चने के पेड़ पे...!!


-तारकेश कुमार ओझा/ दुनिया  में कई चीजें दिखाई पहले पड़ती है, लेकिन समझ बाद में आती है। बचपन में गांव जाने पर चने के पेड़ तो खूब देखे। लेकिन इस पर चढ़ने या चढ़ाने का मतलब बड़ी देर से समझ आया।इसी तरह हेलीकाप्टर से घूम-घूम कर जनसभा को संबोधित करने, राजप्रसाद जैसे महलों में रहने और दुनिया की हर-प्रकार की सुख-सुविधा का उपभोग करते हुए कोई कैसे त्याग और जनसेवा कर सकता है, इसका मतलब भी समझने में अरसा लग गया। खैर पहले बात करते हैं चने के पेड़ की।  चने के पेड़ पर केवल नासमझ ही नहीं चढ़ते, महाज्ञानियों को भी इस पर चढ़ने की कोशिश करते और धड़ाम से जमीन पर गिरते देखा है।और तो और लोगों को हमेशा प्रवचन की घुट्टी पिलाते रहने  वाले देश के अनेक बाबा भी इस चने के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश में अपनी फजीहत करा चुके हैं। 
गांव-देहात का कल्लन कड़ी  मेहनत मजदूरी करके जीवन-यापन कर रहा है। कुछ लोग उसे शादी को प्ररित कर चने के पेड़ पर चढ़ा देते हैं कि इससे उसे सुख मिलेगा। लेकिन होता बिल्कुल उलटा है। एक ऐसे ही मेहनती मजदूर को आंसू बहाते देखा जो शादी के बाद अफसोस व्यक्त कर रहा था कि जिस सुख की तलाश में वह गृहस्थी के जुए में जुता, वह उसके लिए मृगतृष्णा साबित हो रही है। जिंदगी का आलम यह कि उसके जीवन के 12 घंटे कारखाने में पसीना बहाते बीतता है और दो घंटे घर से कारखाना आने-जाने में। इसके बाद रोज दो घंटे उसके परिवार के लिए पानी की जुगाड़ में खर्च हो जाते हैं।  जब भी किसी को चने के पेड़ पर चढ़ा देखता हूं मेरे जेहन में उस डुप्लीकेट का चेहरा बार-बार उभर आता है जिसे आगे रहने की होड़ में कुछ चैनल वालों ने एक माननीय का हमशक्ल बना कर पार्लियामेंट भेज दिया। 
अपने इस कारनामे की वजह से वह बेचारा कुछ दिनों तक तो चर्चा में रहा, लेकिन जब संसद में अनाधिकृत प्रवेश के लिए पकड़ा गया तो दहाड़े मार कर रोने लगा कि आज फंस गया हूं तो कोई बचाने नहीं आ रहा है। इससे पहले और बाद में भी अनेक लोगों को चने के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करते और इस प्रयास में धड़ाम से नीचे गिरते देखा है। अभी हाल में एक और आजादी पसंद को चने के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करते देखा। हमेशा की तरह एक वर्ग ने उसे खूब चढ़ाने की कोशिश की। इतना प्रचार दिया मानो कोई अवतारी-दिव्य पुरुष का दुनिया को बदलने वाला प्रवचन चल रहा हो। लेकिन उसे चने के पेड़ पर चढ़ा कर किनाराकसी करने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगा। 
अब बेचारे की खबर तभी दिखाई जाती है जब वह कहीं पिट जाता है या फिर इसकी शिकायत करता है। शिकायत की भी पोस्टमार्टम होती है कि सही कह रहा है या झूठ। जबकि कल तक उसे अवतारी पुरुष की तरह रात - दिन दिखाया जा रहा था। इस दौरान यह देखने - समझने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई कि वह जो कह रहा है वह सही भी है या नहीं। या बस भौंकाल ही भरे जा रहा है। चने के पेड़ पर चढ़ने की कोशिश करने वाले की हालत अब यह है कि उसकी हवाई यात्रा पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं क्योंकि अभी हाल में तो उसने खुद को महागरीब बताया था। लेकिन इस मुद्दे पर अपनी दलील यह है कि ऐसे लोगों से भला कभी ऐसा सवाल पूछा  जाता है क्या। ऐसे तो देश में असंख्य नामचीन सवालों के घेरे में आ जाएंगे जिनकी पहचान त्याग और देशसेवा के लिए है। 
हमने अनेक गरीब प्रेमी नेता देखे हैं जो आजीवन अपनी पुरानी चिरकुट वाली पहचान के साथ चिपके रहे। समय के साथ गरीब प्रेमी नेता की धन संपति लगातार बढ़ती रही। लोग हैरत जताते। तहकीकात से पता लगा कि जनाब ने राजनीति में रहते धर्मपत्नी को सरकारी नौकरी से लगवा दिया। फिर बेटा बड़ा हुआ तो बाप की बदौलत वह भी कहीं एडजस्ट हो गया। बहू आई तो वह भी नौकरी वाली। रूतबा बढ़ा तो सलाहकारों की सलाह पर जनाब ने दर्जनों डंपर किराए पर चला दिए। साझे पर ठेकेदारी का कारोबार फलने-फूलने लगा। अब लाखों की आमदनी वाले शख्स को क्या जरूरत है इधर-उधर हाथ गंदे करने की। ऐसे ही सक्षम लोग सब कुछ एडजस्ट करते जाते हैं। 
लेखक तारकेश कुमार ओझा पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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