झांसी। प्रदेश के सत्ता परिवार में छिड़े शीतयुद्ध की छाया बुन्देलखण्ड की राजनीति पर भी मंडराने लगी है। इस अंचल में समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े पुरोधा ने भले ही दबी जुबान से निकाले हों लेकिन बगावत के सुर निकालकर तूफान पूर्व की हलचल का संकेत दे दिया है। झांसी-ललितपुर संसदीय सीट को बुन्देलखण्ड का राजनैतिक हैडक्वार्टर माना जाता है। यहां की दो सीटों पर प्रदेश प्रभारी शिवपाल सिंह यादव के आशीर्वाद से तय किये गये प्रत्याशियों को पूर्व सांसद चंद्रपाल सिंह यादव पचा नही पा रहे हैं। पहली बार उन्होंने पार्टी के किसी फैसले के खिलाफ सार्वजनिक रूप से कड़ी टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है कि मौका परस्तों को टिकिट दिया जाना बर्दास्त नही होगा।
चंद्रपाल सिंह यादव को एक जमाने में बुंदेलखंड में समाजवादी पार्टी का सबसे मुख्य स्तंभ माना जाता था। कहा जाता है कि उनके बिना बुंदेलखंड में पार्टी का पत्ता भी नही खड़कता था। वे सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव के इतने चहेते थे कि उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए 1989 में गरौठा क्षेत्र से मुलायम सिंह यादव ने अपनी तरफ से जनता दल का प्रत्याशी घोषित कर दिया था। 1989 का चुनाव जनता दल और भारतीय जनता पार्टी ने मिलकर लड़ा था जिसमें तय हुआ था कि किसी भी सिटिंग विधायक के निर्वाचन क्षेत्र में दोनों पार्टियों की दावेदारी में कोई हेरफेर नही होगा। चूंकि गरौठा विधानसभा क्षेत्र भारतीय जनता पार्टी के मानवेंद्र सिंह के कब्जे में थी जिसकी वजह से यह सीट छोड़ना भारतीय जनता पार्टी को गंवारा नही हो सकता था।
दूसरी ओर चंद्रपाल का राजनैतिक कद बढ़ाने के लिए मुलायम सिंह किसी भी कीमत पर उन्हें गरौठा से प्रत्याशी बनाने के लिए आमादा थे। नतीजतन गठबंधन टूटने पर आ गया। घबराये जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किसी तरह भाजपा नेतृत्व को मनाया और तय हुआ कि गरौठा सीट को दोनों दल प्रतिष्ठा का प्रश्न नही बनायेंगे फलस्वरूप मानवेंद्र सिंह और चंद्रपाल के बीच इस सीट पर दोस्ताना चुनाव हुआ जिसमें दोनों हार गये और चंद्रपाल की तो जमानत ही जब्त हो गई। लेकिन मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद झांसी आकर चंद्रपाल को बुंदेलखंड का मिनी मुख्यमंत्री घोषित करते हुए न केवल इसकी क्षतिपूर्ति कर दी बल्कि रातों-रात इस अंचल में चंद्रपाल की हस्ती को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। चंद्रपाल का यह रुतबा 1993 में मुलायम सिंह के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर भी बरकरार रहा और 1996 के लोकसभा चुनाव में तो बुंदेलखंड में समाजवादी पार्टी के सारे प्रत्याशी चंद्रपाल सिंह यादव के घर पर ही तय हुए।
चंद्रपाल के लिए मुलायम सिंह के मन में पहली बार थोड़ी खटास तब आई जब केंद्र में बाजपेयी सरकार के दौरान वे दिल्ली में अपने तरीके से जुगाड़ फिट करके शीर्ष सहकारी संस्था कृभकों के अध्यक्ष बन गये। मुलायम सिंह उन दिनों हाशिए पर पहुंच गये थे फिर भी उनकी नाराजगी के कारण चंद्रपाल ने उनकी बेअदबी नही की और न ही उनके प्रति वफादारी में कोई कमी लाने का प्रदर्शन किया। इस वजह से अंततोगत्वा मुलायम सिंह का गुस्सा शांत हो गया और 2004 के लोक सभा चुनाव में जब वे झांसी-ललितपुर संसदीय सीट से उम्मीदवार बने तो उन्हें निर्वाचित कराने के लिए सपा सुप्रीमों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। चुनाव आयोग द्वारा दोबारा मतगणना नौबत आने के बावजूद मुलायम सिंह द्वारा फेंके गये पासों की वजह से चंद्रपाल को आखिर में संसद में जाने का मौका मिल ही गया। लेकिन इस बार अखिलेश सरकार के बनने के बाद से ही चंद्रपाल को तवज्जों में लगातार कमी रखी गई। इस बीच चंद्रपाल ने अपने समीकरण प्रोफेसर रामगोपाल के साथ दुरुस्त कर लिए जिससे उन्हें विपरीत परिस्थितियों के बावजूद काफी सहारा मिलता रहा।
लेकिन पंचायत चुनाव में बागडोर शिवपाल सिंह यादव के हाथ पहुंच गई जिनका सपा सुप्रीमों की पारिवारिक राजनीति में प्रोफेसर रामगोपाल यादव के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। उन्होंने झांसी के जिला पंचायत अध्यक्ष तक में चंद्रपाल की संस्तुति को कोई महत्व नही दिया। अब विधानसभा के आगामी चुनाव के सेनापति भी वही हैं। जिसके चलते उन्होंने झांसी सदर से उनसे सीधे तौर पर जुड़ी दीपमाला कुशवाहा को उम्मीदवार घोषित किया तो चंद्रपाल यादव को करारा झटका लगा। लेकिन पिछले चुनाव में बबीना में उनके सामने टकराने वाले श्यामसुंदर यादव की भाजपा से पार्टी में वापिसी कराकर उन्हें उम्मीदवार बनाने का जो फैसला शिवपाल यादव द्वारा किया गया है उससे चंद्रपाल का धैर्य टूट चुका है।
चंद्रपाल के लिए मुलायम सिंह के मन में पहली बार थोड़ी खटास तब आई जब केंद्र में बाजपेयी सरकार के दौरान वे दिल्ली में अपने तरीके से जुगाड़ फिट करके शीर्ष सहकारी संस्था कृभकों के अध्यक्ष बन गये। मुलायम सिंह उन दिनों हाशिए पर पहुंच गये थे फिर भी उनकी नाराजगी के कारण चंद्रपाल ने उनकी बेअदबी नही की और न ही उनके प्रति वफादारी में कोई कमी लाने का प्रदर्शन किया। इस वजह से अंततोगत्वा मुलायम सिंह का गुस्सा शांत हो गया और 2004 के लोक सभा चुनाव में जब वे झांसी-ललितपुर संसदीय सीट से उम्मीदवार बने तो उन्हें निर्वाचित कराने के लिए सपा सुप्रीमों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। चुनाव आयोग द्वारा दोबारा मतगणना नौबत आने के बावजूद मुलायम सिंह द्वारा फेंके गये पासों की वजह से चंद्रपाल को आखिर में संसद में जाने का मौका मिल ही गया। लेकिन इस बार अखिलेश सरकार के बनने के बाद से ही चंद्रपाल को तवज्जों में लगातार कमी रखी गई। इस बीच चंद्रपाल ने अपने समीकरण प्रोफेसर रामगोपाल के साथ दुरुस्त कर लिए जिससे उन्हें विपरीत परिस्थितियों के बावजूद काफी सहारा मिलता रहा।
लेकिन पंचायत चुनाव में बागडोर शिवपाल सिंह यादव के हाथ पहुंच गई जिनका सपा सुप्रीमों की पारिवारिक राजनीति में प्रोफेसर रामगोपाल यादव के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। उन्होंने झांसी के जिला पंचायत अध्यक्ष तक में चंद्रपाल की संस्तुति को कोई महत्व नही दिया। अब विधानसभा के आगामी चुनाव के सेनापति भी वही हैं। जिसके चलते उन्होंने झांसी सदर से उनसे सीधे तौर पर जुड़ी दीपमाला कुशवाहा को उम्मीदवार घोषित किया तो चंद्रपाल यादव को करारा झटका लगा। लेकिन पिछले चुनाव में बबीना में उनके सामने टकराने वाले श्यामसुंदर यादव की भाजपा से पार्टी में वापिसी कराकर उन्हें उम्मीदवार बनाने का जो फैसला शिवपाल यादव द्वारा किया गया है उससे चंद्रपाल का धैर्य टूट चुका है।
विधानसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा होने तक चंद्रपाल यादव द्वारा कोई सनसनीखेज कदम उठा लेने तक की अटकलबाजियां होने लगी हैं। यह न भी हो तो चंद्रपाल यादव के समर्थक झांसी और बबीना मंे पार्टी उम्मीदवारों के लिए काम करेंगे यह कहना नामुमकिन है। यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव चंद्रपाल की नाराजगी को पुराने संबंधों के निर्वाह की भावना की वजह से नजरंदाज नही कर सकते। क्या इसको देखते हुए बुंदेलखंड एक बार फिर उम्मीदवारी में कोई फेरबदल किया जायेगा यह एक यक्ष प्रश्न बन गया है जिसका उत्तर फिलहाल भविष्य के गर्भ में है।
-के.पी. सिंह
सत्ता परिवार में छिड़े शीतयुद्ध की छाया से ग्रसित हो रही बुंदेलखंड की भी राजनीति
Reviewed by rainbownewsexpress
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10:50:00 am
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