हादसों से त्रस्त कराहती सड़कें

सड़कें कराहतीं हैं...क्यों हादसा हमें खून से नहलातीं हैं...


-एजाज अहमद/ गांव की पगडंडी ही भली थी। मोहन बकरियां और झूरी अपने दोनों बैल हीरा और मोती को लिये पगडंडी के सहारे खेतों तक पहुंचा करते थे। हीरा-मोती के बंधे घूंघरूओं की आवाजें अब नहीं गूंजती...वो दिन बीत सा गया। हमें एक अजीबों गरीब नाम दे दी गयी है ‘सड़क’ वो भी पक्की सड़क। एनएच, एसएनएच, जीटीआर, पीसीसी न जाने कौन-कौन सी। मेरी बहन ‘सावधानी’ जब भी लोगों से दूर हटती, हादसा हमें खून से नहला जाता। तब मैं रो पड़ती...कराहती...देखती...सुनती... और यही पुकारती... अब मुझे खून से मत नहलाओ। इल्जाम बहुत सह लिया...ये हादसा को दूर भगाओ...मौत का साथी और जिंदगी के दुश्मन मुझे बदनाम कर रखा है। मेरे रोंगटे खड़े हो जातंे हैं। जब किसी का खून हादसा बहा जाता है...एक नहीं, दो नहीं और तीन भी नहीं कहें तो रोज सैकडों को ये ‘हादसा’ सावधानी के हटते ही अपना शिकार बना लेतें हैं। कोतवाल की गाड़ी गुजरतीं हैं...सवारी गुजरतें हैं...और गुजरतें हैं बाराती...बड़ा ही मजा आता है जब आपकी सवारी हमें गुदगुदा कर अपने मंजिल तक पहुंच जाता है। आजकल कोई यातायात को समझता ही नहीं और वो अंग्रेजों वाले ‘टै््रफिक रूल’ को भी भूल जातें हैं। रफ्तार वाली जल्दबाजी क्यूं? मंजिल या फिर आखिरी मंजिल? मुझे गुदगुदी अच्छी लगती है दौरापन नहीं... क्यों सवार पर ही नींद आ जाती है? बायां या फिर दायां...गुजरों इससे पहले देख लो, कोई आ तो नहीं रहा...। थक सा गया हूं...दर्द और आंसूओं को सहेजते-सहेजते...। अब बिल्कुल माफ नहीं करूंगा। मां इंतजार कर रहीं हैं...पापा आप भी आ रहें हैं...कोई बात नहीं विलंब को खुद सोचने दो...सावधानी अपने साथ लेकर आना। वरना हादसा अपना शिकार बना लेगी। मैं तिखी हूं...उंची हूं...लंबी हूं...चौड़ी हूं...काली भी हूं...पहाड़ों और नदियों के उपर से भी हूं। डरावनी हूं... पर आपका शुभचिंतक हूं... आपकी आवश्यकताओं ने मुझे यह रूप दिया है। जी हां मैं तो विकास की सढ़ी हूं। ‘सड़क’ हूं... वो भी पक्की सड़क...।
-एजाज अहमद
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