-के.पी. सिंह/ फ़तेहपुर जिले के धाता ब्लॉक के गाँव नरसिंघपुर कबरहा गाँव में उसी शिवहरे राम जानकी मंदिर में यू पी और एम पी के मोस्ट वांटेड डकैत सरगना ददुआ की पत्नी सहित मूर्ति स्थापित कर दी गयी है जिसका निर्माण खुद ददुआ ने अपने जिंदा रहते पूरे धूम धड़ाके के साथ कराया था। मूर्ति पूजक समाज में सिर्फ आलोकिक ईश्वर की प्रतिमाएँ नहीं बनती साथ साथ में लोग अपने अपने लौकिक मसीहाओं को भी उनकी मूर्ति बनाकर ईश्वर का दर्जा देने से नहीं हिचकते जिससे विवाद होना लाज़मी है। हाल में बॉलीवुड के स्वयंभू मिलेनियम स्टार अमिताभ बच्चन से लेकर क्रिकेट के तथाकथित भगवान सचिन तेंदुलकर तक की प्रतिमाएँ स्थापित हुईं हैं तो सोनिया गांधी से लेकर मुलायम सिंह तक की भी। उधर लोगों ने मलखान सिंह और फूलन देवी की प्रतिमाएँ भी पहले ही स्थापित की हैं जबकि यह लोग भी पुलिस रेकॉर्ड में बतौर कुख्यात डकैत दर्ज रहे हैं।
इसी कड़ी में ददुआ की प्रतिमा की स्थापना का मामला भी जुड़ गया है। तमाम लोग ऐसे हैं जिन्हे कानून और पुलिस डकैत घोषित करती रही पर समाज का एक बड़ा तबका उन्हे अपने उद्धारक के रूप में पूजता रहा। इनमे बीरप्पन और ददुआ जैसे सरगना अग्रणी हैं। वैसे तो देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारियों को भी अंगेज़ पुलिस ने डकैत और आतंकवादी जैसे दुर्नाम खिताबों से नवाज़ रक्खा था। विडंवना यह है कि भगत सिंह तो आजाद भारत में भी बदस्तूर आतंकवादी दर्ज हैं। कोई कानून इतना विराट नहीं है जिसमे समाज के जज़्बातों का पूरा समंदर समा सकता हो इसीलिये कानून के सापेक्ष अपवाद सामने आते रहते हैं और मानव जनित विधि व्यवस्था की बेवसी तथा सीमाओ को उजागर करते रहते हैं। कई पहलू हैं जिनके बरक्स इस मुद्दे पर व्यापक चिंतन की गुंजाइश है।
मूर्ति पूजा को ही लें। किसी भी धर्म के आरंभिक स्वरूप में जब तात्विक पहलुओं का बोलवाला था उस समय मूर्ति पूजा की अवधारणा नहीं जन्मी थी। हिंदुओं में भी वैदिक युग के प्रारंभ में मूर्ति पूजा नहीं थी। हिंदुओं ने धरम को सबसे पहले कृतज्ञता की भावना के रूप में पहचाना। जो हमें कुछ दे उसकी वंदना के रूप में यहाँ धर्म की शुरुआत हुई। नदियाँ पानी देती हैं तो उनकी वंदना से जुड़ी ऋचाएँ, वृक्ष फल देते हैं तो उनकी वंदना से जुड़ी ऋचाएँ और प्रकृति की सारी उन शक्तियों की अभ्यर्थना जिनका हमारे जीवन पर उपकार है यह धर्म का शुरुआती स्वरूप जो शायद आज भी मौंजू है । हालाकि यूज़ एंड थ्रो के इस युग में व्यावहारिक तौर पर सिद्धि का सबसे बड़ा मंत्र एहसान फरामोशी है जिससे कलेजे की मजबूती नापने का चलन हो गया है। कमजोर कलेजे वाले इस दुनिया में किसी काम के नहीं हैं। कहने की जरूरत नहीं कि धरम का मूल आज लतियाने की हालत में है। बहरहाल चर्चा कर रहे थे धरम के इतिहास की। दार्शनिक गूढ़ता के अपच धर्म को सर्व साधारण के लिए सुलभ बनाने की दृष्टि के आविष्कार की उत्पत्ति बनी मूर्ति पूजा। आरंभ में यह धरम का सकारात्मक विकास था लेकिन बाद में पुरोहितों की मदद से सामंतों ने इसे हाइजैक कर लिया। वे अपनी और अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ व मंदिर बनवाकर ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। इंतिहा तो तब हुई जब कुछ व्यभचारी सामंतों ने अश्लील मुद्रा में अपनी मूर्तियों के मंदिर बनवा दिये। समाज की नैतिकता इसे सहन नहीं कर सकी नतीजतन निराकार ईश पूजा पर बल देने वाले नए धर्मों की उत्पत्ति हुई। मूल बात उसूलों की है इसमे धर्म को खरा होना चाहिए फिर भले ही वह मूर्तिपूजक धर्म हो या निराकार अवलंबी। इसके बाबजूद मूर्ति पूजा में दुरुपयोग की गुंजाइश को खतम करने के लिए धरम के इस स्वरूप के अनुयायियों को इतिहास से सबक लेते हुए निरोधक व्यवस्थाएं करनी चाहिए।
शिवकुमार पटेल ददुआ का असली नाम था। जब वह डकैत बना तो वर्ण व्यवस्था जनित भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ उसके समाज में अर्जक संघ जैसी क्रांतिकारी सुगबुगाहटें शुरू हो गयीं थीं। इन अभिव्यक्तियों का ही एक रूप था ददुआ का उदय। उसकी आपराधिक गतिविधियों में सामाजिक विद्रोह का पुट होने के चलते उसे अपने समाज का मसीहा बना दिया। पहले बांदा जिले को सी पी आई का और इसके बाद ब.स.पा. का गढ़ बनाने में ददुआ का बड़ा योगदान रहा। बिडंबना यह है कि बाद में वही ब स पा उसके अंत का कारण बनी इसीलिये एक वर्ग कि श्रद्धा ददुआ में जुड़ी होना स्वभाविक है। जब तक सामाजिक भेदभाव ख़त्म करके कानून का शासन वास्तविक तौर पर देश में कायम नहीं किया जाता तब तक ददुआ जैसों के मंदिर बनने के अपकर्म जारी रहेंगे।
मूर्ति पूजा को ही लें। किसी भी धर्म के आरंभिक स्वरूप में जब तात्विक पहलुओं का बोलवाला था उस समय मूर्ति पूजा की अवधारणा नहीं जन्मी थी। हिंदुओं में भी वैदिक युग के प्रारंभ में मूर्ति पूजा नहीं थी। हिंदुओं ने धरम को सबसे पहले कृतज्ञता की भावना के रूप में पहचाना। जो हमें कुछ दे उसकी वंदना के रूप में यहाँ धर्म की शुरुआत हुई। नदियाँ पानी देती हैं तो उनकी वंदना से जुड़ी ऋचाएँ, वृक्ष फल देते हैं तो उनकी वंदना से जुड़ी ऋचाएँ और प्रकृति की सारी उन शक्तियों की अभ्यर्थना जिनका हमारे जीवन पर उपकार है यह धर्म का शुरुआती स्वरूप जो शायद आज भी मौंजू है । हालाकि यूज़ एंड थ्रो के इस युग में व्यावहारिक तौर पर सिद्धि का सबसे बड़ा मंत्र एहसान फरामोशी है जिससे कलेजे की मजबूती नापने का चलन हो गया है। कमजोर कलेजे वाले इस दुनिया में किसी काम के नहीं हैं। कहने की जरूरत नहीं कि धरम का मूल आज लतियाने की हालत में है। बहरहाल चर्चा कर रहे थे धरम के इतिहास की। दार्शनिक गूढ़ता के अपच धर्म को सर्व साधारण के लिए सुलभ बनाने की दृष्टि के आविष्कार की उत्पत्ति बनी मूर्ति पूजा। आरंभ में यह धरम का सकारात्मक विकास था लेकिन बाद में पुरोहितों की मदद से सामंतों ने इसे हाइजैक कर लिया। वे अपनी और अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ व मंदिर बनवाकर ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित होने लगे। इंतिहा तो तब हुई जब कुछ व्यभचारी सामंतों ने अश्लील मुद्रा में अपनी मूर्तियों के मंदिर बनवा दिये। समाज की नैतिकता इसे सहन नहीं कर सकी नतीजतन निराकार ईश पूजा पर बल देने वाले नए धर्मों की उत्पत्ति हुई। मूल बात उसूलों की है इसमे धर्म को खरा होना चाहिए फिर भले ही वह मूर्तिपूजक धर्म हो या निराकार अवलंबी। इसके बाबजूद मूर्ति पूजा में दुरुपयोग की गुंजाइश को खतम करने के लिए धरम के इस स्वरूप के अनुयायियों को इतिहास से सबक लेते हुए निरोधक व्यवस्थाएं करनी चाहिए।
शिवकुमार पटेल ददुआ का असली नाम था। जब वह डकैत बना तो वर्ण व्यवस्था जनित भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ उसके समाज में अर्जक संघ जैसी क्रांतिकारी सुगबुगाहटें शुरू हो गयीं थीं। इन अभिव्यक्तियों का ही एक रूप था ददुआ का उदय। उसकी आपराधिक गतिविधियों में सामाजिक विद्रोह का पुट होने के चलते उसे अपने समाज का मसीहा बना दिया। पहले बांदा जिले को सी पी आई का और इसके बाद ब.स.पा. का गढ़ बनाने में ददुआ का बड़ा योगदान रहा। बिडंबना यह है कि बाद में वही ब स पा उसके अंत का कारण बनी इसीलिये एक वर्ग कि श्रद्धा ददुआ में जुड़ी होना स्वभाविक है। जब तक सामाजिक भेदभाव ख़त्म करके कानून का शासन वास्तविक तौर पर देश में कायम नहीं किया जाता तब तक ददुआ जैसों के मंदिर बनने के अपकर्म जारी रहेंगे।
-के.पी. सिंह, उरई जालौन (उ.प्र.)
ददुआ की मूर्ति पूजा
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