मरीज और चिकित्सक के बीच बिगड़ते रिश्ते- समीक्षा जरूरी है

डाक्टर्स डे (01 जुलाई) पर विशेष

तीमरदारों ने अस्पताल में तोड़-फोड़ की, मरीजों के परिजनों ने नर्सिंग होम के शीशे तोड़े, तीमारदारों और डाक्टरों के बीच हाथापाई, डाक्टरों ने रोगी को जबरन अस्पताल से निकाला, पूरा पैसा देने पर अस्पताल ने मरीज की लाश देने से इन्कार किया, पैसा न मिलने पर डाक्टर ने ऑपरेशन अधूरा छोड़ा, डाक्टरों ने मरीज को अस्पताल में भर्ती करने से मना किया, प्रसूता ने सड़क पर प्रसव किया। यह सुर्खिया आज-कल अखबार एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में आम है।
यह एक बानगी भर है स्थितियाँ इससे भी ज्यादा गंभीर हैं पुराने जमाने में भगवान का रूप समझे जाने वाले चिकित्सक के प्रति मरीजों एवं समाज का रवैया बिल्कुल बदल गया है। इसके लिए केवल रोगी ही जिम्मेदार नहीं है कहीं न कहीं चिकित्सकों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है। चिकित्सकों में सामाजिक सरोकार की कमी, उनकी व्यावसायिक सोच के कारण आज रोगी केवल चिकित्सक को सेवाप्रदाता मानने लगा है इसीलिए वह चाहता है कि उसने चिकित्सक को अपने इलाज के लिए पैसा दिया है इसलिए उसके द्वारा चुकायी गई फीस का पूरा प्रतिफल मिलना चाहिए और जब रोगी और उसकी देखभाल करने वालों को लगता है कि अस्पताल और चिकित्सक द्वारा उसकी सही देखभाल नहीं की जा रही है उसके इलाज में लापरवाही बरती जा रही है तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है और वो मारपीट, तोड़-फोड़, हाथापाई और गाली-गलौज पर अमादा हो जाता है और कभी-कभी तो डाक्टरों एवं मरीजों के परिजनों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी जाती है। कभी मरीज की मौत को भगवान का बुलावा मानने वाले परिवार वाले अब यह बात मानने के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं है। वह इसके लिए चिकित्सक को ही जिम्मेदार मानते हैं।
रोगियों एवं चिकित्सकों के मध्य विश्वसनीयता के संकट के लिए कही न कहीं चिकित्सक भी जिम्मेदार हैं। व्यसायिकता एवं धनार्पाजन की लालसा ने उन्हें सामाजिक सरोकारों से दूर कर दिया है। चिकित्सकों के लिए बनी आचार-संहिता पुस्तकों की शोभा बढ़ा रही है। मरीजों का शोषण और उन पर अनावश्यक जांचों का दबाव भी बढ़ रहा है। रोगियों से ज्यादा पैसे लेने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं बड़े-बड़े विज्ञापन पट एवं अनावश्यक डिग्रियाँ प्रदर्शित करने की होड़ लगी है और रोगों के उपचार के भ्रामक दावे प्रचारित कर रोगी को गुमराह किया जा रहा है। बड़े-बड़े कारपोरेट धराने के पांच सितारा अस्पतालों ने रोगी को केवल उपभोक्ता माना है।
निश्चित रूप से इस विश्वसनीयता के संकट के लिए केवल एक पक्ष जिम्मेदार नहीं है। कभी-कभी काम की अधिकता चिकित्सकों को चिड़-चिड़ा बना देती है और कभी-कभी वास्तव में रोगी की उपेक्षा हो जाती है और ऐसे में यदि किसी रोगी की जान जाती है तो उसके परिजनों का गुस्सा होना स्वाभाविक है। समाज में न तो सारे चिकित्सक सामाजिक सरोकारों से दूर है और न ही सारे रोगियों ने चिकित्सक को भगवान मानना बंद कर दिया है। 
अभी कम से कम होम्योपैथी चिकित्सकों के प्रति रोगियों में विश्वसनीयता बरकरार है इसका प्रमुख कारण है इसके चिकित्सकों में व्यवसायिकता का भाव नहीं के बराबर है। ज्यादातर होम्योपैथिक चिकित्सक सामाजिक सरोकारों से जुड़े होते है  क्योंकि उपचार में रोगी के व्यक्तिगत पक्ष का गंभीरता से अध्ययन किया जाता है जिससे चिकित्सक रोगी से व्यक्तिगत रूप से जुड़ जाता है, दूसरा होम्योपैथिक औषधियों का सौम्य होना तथा रोगी के उपचार में ज्यादा ताम-झाम का न होना साथ ही कम से कम जांचो में रोगी का उपचार शुरू हो जाना। होम्योपैथी एवं उसके चिकित्सकों यही विशेषताएं एक-दूसरे के प्रति विश्वास के बंधन को मजबूत आधार प्रदान कर रही है।
अब समय आ गया है कि चिकित्सक एवं रोगी विगड़ते आपसी संबंधों का समीक्षा करें। चिकित्सकों को धन एवं व्यवसायिकता का लोभ छोड़कर चिकित्सा कार्य को सेवा का कार्य बनाए रखे जिससे रोगियों में उनके प्रति विश्वास का संकट उत्पन्न न हो और रोगियों और परिजनों को चािहए कि वे चिकित्सक को पूरा सहयोग देकर उसमें विश्वास बनाए रखना चाहिए जिससे की इस पवित्र पेशे में विश्वनीयता का माहौल बना रहे एवं चिकित्सक पुनः भगवान के रूप मे माना जाने लगे। इन कार्यों के लिए सभी को मिल-जुलकर प्रयास करना होगा तभी अविश्वास के संकट से निपटा जा सकता है। आइए ’’डाक्टर्स डे’ के अवसर पर एक विश्वास का माहौल बनाने के लिए संकल्प बद्ध हों।
-डा0 अनुरूद्ध वर्मा
सदस्य
केन्द्रीय होम्योपैथी परिषद
21/414, इन्दिरा नगर, लखनऊ
मो0 9415075558
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