका फायदा भी देखने को मिला है, पिछले 12 सालों से मध्यप्रदेश की राजनीति में भाजपा कांग्रेस को एक प्रभावविहीन विपक्ष के रूप में बनाये हुए थी लेकिन पिछले दिनों कुछ समय के लिए इस स्थिति में बदलाव देखने को मिला और दस सालों में पहली बार शिवराजसिंह चौहान कमजोर नजर आये थे, पहले झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट और उसके बाद नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस अपनी हारने की आदत को बदलते हुए भाजपा को शिकस्त देने में कामयाब रही थी । उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह देखने को मिल रहा था और नेतृत्व की तरफ से भी यह सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि नेताओं ने आपसी विवाद और मतभेदों को भुलाकर साथ काम करना शुरू कर दिया है। मध्यप्रदेश कांग्रेस अपने इस सफलता को पूरे प्रदेश में भुनाने का सपना पाले थी । लेकिन मैहर में हार के बाद प्रदेश कांग्रेस एक बार फिर पुराने ढ़र्रे पर वापस जाती हुई दिखाई पड़ रही है, उसके क्षत्रप एक बार फिर आपस में उलझते हुए हैं और पार्टी में गुटबाजी चरम पर पहुंचती दिखाई दे रही है। इस बार निशाने पर अरुण यादव है।
पार्टी की माली हालत भी खस्ता है, कमलनाथ आर्थिक रूप से मजबूत हैं, अगर उन्हें जिम्मेदारी मिलती है तो इस मामले में हाईकमान बेफिक्र हो सकता है । लेकिन ढ़लती उम्र कमलनाथ के लिए चुनौती साबित हो सकती है इस साल नवम्बर में वे 70 साल के हो जायेंगें, जाहिर है जमीन से उखड़ी कांग्रेस को फिर पटरी पर लाने के लिए पूरे प्रदेश में गहन जनसंपर्क की जरूरत है , इस उम्र में वे यह काम कितना कर सकेंगें इस पर सवाल है, इसके आलावा उन्हें कभी भी पूरे प्रदेश का नेता नहीं मना गया है ,हमेशा से ही वे अपने आप को छिंदवाड़ा तक ही सीमित किये रहे हैं, और फिर उम्र के इस पड़ाव में अगर कमलनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पूरी जोर लगा भी दें क्या पार्टी के दुसरे नेता उन्हें यह काम आसानी से करने देंगें ? विडंबना देखिये लगातार सत्ता से बाहररहने के बावजूद बदलाव कांग्रेस में संगठन की जगह किसी एक व्यक्ति को मजबूत करने की कवायद चल रही है.
मैहर में भाजपा एक बार फिर कांग्रेस को साधने में कामयाबी रही है. यह शिवराज सिंह के लिये एक मरहम है जिसके सहारे वे यह संदेश देने में सफल हुए है कि तमाम अवरोधों के बीच उनका जादू अभी भी कायम है, पिछले 5 मार्च शिवराजसिंह चौहान ने अपना आज 57वीं जन्मदिन मनाया है,अगर 2018 में 70 पार कर चुके कमलनाथ के साथ उनका मुकाबला होता है तो यह काफी दिलचस्प रहेगा ।
नोट:- यह लेखक के निजी विचार हैं। इससे रेनबोन्यूज का सहमत होना आवश्यक नहीं हैं।
ऐसा प्रतीत होता है मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सीख ना लेकर उसे लगातार दोहराने की आदत सी बना ली है । अगर दस साल बीत जाने के बावजूद वह अभी तक खुद को जनता के सामने भाजपा के विकल्प के रूप में पेश करने में नाकाम रही है तो इसके पीछे शिवराजसिंह चौहान और भाजपा नहीं बल्कि खुद कांग्रेस के नेता हैं । वह लगातार तीन विधानसभा चुनाव हार चुकी है पिछले लोकसभा चुनाव में उसे प्रदेश की कुल 29 सीटों में से मात्र दो सीटें ही मिलीं थीं । मध्यप्रदेश में कांग्रेस नहीं बल्कि इसके नेताओं के गुट ही काम करते हुए दिखाई देते हैं, हर चुनाव में यह गुट भाजपा से ज्यादा एक दुसरे के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही नजर आते हैं।
झाबुआ की तरह जब कभी भी ये सभी गुट एकसाथ मिलकर लड़े हैं तो इसका फायदा भी देखने को मिला है, पिछले 12 सालों से मध्यप्रदेश की राजनीति में भाजपा कांग्रेस को एक प्रभावविहीन विपक्ष के रूप में बनाये हुए थी लेकिन पिछले दिनों कुछ समय के लिए इस स्थिति में बदलाव देखने को मिला और दस सालों में पहली बार शिवराजसिंह चौहान कमजोर नजर आये थे, पहले झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट और उसके बाद नगरीय निकाय चुनावों में कांग्रेस अपनी हारने की आदत को बदलते हुए भाजपा को शिकस्त देने में कामयाब रही थी । उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह देखने को मिल रहा था और नेतृत्व की तरफ से भी यह सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि नेताओं ने आपसी विवाद और मतभेदों को भुलाकर साथ काम करना शुरू कर दिया है। मध्यप्रदेश कांग्रेस अपने इस सफलता को पूरे प्रदेश में भुनाने का सपना पाले थी । लेकिन मैहर में हार के बाद प्रदेश कांग्रेस एक बार फिर पुराने ढ़र्रे पर वापस जाती हुई दिखाई पड़ रही है, उसके क्षत्रप एक बार फिर आपस में उलझते हुए हैं और पार्टी में गुटबाजी चरम पर पहुंचती दिखाई दे रही है। इस बार निशाने पर अरुण यादव है।
यादव जबसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं वे पार्टी की मजबूती के लिए अपनी तरफ से लगातार प्रयास कर रहे हैं लेकिन पार्टी के दुसरे दिग्गजों की तरह से उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं मिला है, इन दिनों वे प्रदेशव्यापी जन विश्वास यात्राएं कर रहे हैं और हर जिले में घूम रहे हैं। इधर पिछले कई महीनों से प्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर अंदरूनी तौर पर सुगबुगाहट देखने को मिल रही है, मैहर उपचुनाव में हार के बाद इसे और बल मिला है और एक सोची समझी रणनीति के तहत पार्टी के कई विधायकों द्वारा राज्य की कमान पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ को सौंपने की मांग करते हुए माहौल बनाया जा रहा है। कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक विधानसभा में प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने की वकालत खुले तौर पर कर चुके हैं, उनका कहना है कि “कमलनाथ बड़े नेता हैं, वे दस बार के सांसद हैं, उन्हें कमान सौंपी जाती है तो राज्य में पार्टी को सौ फीसदी फायदा होगा”।
बच्चन के इस बयान के बाद निशंक जैन और हिना कांवरे जैसे कई विधायक भी सामने आकर कह रहे है कि कमलनाथ को न सिर्फ प्रदेशाध्यक्ष बनाया जाना चाहिए, बल्कि अगले चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। इसी तरह से युवा विधायक और दिग्विजय सिंह के पुत्र जयवर्धन सिंह का बयान भी आया है जिसमें उन्होंने कहा है कि, "पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष बनाने का फैसला सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही करेंगे, जहां तक कमलनाथ की बात है, वह मेरे पिता तुल्य हैं। अभी अरुण यादव हमारे नेता हैं, मैं भी उनके साथ पदयात्रा करता हूं।" इससे पहले दिग्विजय सिंह भी कमलनाथ का साथ देने का संकेत दे चुके हैं। इन सबके बीच यह ख़बरें भी आ रही हैं कि अरुण यादव को राज्यसभा भेजने की तैयारी की जा रही है।
केंद्र में कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद से कमलनाथ अब मध्यप्रदेश में अपनी भूमिका देख रहे हैं, वे खुद भी कह चुके है कि यदि पार्टी हाईकमान राज्य में उन्हें कोई जिम्मेदारी देती है तो उसे वे सहर्ष स्वीकार करेंगे। पिछले चार-पांच महीनों से कमलनाथ और उनके समर्थकों की सक्रियता प्रदेश में बढ़ी है।
केंद्र में कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद से कमलनाथ अब मध्यप्रदेश में अपनी भूमिका देख रहे हैं, वे खुद भी कह चुके है कि यदि पार्टी हाईकमान राज्य में उन्हें कोई जिम्मेदारी देती है तो उसे वे सहर्ष स्वीकार करेंगे। पिछले चार-पांच महीनों से कमलनाथ और उनके समर्थकों की सक्रियता प्रदेश में बढ़ी है।
उनके समर्थक यह इशारा भी कर रहे हैं कि आलाकमान ने कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपे जाने के संकेत देते हुए कहा है कि अगले विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, इसमें कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सहमति भी बताई जा रही है । इस तरह से कमलनाथ को सर्वमान्य चेहरा बनाने की कवायद महीनों पहले ही शुरू हो चुकी है। प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए नवंबर-दिसंबर में चुनाव होना है लेकिन अगर इससे पहले कमलनाथ को प्रदेश की कमान दे दी जाती है तो यह बड़ा बदलाव होगा । उनके पास मिशन 2018 के लिए पर्याप्त समय होगा, उनके नाम पर दुसरे बड़े नेताओं की सहमति बनाने में आसानी होगी, दिग्विजय सिंह पहले ही अपने समर्थन का संकेत दे चुके हैं ,ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका भी इन दिनों राष्ट्रीय राजनीति में में ज्यादा दिखाई दे रही है ।
पार्टी की माली हालत भी खस्ता है, कमलनाथ आर्थिक रूप से मजबूत हैं, अगर उन्हें जिम्मेदारी मिलती है तो इस मामले में हाईकमान बेफिक्र हो सकता है । लेकिन ढ़लती उम्र कमलनाथ के लिए चुनौती साबित हो सकती है इस साल नवम्बर में वे 70 साल के हो जायेंगें, जाहिर है जमीन से उखड़ी कांग्रेस को फिर पटरी पर लाने के लिए पूरे प्रदेश में गहन जनसंपर्क की जरूरत है , इस उम्र में वे यह काम कितना कर सकेंगें इस पर सवाल है, इसके आलावा उन्हें कभी भी पूरे प्रदेश का नेता नहीं मना गया है ,हमेशा से ही वे अपने आप को छिंदवाड़ा तक ही सीमित किये रहे हैं, और फिर उम्र के इस पड़ाव में अगर कमलनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पूरी जोर लगा भी दें क्या पार्टी के दुसरे नेता उन्हें यह काम आसानी से करने देंगें ? विडंबना देखिये लगातार सत्ता से बाहररहने के बावजूद बदलाव कांग्रेस में संगठन की जगह किसी एक व्यक्ति को मजबूत करने की कवायद चल रही है.
2018 के लिए कांग्रेस का सेनापति कमलनाथ, अरुण यादव हों या कोई और दिग्गज पार्टी की नावं तब तक पार नहीं हो सकती है जब तक नीचे से ऊपर तक कुंद हो चुके संगठन को सुधरा ना जाये, और यह काम मिलजुल ही हो सकता है । परन्तु इन सबसे पहले अगर पार्टी ने अपने नेताओं सावर्जनिक रूप से चलाये जा रहे शह और मात के इस खेल पर लगाम नहीं लगाया तो इसका खामियाजा एक बार फिर उसे भुगतना पड़ सकता है ,अभी कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की दिलचस्पी कांग्रेस मजबूत बनाने से ज्यादा अपना हित साधने में है और मध्यप्रदेश कांग्रेस टुकड़ों में बंटी नजर आ रही है और वह भारतीय जनता पार्टी से कम और आपस में ज़्यादा लड़ती हुई दिखाई पड़ती है, दिग्विजय सिंह के बाद फिलहाल पार्टी के पास कोई एक ऐसा नेता भी नहीं है जिसकी अपील पूरे प्रदेश में हो, सभी अपने-अपने इलाक़ों के क्षत्रप हैं । इसका अंदाजा भाजपा को भी है तभी तो 2018 का चुनाव कमलनाथ के नेतृत्व में लड़े जाने की सुगबुगाहट के बीच मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के खास माने जाने वाले लालसिंह आर्य ने बयान दिया है कि कोई भी आ जाये शिवराज सिंह में मध्यप्रदेश की जनता का अटूट विश्वास है और उनके सामने कोई टिक नहीं सकेगा ।
मैहर में भाजपा एक बार फिर कांग्रेस को साधने में कामयाबी रही है. यह शिवराज सिंह के लिये एक मरहम है जिसके सहारे वे यह संदेश देने में सफल हुए है कि तमाम अवरोधों के बीच उनका जादू अभी भी कायम है, पिछले 5 मार्च शिवराजसिंह चौहान ने अपना आज 57वीं जन्मदिन मनाया है,अगर 2018 में 70 पार कर चुके कमलनाथ के साथ उनका मुकाबला होता है तो यह काफी दिलचस्प रहेगा ।
नोट:- यह लेखक के निजी विचार हैं। इससे रेनबोन्यूज का सहमत होना आवश्यक नहीं हैं।
कांग्रेस में कमल का शोर
Reviewed by rainbownewsexpress
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9:03:00 am
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