-के.पी. सिंह/ बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ खरगोश और कछुए की दौड़ की कहानी काम कर रही है। खरगोश को अपने तेज दौड़ने पर बड़ा गुमान था। उस पर कछुआ जो रेंग कर चलता है उसकी तो खरगोश के सामने कोई सानी ही नही थी। इस चक्कर में दौड़ की होड़ में बेफिक्री के कारण खरगोश सो गया और बाजी कछुए के हाथ चली गई। मायावती के मुकाबले कछुआ कौन है-सपा या भाजपा यह कहना मुश्किल है लेकिन मायावती आगामी विधानसभा चुनाव की जीत का फल अपने आप उनकी झोली में आ टपकने की जो निकम्मी उम्मीद संजोई थी वह अब कोसों दूर चली गई मालूम हो रही है।
मायावती के राजनैतिक कैरियर की शुरूआत में अकर्मण्यता की कोई गंुजाइश नही थी। जब बसपा को नजरअंदाज ही नही तिरस्कृत किया जाता था उस समय मायावती ने अपनी दबंगी के तेवरों की वजह से अपने साथ-साथ पार्टी का वजूद बनाया। हरिद्वार लोकसभा उपचुनाव में बुरी तरह हारने के बावजूद वे तत्कालीन दिग्गज नेताओं से ऐसी भिड़ी कि उन्हें सहम जाना पड़ा। लेकिन गेस्टहाउस कांड और सत्ता प्राप्ति के बाद आई सुविधाभोगिता ने उनका जैसे पूरी तरह रूपांतरण कर डाला। वे चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन पार्टी की सर्वेसर्वा बनने के बाद सफलता के लिए उन्होंने कोई सकारात्मक प्रयास और संघर्ष नही किया। अपने प्रतिद्वंदी की विफलता की प्रतीक्षा करते हुए अगले चुनाव में बढ़त लेने का मंसूबा उन्होंने अपनी रणनीति का सर्वोपरि बिंदु बना लिया। पंचायत चुनाव में जो धांधलियां और गुंडागर्दी हुई उसके कारण सत्ता विरोधी एक मात्र ध्रुव होने की वजह से गत् वर्ष के अंत में बसपा का ग्राफ उत्तर प्रदेश में सबसे ऊंचा दिखाई दे रहा था।
लेकिन इसके बाद मायावती ने बसपा की गाड़ी को न्यूट्रल गेयर में ही बनाये रखा जबकि सपा और भाजपा ने रणनीतिपूर्ण उद्यम के जरिये स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का श्रम किया। इसमें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा स्वयं की छवि विकास पुरुष के रूप में ढालने का उपक्रम रंग लाया और हाल के कुछ महीनों में उन्होंने प्रदेश के सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में अपनी जगह बना ली है। इस एहसास की वजह से ही वटवृक्ष बने हुए अपने चाचाओं रामगोपाल और शिवपाल को अब वे अपने खिलवाड़ का साधन बनाने की हैसियत में पहुंच गये हैं। पहले उन्होंने शिवपाल को मुंह लगाकर रामगोपाल को लो प्रोफाइल में डाल दिया और अब मुख्तार अंसारी की पार्टी का विलय रोकने के बहाने शिवपाल को उनकी हैसियत बता दी। जाहिर है कि टिकिट वितरण में अब न शिवपाल की चलेगी और न रामगोपाल की। दूसरी ओर भाजपा ने भी इस बीच सिफर से शिखर तक पहुंचने के लिए बड़े तानेबाने बुने और उसकी मेहनत इस हद तक रंग लाई है कि कुछ हफ्तों से यह स्वीकार किया जाने लगा है कि प्रदेश के अगले चुनाव में मुख्य मुकाबला सपा और भाजपा के बीच होगा।
इस आकलन को हवा दी है बसपा को डूबता जहाज समझकर पार्टी के दो कददावर नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी द्वारा पार्टी छोड़ने के घटनाक्रम ने। मायावती के हावभाव बताते है कि वे न केवल इस उथल-पुथल से ठगी सी रह गई हैं बल्कि घबराहट के कारण उनकी आवाज में पहले जैसी दहाड़ नही रह गई है। बसपा में उम्मीदवार बनाने के लिए पैसे लिए जाते हैं यह बात पहले से ही लोगों को विदित थी। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य के आरोप के बाद यह एक चिंतनीय मुददा बन गया है जो बसपाइयों तक में मायावती के प्रति मोहभंग का कारण बन रहा है।
बसपाई भी कहने लगे हैं कि जो ज्यादा बोली लगा दे उसे टिकिट देने के अलावा क्या पार्टी को आगे बढ़ाने का कोई और रास्ता नही है क्योंकि ज्यादा बोली लगाकर इस बीच वे लोग टिकिट पाने में कामयाब हुए हैं जिन्हें अपने मन के अंदर सामाजिक परिवर्तन कतई स्वीकार्य नही है। इसके बावजूद पैसे के मोह में मायावती ने बसपा के बहुजन मूल को गंवाने से होने वाले नुकसान को नहीं भांप पाया। बाबूसिंह कुशवाहा से लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य तक के पलायन ने पिछड़ों में यह प्रतीति उत्पन्न की है कि मायावती की बसपा में उन्हें कोई सम्मान और प्रोत्साहन मिलने वाला नही है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के पलायन ने इस धारणा को चरम पर पहुंचा दिया है जिससे पिछड़ी जातियां बसपा से पूरी तरह कटने की स्थिति में पहुंच गई हैं। उधर मुसलमान वोटरों में भी उन्हें लेकर पर्याप्त दुविधा है। जबकि भानुमती का कुनबा जोड़ने के लिए सवर्णों में पार्टी के फैलाव का जो कदम उन्होंने आगे बढ़ाया था वह एक छलावा साबित हो रहा है। जिस दिन उनके पास बहुजन का संगठन नही रहेगा उस दिन सवर्ण समर्थकों की बसपा के प्रति वर्ग शत्रुता की भावना फिर फुफकार मारने लगेगी और शायद यह नजारा इसी चुनाव में देखने को न मिल जाये।
बहरहाल उत्तर प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव का परिदृश्य बेहद रोमांचक होता नजर आ रहा है। कांग्रेस तो पीके की मदद लेने के बावजूद किसी भी गिनती में आती नजर नही आ रही है। दूसरी ओर बसपा के लिए राह कठिन होती जा रही है। भाजपा का बाजी मार ले जाने का मुगालता किस हद तक सटीक है यह तो चुनाव परिणाम से ही उजागर होगा। लेकिन अगर इस चुनाव में बसपा को एक बार फिर सत्ता से बाहर रहने के जनादेश का सामना करना पड़ा तो इस पार्टी का क्या हश्र होगा अभी इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।
मायावती के राजनैतिक कैरियर की शुरूआत में अकर्मण्यता की कोई गंुजाइश नही थी। जब बसपा को नजरअंदाज ही नही तिरस्कृत किया जाता था उस समय मायावती ने अपनी दबंगी के तेवरों की वजह से अपने साथ-साथ पार्टी का वजूद बनाया। हरिद्वार लोकसभा उपचुनाव में बुरी तरह हारने के बावजूद वे तत्कालीन दिग्गज नेताओं से ऐसी भिड़ी कि उन्हें सहम जाना पड़ा। लेकिन गेस्टहाउस कांड और सत्ता प्राप्ति के बाद आई सुविधाभोगिता ने उनका जैसे पूरी तरह रूपांतरण कर डाला। वे चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं लेकिन पार्टी की सर्वेसर्वा बनने के बाद सफलता के लिए उन्होंने कोई सकारात्मक प्रयास और संघर्ष नही किया। अपने प्रतिद्वंदी की विफलता की प्रतीक्षा करते हुए अगले चुनाव में बढ़त लेने का मंसूबा उन्होंने अपनी रणनीति का सर्वोपरि बिंदु बना लिया। पंचायत चुनाव में जो धांधलियां और गुंडागर्दी हुई उसके कारण सत्ता विरोधी एक मात्र ध्रुव होने की वजह से गत् वर्ष के अंत में बसपा का ग्राफ उत्तर प्रदेश में सबसे ऊंचा दिखाई दे रहा था।
लेकिन इसके बाद मायावती ने बसपा की गाड़ी को न्यूट्रल गेयर में ही बनाये रखा जबकि सपा और भाजपा ने रणनीतिपूर्ण उद्यम के जरिये स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का श्रम किया। इसमें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा स्वयं की छवि विकास पुरुष के रूप में ढालने का उपक्रम रंग लाया और हाल के कुछ महीनों में उन्होंने प्रदेश के सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में अपनी जगह बना ली है। इस एहसास की वजह से ही वटवृक्ष बने हुए अपने चाचाओं रामगोपाल और शिवपाल को अब वे अपने खिलवाड़ का साधन बनाने की हैसियत में पहुंच गये हैं। पहले उन्होंने शिवपाल को मुंह लगाकर रामगोपाल को लो प्रोफाइल में डाल दिया और अब मुख्तार अंसारी की पार्टी का विलय रोकने के बहाने शिवपाल को उनकी हैसियत बता दी। जाहिर है कि टिकिट वितरण में अब न शिवपाल की चलेगी और न रामगोपाल की। दूसरी ओर भाजपा ने भी इस बीच सिफर से शिखर तक पहुंचने के लिए बड़े तानेबाने बुने और उसकी मेहनत इस हद तक रंग लाई है कि कुछ हफ्तों से यह स्वीकार किया जाने लगा है कि प्रदेश के अगले चुनाव में मुख्य मुकाबला सपा और भाजपा के बीच होगा।
इस आकलन को हवा दी है बसपा को डूबता जहाज समझकर पार्टी के दो कददावर नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी द्वारा पार्टी छोड़ने के घटनाक्रम ने। मायावती के हावभाव बताते है कि वे न केवल इस उथल-पुथल से ठगी सी रह गई हैं बल्कि घबराहट के कारण उनकी आवाज में पहले जैसी दहाड़ नही रह गई है। बसपा में उम्मीदवार बनाने के लिए पैसे लिए जाते हैं यह बात पहले से ही लोगों को विदित थी। लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य के आरोप के बाद यह एक चिंतनीय मुददा बन गया है जो बसपाइयों तक में मायावती के प्रति मोहभंग का कारण बन रहा है।
बसपाई भी कहने लगे हैं कि जो ज्यादा बोली लगा दे उसे टिकिट देने के अलावा क्या पार्टी को आगे बढ़ाने का कोई और रास्ता नही है क्योंकि ज्यादा बोली लगाकर इस बीच वे लोग टिकिट पाने में कामयाब हुए हैं जिन्हें अपने मन के अंदर सामाजिक परिवर्तन कतई स्वीकार्य नही है। इसके बावजूद पैसे के मोह में मायावती ने बसपा के बहुजन मूल को गंवाने से होने वाले नुकसान को नहीं भांप पाया। बाबूसिंह कुशवाहा से लेकर स्वामी प्रसाद मौर्य तक के पलायन ने पिछड़ों में यह प्रतीति उत्पन्न की है कि मायावती की बसपा में उन्हें कोई सम्मान और प्रोत्साहन मिलने वाला नही है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के पलायन ने इस धारणा को चरम पर पहुंचा दिया है जिससे पिछड़ी जातियां बसपा से पूरी तरह कटने की स्थिति में पहुंच गई हैं। उधर मुसलमान वोटरों में भी उन्हें लेकर पर्याप्त दुविधा है। जबकि भानुमती का कुनबा जोड़ने के लिए सवर्णों में पार्टी के फैलाव का जो कदम उन्होंने आगे बढ़ाया था वह एक छलावा साबित हो रहा है। जिस दिन उनके पास बहुजन का संगठन नही रहेगा उस दिन सवर्ण समर्थकों की बसपा के प्रति वर्ग शत्रुता की भावना फिर फुफकार मारने लगेगी और शायद यह नजारा इसी चुनाव में देखने को न मिल जाये।
बहरहाल उत्तर प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनाव का परिदृश्य बेहद रोमांचक होता नजर आ रहा है। कांग्रेस तो पीके की मदद लेने के बावजूद किसी भी गिनती में आती नजर नही आ रही है। दूसरी ओर बसपा के लिए राह कठिन होती जा रही है। भाजपा का बाजी मार ले जाने का मुगालता किस हद तक सटीक है यह तो चुनाव परिणाम से ही उजागर होगा। लेकिन अगर इस चुनाव में बसपा को एक बार फिर सत्ता से बाहर रहने के जनादेश का सामना करना पड़ा तो इस पार्टी का क्या हश्र होगा अभी इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।
-के.पी. सिंह
वरिष्ठ पत्रकार, टिप्पणीकार, उरई-जालौन (उ.प्र.)
फाइनल मुकाबले से दूर छिटकती जा रही बहनजी
Reviewed by rainbownewsexpress
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