देश की एकता के लिए खतरा बनती आक्रामकता

-निर्मल रानी/ भारतवर्ष की पहचान दुनिया में एक ऐसे देश के रूप में बनी हुई है जहां विभिन धर्मो, जातियों, भाषाओं तथा अलग-अलग संस्कृतियों के लोग एक भारतवासी के रूप में मिलजुल कर रहते हैं तथा अपने पारंपरिक समुदायिक संस्कारों व रीति-रिवाजों का पूरी आज़ादी के साथ पालन करते आ रहे हैं। परंतु अफसोस की बात है कि कभी हमारे धार्मिक संस्कारों के कारण तो कभी पारंपरिक संस्कारों के चलते तो कभी राजनैतिक हालातों के तहत विभिन्न समुदायों के मध्य ऐसा तनावपूर्ण वातावरण बन जाता है जिससे देश की सामाजिक एकता पर $खतरा मंडराता नज़र आने लगता है। जिस समय दादरी में गाय का मांस रखने के आरोप में  एक हिंसक भीड़ द्वारा अखलाक अहमद की हत्या की गई तथा इसके बाद देश के सैकड़ों बुद्धिजीवियों,  साहित्यकारों,कलाकारों एवं विभिन्न क्षेत्रों में सरकार द्वारा पुरस्कृत होने वाली प्रतिभाओं द्वारा ऐसी घटनाओं के विरोध स्वरूप अपने पुरस्कार वापस लौटाए गए उस समय इसके प्रत्युत्तर में मोदी सरकार के पक्ष में भी एक ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की गई गोया दादरी कांड जैसी घटनाएं देश में पहले भी होती आई हैं। और ऐसी बातें देश के लिए कोई नई बात नहीं है। सरकार के समर्थकों द्वारा यह बताने की कोशिश की गई कि भारत में असहिष्णुता का वातावरण मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद ही नहीं बना है। यहां तक कि देश के सिने जगत में अपनी अलग पहचान रखने वाले शाहरुख खान व आमिर खान जैसे अभिनेताओं ने भी जब कभी इस विषय पर कुछ भी बोलने की कोशिश की तो उन्हें भी कभी पाकिस्तानी कहा गया तो कभी दूसरे कई अपशब्दों द्वारा अपमानित करने का प्रयास किया गया।
आज एक बार फिर यही सवाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में पूछा जा रहा है कि क्या देश में असहिष्णुता व सांप्रदायिक उन्माद व आक्रामकता का ऐसा सिलसिलेवार वातावरण पहले भी कभी देखा गया है या फिर इस प्रकार की शक्तियां किसी की शह पर अथवा स्वयं को सरकार द्वारा पूर्ण रूप से संरक्षित महसूस करते हुए ऐसी आक्रामक घटनाएं अंजाम दे रही हैं? आज 'वाइब्रेट गुजरात' का दलित समुदाय सड़कों पर उतर आया है। हालांकि गुजरात में ही कुछ समय पूर्व वहां के पटेल समाज द्वारा भी आक्रामकता का प्रदर्शन करते हुए आरक्षण की मांग की गई थी। परंतु उस आंदोलन ने समाज में उस प्रकार की फूट नहीं पैदा नहीं की जैसीकि इन दिनों दलित समुदाय के सड़कों पर आने के बाद दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात के ऊना क्षेत्र में पेशेवर रूप से मृत जानवरों की खाल उतारने वाले दलित युवकों की पिटाई करने तथा उन्हें रस्सी से बांधकर सार्वजनिक रूप से उनका जुलूस निकालने की घटना के बाद राज्य का दलित समाज बेहद $गुस्से में दिखाई दे रहा है। इस समुदाय के लोगों ने राजकोट के जि़लाधिकारी कार्यालय सहित और कई सार्वजनिक स्थलों व सरकारी कार्यालयों पर मरे हुए जानवरों तथा मरी गायों के मांस के टुकड़े तथा शरीर के अन्य भाग फेंक दिए। मरे हुए जानवरों की खाल उतारने के पेशे से जुड़े हुए लोगों ने अपने समाज के युवकों की बेरहमी से पिटाई किए जाने के बाद कई प्रश्न उठाए हैं।
उनका सवाल है कि आखिर किस धार्मिक व्यवस्था के तहत हमारे समुदाय को इस घृणित काम को करने के लिए बाध्य होना पड़ा? यही काम तथाकथित उच्च जाति के लोग स्वयं क्यों नहीं करते? जो लोग गौरक्षा के नाम पर गऊ माता के हमदर्द बने फिरते हैं वही लोग मरणोपरांत गौवंश का विधिवत् रूप से स्वयं अंतिम संस्कार क्यों नहीं करते। वे पूछ रहे हैं कि आ$िखर ऐसी वर्ण व्यवस्था क्यों और किसने बनाई जिसके तहत हम दलित समाज के लोगों को ही गंदे से गंदा और बुरे से बुरा घृणित काम करने हेतु बाध्य होना पड़ता है? इस घटना के बाद यही दलित समाज यह कहते हुए भी सुना जा रहा है कि अब वे लोग मरे हुए जानवरों की खाल उतारने का धंधा भी नहीं करेंगे। दलित उत्पीडऩ की ऊना की घटना का वीडियो सार्वजनिक होने के बाद पूरे राज्य के दलित समाज में आक्रोश की लहर दौड़ गई है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस दलित समाज को अपने साथ जोडऩे के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के निर्देश पर पिछले दिनों उज्जैन में हुए सिहंस्थ महाकुंभ में समरसता स्नान तथा विचार कुंभ जैसे आयोजन की घोषणा की गई हो तथा इस प्रदर्शन के माध्यम से हिंदू समाज के विभिन्न समुदायों में एकता प्रदर्शित करने की कोशिश की गई हो वही दलित समाज आज पारंपरिक वर्ण व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर रहा है? यहां यह कहना $गलत नहीं होगा कि केवल हमारे धार्मिक ग्रंथों अथवा संस्कारों ने ही हमें दलितों के प्रति न$फरत तथा हीनता का पाठ नहीं पढ़ाया बल्कि समय-समय पर विभिन्न धर्मगुरू व राजनेता भी कुछ न कुछ ऐसे कटु वचनों का इस्तेमाल करते रहते हैं जिनसे समाज में इस प्रकार की वर्ण आधारित न$फरत बर$करार रहती है। उदाहरण के तौर पर अप्रैल 2010 में वर्तमान प्रधानमंत्री तथा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में एक पुस्तक के विमोचन के अवसर पर बोलते हुए दलितों की तुलना मंदबुद्धि व मानसिक रूप से विकलांग बच्चों से की थी। और इसी के साथ उन्होंने बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विषय में भी यह कहा था कि वे क्रांतिकारी नेता नहीं थे। 
कुछ ऐसा ही घटनाक्रम पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में उस समय देखा गया जबकि उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री एवं दलित समाज में अपना मज़बूत जनाधार रखने वाली बसपा प्रमुख मायावती को वेश्या कहकर संबोधित कर डाला। हालांकि भाजपा ने उन्हें तत्काल पद व पार्टी से हटा दिया। परंतु इस विवाद ने एक व्यापक राजनैतिक रूप धारण कर लिया। जिस भाषा का इस्तेमाल दयाशंकर सिंह ने किया था, वैसी ही भाषा का प्रयोग अपने विरोध प्रदर्शन में बीएसपी कार्यकर्ताओं द्वारा भी बड़े ही अफसोसनाक तरीके से किया गया। इस प्रकार की अभद्र भाषा के सार्वजनिक प्रयोग से केवल मायावती व दयाशंकर सिंह के बीच व्यक्गित् तलवारें नहीं खिंचतीं बल्कि ऐसे वाद-विवाद सामुदायिक स्तर पर वैमनस्य का वातावरण पैदा करते हैं। और निश्चित रूप से यह हमारे संस्कारों तथा धार्मिक परंपराओं की विरासत ही है जिसने हमें ऊंच-नीच,स्वर्ण व निम्र जाति के वर्गों में बांट रखा है। और इससे भी ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस अपमानजनक वर्ण व्यवस्था को जड़ से समाप्त करने के बजाए इससे लाभ उठाने की मंशा रखने वाले राजनेता जो भले ही आपस में मिलकर एक साथ खाते-पीते,हंसी मज़ाक़ करते तथा एक-दूसरे के सुख-दु:ख में शरीक होते क्यों न दिखाई देते हों परंतु इनकी कोशिशें हमेशा यही होती हैं कि समाज में धर्म व जाति के आधार पर खाईयां न सि$र्फ बर$करार रहें बल्कि और भी गहरी होती जाएं।
अभी पिछले दिनों कुछ ऐसी ही घटना पंजाब के फगवाड़ा शहर में घटी। प्राप्त समाचारों के अनुसार यहां कुछ हिंदुत्ववादी युवकों ने एक मस्जिद पर पथराव किया तथा कुछ अल्पसंख्यक लोगों से हाथापाई कर उन्हें अपमानित किया। बार-बार यही हरकतें करने पर इनसे दु:खी होकर वहां का सिख व दलित समाज भी अल्पसंख्यकों के साथ खड़ा हो गया। और सबने मिलकर उन शरारती लोगों को खदेड़ भगाया। हमारे देश में यदि इस प्रकार की घटनाएं होती रहीं और ऐसी सांप्रदायिकतापूर्ण घटनाओं में शामिल शरारती लोगों को इस बात का यकीन हो चुका है कि इस समय देश में व कई प्रदेशों में एक ऐसी हिंदुत्ववादी विचारधारा रखने वाली सरकार चल रही है जो उन्हें उनकी मनमर्जी करने देगी तथा उनके अहित के बारे में कतई नहीं सेाचेगी तो निश्चित रूप से ऐसी मानसिकता देश की एकता व अखंडता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। यदि हमें देश को धर्म, समुदाय, वर्ण, जाति तथा रंग-भेद के आधार पर एकसूत्र में बांध कर रखना है तो हमें समाज के सभी वर्गों में परस्पर विश्वास तथा सद्भाव का वातावरण बनाकर रखना होगा। किसी स्वयंभू स्वर्ण अथवा दलित समाज के किसी नेता को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वे एक-दूसरे को अपमानित करे अथवा उसे हीन भावना से देखे।
गौवंश की रक्षा के लिए भी केवल सतही व लोकलुभावन ही नहीं बल्कि बुनियादी उपाय किए जाने की ज़रूरत है। इस संबंध में बनाए जाने वाले कायदे-कानून दोहरेपन पर आधारित नहीं बल्कि पूरी तरह से एक तथा पारदर्शी होने चाहिए। जिस देश में दूध कम कर देने या दूध देना बंद कर देने के बाद गौपालक अपनी गाय बदलकर दूसरी दुधारू गाय खरीद लाते हों, जहां गायों का दूध निकाल कर उन्हें सड़क पर चरने फिरने के लिए तथा कूड़ा-करकट में पड़े पॉलीथिन खाने के लिए केवल इसलिए छोड़ दिया जाता हो ताकि उन्हें गायों को चारा न खिलाना पड़े ऐसे गौभक्तों से यह उम्मीद रखना कि वे बिना दूध देने वाली या बूढ़ी अथवा बीमार गायों को चारा खिला सकेंगे और उनका मरणोपरांत अंतिम संस्कार भी कर सकेंगे यह बात वास्तविकता के कितने करीब है यह भलीभांति सोचा जा सकता है। परंतु इस प्रकार के मुद्दों को लेकर समाज के कुछ लोगों द्वारा अपनाई जा रही आक्रामकता देश की एकता के लिए खतरा ज़रूर बनती जा रही है।
-निर्मल रानी
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