-अविनाश सिंह भदौरिया/ देश-दुनिया में भ्रष्टाचार की जानकारी आसानी से नहीं मिल पाती। साढ़े चार साल पहले अपने देश में जब भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया गया था, तब जरूर भ्रष्टाचार के आंकड़े पढऩे को मिलते थे। ऐसा ही एक आंकड़ा वैश्विक स्तर पर एक मशहूर अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल जारी करती है। इस बार भी उसने दुनिया के 168 देशों में भ्रष्टाचार का आकलन पेश किया है। इसमें चौंकाने वाली बात यह है कि भारत में भ्रष्टाचार की हालत में बदलाव नजर नहीं आया। आज भी हालात जस के तस हैं।
पिछले हफ्ते ऑक्सफैम सहित दुनिया की तीन आर्थिक विश्लेषण संस्थाओं ने बताया कि भारत में विगत 25 सालों में गरीब-अमीर की खाई खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है तथा अमीर और अमीर। विश्वास नहीं होता कि बापू के देश में यह सब कैसे। हमने तो बापू के सम्मान में अपने नोटों पर उनकी तस्वीर भी छापी फिर आखिर क्या वजह है कि वे नोट काले हो कर भ्रष्टाचार के रास्ते धन-पशुओं की तरफ जाते रहे। हमने कानून बनाए। हमने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकारें गिराईं और सरकारें बनाईं। अन्ना ने आंदोलन किया। पूरा देश उससे प्रभावित हुआ। लोगों ने अपने-अपने जिलों में जुलूस निकाला। लगा कि देश की सामूहिक चेतना में गुणात्मक परिवर्तन हो गया और अब भ्रष्टाचार आखिरी सांस लेगा। लेकिन सब कुछ जस का तस है।
भ्रष्टाचार के मामले में दुनिया के सबसे साफ-सुथरे देश के रूप में बाजी डेनमार्क ने मारी। उसके सौ में से 98 अंक हैं। उसके बाद अच्छे देशों में स्वीडन और फिनलैंड के नाम हैं, लेकिन अपने देश के इस बार भी सिर्फ 38 नंबर आए हैं। यही स्थिति वर्ष 2014 में थी। कोई फर्क है तो बस इतना कि तब 174 के बीच हमारे नंबर 38 थे, आज 164 देशों के बीच 38 हैं। यानी भ्रष्टाचार के मामले में अपने देश की छवि में कोई सुधार नहीं दिखा, जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा था कि यूपीए सरकार के दौरान उठे आंदोलन के बाद कानूनी इंतजाम होने से, यानी लोकपाल और लोकायुक्तों के जरिये भारत में भ्रष्टाचार काबू में आ जाएगा। उसी आंदोलन के दौरान राजनीतिक बदलाव पर जोर देकर भी भ्रष्टाचार से मुक्ति की उम्मीदें बंधाई गई थी। इस बात में कोई शक नहीं कि आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन बंद पड़ा है। जो घोटाले सामने आते हैं, वे मीडिया में पांच-दस दिन में ही ठंडे पड़ रहे हैं। वैसे कानूनी प्रक्रिया शुरू होने के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ शोरशराबा रोकने का उपाय पहले भी था, अब भी है। बस फर्क यह देखने में आ रहा है कि पहले भ्रष्टाचार के मामले को कानूनी प्रक्रिया शुरू होने के बाद पूरी तौर पर जिंदा बनाए रखा जाता था। अब भ्रष्टाचार का हर मामला जल्द मरने लगा है। हो सकता है, इसीलिए भ्रष्टाचार के सामान्य प्रत्यक्षीकरण और भ्रष्टाचार सूचकांक में अंतर दिखता हो। इस बात को हम अपराधशास्त्रीय नजरिये से भी आगे बढ़ा सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि पाकिस्तान तो छोड।िए चीन भी हमसे बदतर है। पर यह 'शुतुरमुर्गी भावÓ उस समय टूट जाता है जब रिपोर्ट यह कहती है कि कि पाकिस्तान पिछले एक साल में अंकों के आधार पर बेहतर हुआ है। यानी भ्रष्टाचार कम हुआ है। चीन के विकास के अन्य आंकड़े हमें हमेशा शर्मिंदा करते रहे हैं। एक गैरसरकारी संस्थान ने कुछ माह पहले अपने अध्ययन में पाया कि एक औसत ग्रामीण राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा और जलापूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए औसतन 164 रुपये घूस हर साल देता है। यानी हर एक ग्रामीण परिवार से लगभग एक हजार रुपये सालाना। अध्ययन में ये भी पता लगा कि सबसे ज्यादा घूस बगैर कागज के फर्जी बीपीएल कार्ड बनाने के मद में जा रहा है। लेकिन यह वह भ्रष्टाचार नहीं जो देश को खा रहा है। असल भ्रष्टाचार गरीब या विकास के नाम पर बहने वाले फंड को लेकर है जो हमारे बजट का बड़ा हिस्सा है।
बात उन दिनों की है, जब अन्ना आंदोलन उठाया जा रहा था। उस समय कुछ विशेषज्ञ संस्थाएं और स्वयंसेवी संस्थाएं भ्रष्टाचार के अकादमिक पहलू पर भी विचार-विमर्श करवा रही थीं। दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में भ्रष्टाचार पर नेशनल कॉन्फ्रेंस हुई थी। इसमें एक सत्र 'भ्रष्टाचार का अपराधशास्त्र' था। इसमें देश के चार प्रशिक्षित अपराधशाास्त्रियों ने शोधपरक व्याख्यान दिए थे। एक व्याख्यान में आपराधिक व्यवहार के दूसरे नियम की व्याख्या थी। गणितीय रूप में इस नियम के मुताबिक भ्रष्टाचार तीन कारकों से संबध रखता है। पहला मनोवृत्ति, दूसरा परिस्थितियां (सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक) और तीसरा प्रतिरोध, यानी कानून या दंड का प्रावधान। इस विशेषज्ञ व्याख्यान का निष्कर्ष यह था कि भ्रष्टाचार के मामले में कानूनी उपाय का प्रभाव बहुत कम है। सबसे ज्यादा कारगर सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक परिस्थितियां है। एक रोचक वाक्य कहा गया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी कड़े कानून को ज्यादा कारगर समझना वैसा टोटका होगा, जैसे ग्यारह उड़द के दाने लाल कपड़े में बांधकर पीपल के पेड़ के नीचे गाडऩा। यहां यह बात दर्ज करना भी ठीक रहेगा कि जिस नेशनल कॉन्फ्रेंस में ये अपराधशास्त्री व्याख्यान दे रहे थे, उस आयोजन की सह-प्रायोजक यही ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल थी, जिसके निकाले भ्रष्टाचार सूचकांक की चर्चा आज पूरी दुनिया में हो रही है।
168 देशों में भ्रष्टाचार की मौजूदा स्थिति पर टीआई की वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट के बाद क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि देश के विषय विशेषज्ञ एक बार फिर मिल-बैठकर भ्रष्टाचार के खिलाफ साढ़े चार साल पहले हुए आंदोलन की समीक्षा कर लें। 16-17 जुलाई, 2011 को भ्रष्टाचार पर उस नेशनल कॉन्फ्रेंस के आयोजक जनसतर्कता आयोग, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान के प्रशिक्षित विशेषज्ञ और पूर्व छात्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्वान, समाजशास्त्र और सामाजिक कार्य के वही विशेषज्ञ आज भी स्वस्थ, सक्रिय और उपलब्ध हैं। तब तो देश को रातोंरात भ्रष्टाचार से मुक्त कर देने का जोश ज्यादा था, सो, विशेषज्ञों की बात को गौर से सुना नहीं जा पाया, लेकिन आज राजनीतिक माहौल ठंडा है, यानी भ्रष्टाचार पर गंभीर विमर्श के लिए मौसम माकूल भी है।
(लेखक अविनाश सिंह भदौरिया दैनिक न्यू ब्राइट स्टार में उप संपादक हैं।)पिछले हफ्ते ऑक्सफैम सहित दुनिया की तीन आर्थिक विश्लेषण संस्थाओं ने बताया कि भारत में विगत 25 सालों में गरीब-अमीर की खाई खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है तथा अमीर और अमीर। विश्वास नहीं होता कि बापू के देश में यह सब कैसे। हमने तो बापू के सम्मान में अपने नोटों पर उनकी तस्वीर भी छापी फिर आखिर क्या वजह है कि वे नोट काले हो कर भ्रष्टाचार के रास्ते धन-पशुओं की तरफ जाते रहे। हमने कानून बनाए। हमने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकारें गिराईं और सरकारें बनाईं। अन्ना ने आंदोलन किया। पूरा देश उससे प्रभावित हुआ। लोगों ने अपने-अपने जिलों में जुलूस निकाला। लगा कि देश की सामूहिक चेतना में गुणात्मक परिवर्तन हो गया और अब भ्रष्टाचार आखिरी सांस लेगा। लेकिन सब कुछ जस का तस है।
भ्रष्टाचार के मामले में दुनिया के सबसे साफ-सुथरे देश के रूप में बाजी डेनमार्क ने मारी। उसके सौ में से 98 अंक हैं। उसके बाद अच्छे देशों में स्वीडन और फिनलैंड के नाम हैं, लेकिन अपने देश के इस बार भी सिर्फ 38 नंबर आए हैं। यही स्थिति वर्ष 2014 में थी। कोई फर्क है तो बस इतना कि तब 174 के बीच हमारे नंबर 38 थे, आज 164 देशों के बीच 38 हैं। यानी भ्रष्टाचार के मामले में अपने देश की छवि में कोई सुधार नहीं दिखा, जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा था कि यूपीए सरकार के दौरान उठे आंदोलन के बाद कानूनी इंतजाम होने से, यानी लोकपाल और लोकायुक्तों के जरिये भारत में भ्रष्टाचार काबू में आ जाएगा। उसी आंदोलन के दौरान राजनीतिक बदलाव पर जोर देकर भी भ्रष्टाचार से मुक्ति की उम्मीदें बंधाई गई थी। इस बात में कोई शक नहीं कि आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन बंद पड़ा है। जो घोटाले सामने आते हैं, वे मीडिया में पांच-दस दिन में ही ठंडे पड़ रहे हैं। वैसे कानूनी प्रक्रिया शुरू होने के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ शोरशराबा रोकने का उपाय पहले भी था, अब भी है। बस फर्क यह देखने में आ रहा है कि पहले भ्रष्टाचार के मामले को कानूनी प्रक्रिया शुरू होने के बाद पूरी तौर पर जिंदा बनाए रखा जाता था। अब भ्रष्टाचार का हर मामला जल्द मरने लगा है। हो सकता है, इसीलिए भ्रष्टाचार के सामान्य प्रत्यक्षीकरण और भ्रष्टाचार सूचकांक में अंतर दिखता हो। इस बात को हम अपराधशास्त्रीय नजरिये से भी आगे बढ़ा सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि पाकिस्तान तो छोड।िए चीन भी हमसे बदतर है। पर यह 'शुतुरमुर्गी भावÓ उस समय टूट जाता है जब रिपोर्ट यह कहती है कि कि पाकिस्तान पिछले एक साल में अंकों के आधार पर बेहतर हुआ है। यानी भ्रष्टाचार कम हुआ है। चीन के विकास के अन्य आंकड़े हमें हमेशा शर्मिंदा करते रहे हैं। एक गैरसरकारी संस्थान ने कुछ माह पहले अपने अध्ययन में पाया कि एक औसत ग्रामीण राशन, स्वास्थ्य, शिक्षा और जलापूर्ति जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए औसतन 164 रुपये घूस हर साल देता है। यानी हर एक ग्रामीण परिवार से लगभग एक हजार रुपये सालाना। अध्ययन में ये भी पता लगा कि सबसे ज्यादा घूस बगैर कागज के फर्जी बीपीएल कार्ड बनाने के मद में जा रहा है। लेकिन यह वह भ्रष्टाचार नहीं जो देश को खा रहा है। असल भ्रष्टाचार गरीब या विकास के नाम पर बहने वाले फंड को लेकर है जो हमारे बजट का बड़ा हिस्सा है।
बात उन दिनों की है, जब अन्ना आंदोलन उठाया जा रहा था। उस समय कुछ विशेषज्ञ संस्थाएं और स्वयंसेवी संस्थाएं भ्रष्टाचार के अकादमिक पहलू पर भी विचार-विमर्श करवा रही थीं। दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में भ्रष्टाचार पर नेशनल कॉन्फ्रेंस हुई थी। इसमें एक सत्र 'भ्रष्टाचार का अपराधशास्त्र' था। इसमें देश के चार प्रशिक्षित अपराधशाास्त्रियों ने शोधपरक व्याख्यान दिए थे। एक व्याख्यान में आपराधिक व्यवहार के दूसरे नियम की व्याख्या थी। गणितीय रूप में इस नियम के मुताबिक भ्रष्टाचार तीन कारकों से संबध रखता है। पहला मनोवृत्ति, दूसरा परिस्थितियां (सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक) और तीसरा प्रतिरोध, यानी कानून या दंड का प्रावधान। इस विशेषज्ञ व्याख्यान का निष्कर्ष यह था कि भ्रष्टाचार के मामले में कानूनी उपाय का प्रभाव बहुत कम है। सबसे ज्यादा कारगर सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक परिस्थितियां है। एक रोचक वाक्य कहा गया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी कड़े कानून को ज्यादा कारगर समझना वैसा टोटका होगा, जैसे ग्यारह उड़द के दाने लाल कपड़े में बांधकर पीपल के पेड़ के नीचे गाडऩा। यहां यह बात दर्ज करना भी ठीक रहेगा कि जिस नेशनल कॉन्फ्रेंस में ये अपराधशास्त्री व्याख्यान दे रहे थे, उस आयोजन की सह-प्रायोजक यही ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल थी, जिसके निकाले भ्रष्टाचार सूचकांक की चर्चा आज पूरी दुनिया में हो रही है।
168 देशों में भ्रष्टाचार की मौजूदा स्थिति पर टीआई की वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट के बाद क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि देश के विषय विशेषज्ञ एक बार फिर मिल-बैठकर भ्रष्टाचार के खिलाफ साढ़े चार साल पहले हुए आंदोलन की समीक्षा कर लें। 16-17 जुलाई, 2011 को भ्रष्टाचार पर उस नेशनल कॉन्फ्रेंस के आयोजक जनसतर्कता आयोग, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान के प्रशिक्षित विशेषज्ञ और पूर्व छात्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्वान, समाजशास्त्र और सामाजिक कार्य के वही विशेषज्ञ आज भी स्वस्थ, सक्रिय और उपलब्ध हैं। तब तो देश को रातोंरात भ्रष्टाचार से मुक्त कर देने का जोश ज्यादा था, सो, विशेषज्ञों की बात को गौर से सुना नहीं जा पाया, लेकिन आज राजनीतिक माहौल ठंडा है, यानी भ्रष्टाचार पर गंभीर विमर्श के लिए मौसम माकूल भी है।
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देश में भ्रष्टाचार की स्थिति जस की तस?
Reviewed by rainbownewsexpress
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2:01:00 pm
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