-घनश्याम भारतीय/ भ्रष्टाचार राष्ट्र और उसकी जनता के लिए एक भयंकर कोढ़ है। जिसकी व्यापकता समाज और राष्ट्र के लिए घातक है। दिनों दिन यह हमारी जड़ो को खोखला करता जा रहा है। फलते-फूलते जा रहे भ्रष्टाचार के विकराल होते चंगुल में फस कर देश की निरीह जनता आज करा रही है। सरकारों द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाओं को भ्रष्टाचार का घुन तो चाट ही रहा है, अन्नदाता की कमर भी टूटती रही है। आज अदने से कर्मचारी से लेकर उच्च पदासीन अफसरों तक सभी आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूब चुके हैं। और सियासी फेर में उलझी सरकारें भ्रष्टाचार की जड़ें काटने के बजाए उसके लिए उर्बरता की स्रोत बनती जा रही है। ऐसे में भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना आखिर कैसे साकार होगा।
विद्वानों का मत है कि जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरुद्ध चलकर निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करता है तब भ्रष्टाचार का जन्म होता है।जहां से निकल कर आज वही भ्रष्टाचार सभी आयामों में अपनी गहरी पैठ बना चुका है। परिणाम यह है कि इसकी खतरनाक हवा से संपूर्ण समाज ही विषाक्त हो चुका है। यही विषाक्तता मानवीय मूल्यों से खिलवाड़ करते हुए राष्ट्र को पतन के गर्त्य की ओर ले जा रही है। मंचों पर भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना दिखाने वाले लोग ही इसके संरक्षक बने हुए हैं।
परिणाम यह है कि सड़क बनती है और कुछ ही महीने में उखड़ जाती है। पुल, पुलिया, सरकारी भवन निर्माण के कुछ ही दिन में जर्जर हो जाते हैं। हर सरकारी खरीद में सामग्री तो घटिया ली जाती है और भुगतान उच्च कोटि की सामग्री के मूल्य से अधिक किया जाता है। दफ्तरों में बिना कुछ लिए बाबू फाइल आगे नहीं बढाता। साहब बिना तय किए स्वीकृति नहीं देते। खसरा, खतौनी, परिवार रजिस्टर की नकल, जन्म, मृत्यु, जाति, निवास प्रमाण पत्र बिना पैसे के नहीं मिलते। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए धनाढ्यों को बड़ी आसानी से न्यूनतम आय का प्रमाण पत्र मिल जाता है, और खानाबदोश जिंदगी जीने वाले चप्पल घिस कर भगवान भरोसे चुप बैठ जाते हैं। कोठी, कार, नौकरी, व्यापार वालों को गरीबी रेखा के नीचे और बेसहारों को ऊपर का राशन कार्ड दिया जाता है। कोटेदार 25 किलो देकर 35 किलो राशन दर्ज करता है। आवास, पेंशन सहित विभिन्न योजनाओं का लाभ उसे ही मिलता है जो बड़े पेट वालों के मुंह में मुद्रा का निवाला डालता है। गरीब असमर्थता के चलते अपात्र हो जाता है।
हमारी मित्र पुलिस भी इससे अछूती नहीं है। मोटी रकम लेकर हत्यारे, दुराचारी और अराजक तत्वों के साथ मित्रवत व्यवहार करते हुए उंहें स्वच्छंद विचरण की छूट देती है, और निर्धनों असहायों पर कोड़े बरसा कर हवालात का रास्ता दिखाती है। पैसा लेकर फरियादियों को फटकारती है।गरीबों की जमीन पर दबंगों से कब्जा करवाती है। अदालतों से बड़े अपराधी आसानी से जमानत पा जाते हैं और गरीब जेल की सलाखों में पहुंचकर किस्मत पर रोते हैं। यहां न्याय किया नहीं जाता बल्कि बेचा जाता है। रही बात बड़े अफसरों की तो स्थलीय सत्यापन और निरीक्षण उनके लिए बड़ी आय का बेहतरीन जरिया बन गया है। सूटकेस मिलते ही गलत को सही और सही को गलत सिद्ध कर दिया जाता है। उच्च पदासीन हाकिम के भारी उडीर को अवरोही क्रम में उनके मातहत ही भरते हैं। जिसके लिए राइट या रॉन्ग कोई मायने नहीं रखता।
सर्वाधिक पुनीत कहा जाने वाला शिक्षा महकमा अपनी पवित्रता खो चुका है।आज न गुरुजी पढ़ाना चाहते हैं और न छात्र पढ़ना चाहते हैं। अब तो डिग्री खरीदी बेची जाती है। स्कूल शिक्षा के मंदिर नहीं उद्योग बन चुके हैँ। जहां भवन निर्माण के लिए माननीयों द्वारा आधी रकम बतौर कमीशन नकद लेकर निधि से धनराशि आवंटित की जाती है। मान्यता से लेकर परीक्षा केंद्र बनाए जाने तक महकमे को मोटी रकम देने के बाद स्कूलों द्वारा छात्रों से नकल की कीमत निर्धारित की जाती है। सरकारी स्कूल तो माशा अल्लाह...l तमाम प्रकार के ठेके अग्रिम कमीशन पर मिलते हैं। फिर गुणवत्ता गई तेल लेने। अस्पतालों में असली की मुहर लगाकर नकली दवाओं की खेप पहुंचाई जाती है। जहां जेब गर्म होने पर धरती के भगवान साधारण रोग वाले लोगों को बेहतरीन चिकित्सा सुविधा देते हैं। न मिलने पर व्यवस्था नहीं है कहकर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। और तो और सत्ता के शीर्ष पर बैठे माननीयों की बात तो और भी निराली है। लोकहित का पाठ तो जैसे उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। स्वहित में राष्ट्र को गर्त्य की ओर ले जा रहे हैं। प्रशासन से जी हुजूरी की ख्वाहिश और मोटी रकम की तमन्ना भ्रष्टाचार को खाद पानी दे रही है। पहले के मंत्री, मुख्यमंत्री के घर खपरैल रह जाते थे। अब एक पंचवर्षीय प्रधान रहकर आलीशान कोठी और कार न खड़ा किया तो तोहीन होती है।जिसे लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ कहा जाता है यह मीडिया भी मछली बाजार बन गया है।पहुंच वालों के काले कारनामों पर पर्दा डालने का जैसे उसने ठेका ले रखा है। महिमा मण्डन और यश गान उसका पेशा बन चुका है।...और जनता भी मतदान कहां करती है। व्ह तो सिक्कों की खनक, शराब की बोतल और कपड़े आदि की कीमत पर वोट बेंचती है। कहां तक गिनाए भ्रष्टाचार की कहानी, जब उससे कुछ बचा ही नही है।
आज राजनीतिक और आपराधिक गठजोड़ से बनी अनैतिक ताकत से गैरकानूनी कार्यों में लिप्त लोग खिल खिला रहे हैं।भ्रष्टाचार ठहाके लगा रहा है और आम आदमी सहमा हुआ है। सियासत और भ्रष्टाचार के अटूट गठबंधन के बीच फंसा प्रशासन भी लोकहिताय की अपनी इस जिम्मेदारी को नहीं निभा पा रहा है, जो समाज कल्याणार्थ उसे मिली हुई है। आज सैद्धांतिक तौर पर जनता जनार्दन की बात करने वाले लोग व्यवहारिक तौर पर जनता के चौतरफा शोषण पर आमादा हैं। पहले लोकहित में स्वहित ढूंढा जाता था और अब स्वहित में लोकहित।पूर्ण रुप से स्वतंत्र होने के अगले 40 वर्षों में भारत ने जिन 3 क्षेत्रों में विकास किया है उसमें भ्रष्टाचार का अहम स्थान है।शेष दो क्षेत्र जनसंख्या वृद्धि और ऋण ग्रस्तता के हैं। वास्तव में इन तीनों में बेतहाशा वृद्धि ने देश को खोखला किया है। तमाम घोटाले भी भ्रष्टाचार की ही देन है।
सन 2011 में हुए एक सर्वे में भ्रष्टाचार के शिकार जिन 183 देशों की सूची आयी थी उसमें भारत 95वें स्थान पर था।भारत के लिए भ्रष्टाचार कोई नया नहीं है। जानकार मानते हैं कि इसकी शुरुआत अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति के साथ हो गई थी। तत्समय के राजाओं ने सत्ता संपत्ति की लालच में अंग्रेजों से मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। जो समय के साथ उत्तरोत्तर बढ़ता रहा। नतीजा यह हुआ कि आज़ादी के एक दशक बाद ही भ्रष्टाचार के दलदल में भारत फंसने लगा। आज तो इस दल दल से निकलना भी मुश्किल हो गया है।आजादी के बाद की जो संसद भ्रष्टाचार को लेकर बहस करती थी वही आज मौन है। 21 दिसंबर 1963 को उसी संसद में बहस के दौरान समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि भारत में सिंहासन और व्यापार के बीच का संबंध जितना दूषित भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना तो दुनिया के किसी देश में नहीं है।
वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र की अस्मिता को आहत कर दिया है।अनैतिक आचरण के जरिए पनपाये भ्रष्टाचार से विलासितापूर्ण जीवन की कामना ने मानवता की हत्या कर दी है। अर्थ लोभ में लोग मानव जीवन की सार्थकता भूल गए हैं। भ्रष्टाचार ने मानवीय रिश्तो में दरार पैदा कर दी है। नतीजा यह है कि पैसे की लालच में पात्रों को पात्र और पात्रों को अपात्र करार देकर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के उद्देश्य से भटकाया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ छोटे पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं बल्कि उच्च पदासीन अफसरों और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के भारी होते उदर को भरने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लिया जा रहा है। लाखों करोड़ों खर्च कर हासिल किए गए पद पर बैठे लोग अनैतिक रास्ते अपनाएंगे तो छोटे पदों पर और बैठे लोग कहां तक ईमानदार रह पाएंगे। ऊपर भी देना है कह कर दी गयी रकम का कई गुना संग्रह करना उनका भी लक्ष्य बन गया है। पद पर बने रहने के लिए रकम पहुंचाने की व्यवस्था भी भ्रष्टाचार का कारण है। खाल तो आम आदमी की ही उधड़ती है। इसके लिए सारा तंत्र ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। शासन प्रशासन में बैठे तमाम निकम्मे आजादी के मायने भूल गए हैं। आज सभी जिम्मेदार लोग कायर, स्वार्थी और खुदगर्ज हो गए हैं। शायद यही वजह है कि गैरकानूनी कार्यों में लिप्त लोग राजनीतिक प्रशासनिक और आपराधिक गठजोड़ की ताकत से लोकतंत्र पर हावी हैं और निरीह जनता पंख फड़फड़ा रही है।
-घनश्याम भारतीयविद्वानों का मत है कि जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरुद्ध चलकर निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करता है तब भ्रष्टाचार का जन्म होता है।जहां से निकल कर आज वही भ्रष्टाचार सभी आयामों में अपनी गहरी पैठ बना चुका है। परिणाम यह है कि इसकी खतरनाक हवा से संपूर्ण समाज ही विषाक्त हो चुका है। यही विषाक्तता मानवीय मूल्यों से खिलवाड़ करते हुए राष्ट्र को पतन के गर्त्य की ओर ले जा रही है। मंचों पर भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना दिखाने वाले लोग ही इसके संरक्षक बने हुए हैं।
परिणाम यह है कि सड़क बनती है और कुछ ही महीने में उखड़ जाती है। पुल, पुलिया, सरकारी भवन निर्माण के कुछ ही दिन में जर्जर हो जाते हैं। हर सरकारी खरीद में सामग्री तो घटिया ली जाती है और भुगतान उच्च कोटि की सामग्री के मूल्य से अधिक किया जाता है। दफ्तरों में बिना कुछ लिए बाबू फाइल आगे नहीं बढाता। साहब बिना तय किए स्वीकृति नहीं देते। खसरा, खतौनी, परिवार रजिस्टर की नकल, जन्म, मृत्यु, जाति, निवास प्रमाण पत्र बिना पैसे के नहीं मिलते। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए धनाढ्यों को बड़ी आसानी से न्यूनतम आय का प्रमाण पत्र मिल जाता है, और खानाबदोश जिंदगी जीने वाले चप्पल घिस कर भगवान भरोसे चुप बैठ जाते हैं। कोठी, कार, नौकरी, व्यापार वालों को गरीबी रेखा के नीचे और बेसहारों को ऊपर का राशन कार्ड दिया जाता है। कोटेदार 25 किलो देकर 35 किलो राशन दर्ज करता है। आवास, पेंशन सहित विभिन्न योजनाओं का लाभ उसे ही मिलता है जो बड़े पेट वालों के मुंह में मुद्रा का निवाला डालता है। गरीब असमर्थता के चलते अपात्र हो जाता है।
हमारी मित्र पुलिस भी इससे अछूती नहीं है। मोटी रकम लेकर हत्यारे, दुराचारी और अराजक तत्वों के साथ मित्रवत व्यवहार करते हुए उंहें स्वच्छंद विचरण की छूट देती है, और निर्धनों असहायों पर कोड़े बरसा कर हवालात का रास्ता दिखाती है। पैसा लेकर फरियादियों को फटकारती है।गरीबों की जमीन पर दबंगों से कब्जा करवाती है। अदालतों से बड़े अपराधी आसानी से जमानत पा जाते हैं और गरीब जेल की सलाखों में पहुंचकर किस्मत पर रोते हैं। यहां न्याय किया नहीं जाता बल्कि बेचा जाता है। रही बात बड़े अफसरों की तो स्थलीय सत्यापन और निरीक्षण उनके लिए बड़ी आय का बेहतरीन जरिया बन गया है। सूटकेस मिलते ही गलत को सही और सही को गलत सिद्ध कर दिया जाता है। उच्च पदासीन हाकिम के भारी उडीर को अवरोही क्रम में उनके मातहत ही भरते हैं। जिसके लिए राइट या रॉन्ग कोई मायने नहीं रखता।
सर्वाधिक पुनीत कहा जाने वाला शिक्षा महकमा अपनी पवित्रता खो चुका है।आज न गुरुजी पढ़ाना चाहते हैं और न छात्र पढ़ना चाहते हैं। अब तो डिग्री खरीदी बेची जाती है। स्कूल शिक्षा के मंदिर नहीं उद्योग बन चुके हैँ। जहां भवन निर्माण के लिए माननीयों द्वारा आधी रकम बतौर कमीशन नकद लेकर निधि से धनराशि आवंटित की जाती है। मान्यता से लेकर परीक्षा केंद्र बनाए जाने तक महकमे को मोटी रकम देने के बाद स्कूलों द्वारा छात्रों से नकल की कीमत निर्धारित की जाती है। सरकारी स्कूल तो माशा अल्लाह...l तमाम प्रकार के ठेके अग्रिम कमीशन पर मिलते हैं। फिर गुणवत्ता गई तेल लेने। अस्पतालों में असली की मुहर लगाकर नकली दवाओं की खेप पहुंचाई जाती है। जहां जेब गर्म होने पर धरती के भगवान साधारण रोग वाले लोगों को बेहतरीन चिकित्सा सुविधा देते हैं। न मिलने पर व्यवस्था नहीं है कहकर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। और तो और सत्ता के शीर्ष पर बैठे माननीयों की बात तो और भी निराली है। लोकहित का पाठ तो जैसे उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। स्वहित में राष्ट्र को गर्त्य की ओर ले जा रहे हैं। प्रशासन से जी हुजूरी की ख्वाहिश और मोटी रकम की तमन्ना भ्रष्टाचार को खाद पानी दे रही है। पहले के मंत्री, मुख्यमंत्री के घर खपरैल रह जाते थे। अब एक पंचवर्षीय प्रधान रहकर आलीशान कोठी और कार न खड़ा किया तो तोहीन होती है।जिसे लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ कहा जाता है यह मीडिया भी मछली बाजार बन गया है।पहुंच वालों के काले कारनामों पर पर्दा डालने का जैसे उसने ठेका ले रखा है। महिमा मण्डन और यश गान उसका पेशा बन चुका है।...और जनता भी मतदान कहां करती है। व्ह तो सिक्कों की खनक, शराब की बोतल और कपड़े आदि की कीमत पर वोट बेंचती है। कहां तक गिनाए भ्रष्टाचार की कहानी, जब उससे कुछ बचा ही नही है।
आज राजनीतिक और आपराधिक गठजोड़ से बनी अनैतिक ताकत से गैरकानूनी कार्यों में लिप्त लोग खिल खिला रहे हैं।भ्रष्टाचार ठहाके लगा रहा है और आम आदमी सहमा हुआ है। सियासत और भ्रष्टाचार के अटूट गठबंधन के बीच फंसा प्रशासन भी लोकहिताय की अपनी इस जिम्मेदारी को नहीं निभा पा रहा है, जो समाज कल्याणार्थ उसे मिली हुई है। आज सैद्धांतिक तौर पर जनता जनार्दन की बात करने वाले लोग व्यवहारिक तौर पर जनता के चौतरफा शोषण पर आमादा हैं। पहले लोकहित में स्वहित ढूंढा जाता था और अब स्वहित में लोकहित।पूर्ण रुप से स्वतंत्र होने के अगले 40 वर्षों में भारत ने जिन 3 क्षेत्रों में विकास किया है उसमें भ्रष्टाचार का अहम स्थान है।शेष दो क्षेत्र जनसंख्या वृद्धि और ऋण ग्रस्तता के हैं। वास्तव में इन तीनों में बेतहाशा वृद्धि ने देश को खोखला किया है। तमाम घोटाले भी भ्रष्टाचार की ही देन है।
सन 2011 में हुए एक सर्वे में भ्रष्टाचार के शिकार जिन 183 देशों की सूची आयी थी उसमें भारत 95वें स्थान पर था।भारत के लिए भ्रष्टाचार कोई नया नहीं है। जानकार मानते हैं कि इसकी शुरुआत अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति के साथ हो गई थी। तत्समय के राजाओं ने सत्ता संपत्ति की लालच में अंग्रेजों से मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। जो समय के साथ उत्तरोत्तर बढ़ता रहा। नतीजा यह हुआ कि आज़ादी के एक दशक बाद ही भ्रष्टाचार के दलदल में भारत फंसने लगा। आज तो इस दल दल से निकलना भी मुश्किल हो गया है।आजादी के बाद की जो संसद भ्रष्टाचार को लेकर बहस करती थी वही आज मौन है। 21 दिसंबर 1963 को उसी संसद में बहस के दौरान समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि भारत में सिंहासन और व्यापार के बीच का संबंध जितना दूषित भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना तो दुनिया के किसी देश में नहीं है।
वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कार्यपालिका और न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार ने लोकतंत्र की अस्मिता को आहत कर दिया है।अनैतिक आचरण के जरिए पनपाये भ्रष्टाचार से विलासितापूर्ण जीवन की कामना ने मानवता की हत्या कर दी है। अर्थ लोभ में लोग मानव जीवन की सार्थकता भूल गए हैं। भ्रष्टाचार ने मानवीय रिश्तो में दरार पैदा कर दी है। नतीजा यह है कि पैसे की लालच में पात्रों को पात्र और पात्रों को अपात्र करार देकर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के उद्देश्य से भटकाया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ छोटे पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं बल्कि उच्च पदासीन अफसरों और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के भारी होते उदर को भरने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लिया जा रहा है। लाखों करोड़ों खर्च कर हासिल किए गए पद पर बैठे लोग अनैतिक रास्ते अपनाएंगे तो छोटे पदों पर और बैठे लोग कहां तक ईमानदार रह पाएंगे। ऊपर भी देना है कह कर दी गयी रकम का कई गुना संग्रह करना उनका भी लक्ष्य बन गया है। पद पर बने रहने के लिए रकम पहुंचाने की व्यवस्था भी भ्रष्टाचार का कारण है। खाल तो आम आदमी की ही उधड़ती है। इसके लिए सारा तंत्र ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। शासन प्रशासन में बैठे तमाम निकम्मे आजादी के मायने भूल गए हैं। आज सभी जिम्मेदार लोग कायर, स्वार्थी और खुदगर्ज हो गए हैं। शायद यही वजह है कि गैरकानूनी कार्यों में लिप्त लोग राजनीतिक प्रशासनिक और आपराधिक गठजोड़ की ताकत से लोकतंत्र पर हावी हैं और निरीह जनता पंख फड़फड़ा रही है।
स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर
राष्ट्र की जड़ को खोखला करता भ्रष्टाचार
Reviewed by rainbownewsexpress
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11:42:00 am
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