विपरीत ध्रुव पर भटकता भारतीय समाज

के.पी. सिंह/ किसी समाज की शिक्षा प्रणाली उसकी मूल प्रवृत्ति के अनुरूप होना चाहिये। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है ? स्पष्ट रूप से इसका उत्तर नहीं में होगा। प्रश्न यह भी उठता है कि भारतीय समाज की शिक्षा के सम्बन्ध में मूल प्रवृत्ति क्या है और शिक्षा सम्बन्धी जितनी प्रवृत्तियां विश्व समाज में व्यवहारिक रूप से चिन्हित हुई हैं। इस मामले में कम से कम दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां आसानी से श्रेणीकृत की जा सकती हैं। भारतीय समाज में वेद, उपनिषद और स्मृतियों के रूप में उस समय कालजयी तौर पर श्रेष्ठ दार्शनिक धरोहरें तैयार की गयीं जबकि दुनिया के दूसरे भागों में सभ्यता का संस्पर्श भी नहीं हुआ था। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दार्शनिक चिंतन में नये क्षितिजों तक पहुंचना भारतीयों के डीएनए में है लेकिन भौतिकता से भारतीयों का सदैव परहेज रहा है। जिसमें अधिक संलिप्त होने पर उन्हें अपनी शुद्धता और पवित्रता के प्रभावित होने का अचेतन भय रहता है। ब्रह्म्ïा सत्यम् जगत मिथ्या के रूप में इसकी अतिरेकपूर्ण अभिव्यक्ति उक्त निष्कर्ष को पुष्ट करती है।
अपनी इन्हीं जानी, अनजानी वर्जनाओं की वजह से दुनियावी वैज्ञानिक आविष्कारों में भारतीय कोई बड़े झंडे नहीं गाड़ सके। दूसरी ओर पश्चिम की प्रवृत्ति मूल रूप से भौतिक लक्ष्यों को हासिल करने की रही है। राजनीतिक से लेकर आर्थिक उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और जीवन को ऐश्वर्यपूर्ण बनाने के लिये वैज्ञानिक आविष्कारों में प्रवीणता दिखाकर वे इसकी पूर्ति करते रहे हैं। भारत भी लम्बे समय तक उनका उपनिवेश रहा है। जब पश्चिमी समाज को लगा कि भारत जैसे विशाल देश को राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर सीधे संचालित करना महंगा सौदा साबित हो रहा है तो उन्होंने इसे तथाकथित रूप से स्वतंत्र कर दिया पर इस व्यवस्था के साथ के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक तौर पर वह सदैव उनसे निर्देशित रहकर उनके हितों की पूर्ति करता रहे। भारत में आयातित शिक्षा प्रणाली उनकी इसी रणनीति का परिणाम है।
जिसे आधुनिक शिक्षा का नाम दिया जा रहा है उसमें रति के चरम का भारतीय कर्ता धर्ताओं का आलम यह है कि यहां उच्च शिक्षा में सामाजिक विज्ञान के विषयों की पढ़ाई से लगभग नाता तोड़ लिया गया है। आठवीं कक्षा में श्रेष्ठतम प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों के अभिभावक नवीं क्लास से ही उन्हें आईआईटी और आईआईएम की परीक्षा में सफल होने के लिये जोत डालते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत की इंटेलीजेंसिया को इसकी मूल प्रवृत्ति में अग्रसर होने का अवसर प्रदान करने की बजाय यह शिक्षा प्रणाली उसकी ज्ञान पिपाशा के स्वाभाविक रूप से अनन्त क्षितिज को भौतिक लक्ष्यों की कारा में कैद करके देश के साथ भीषण अन्याय कर रही है।
आईआईटी और आईआईएम से निकले छात्रों ने विलक्षण प्रतिभा की वजह से विश्व पटल पर अपनी धाक तो जमाई है जिसकी ताजा मिसाल गूगल के सीईओ के रूप में सुंदर पिचाई की नियुक्ति है। सच का एक पहलू यह है लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि कोई भारतीय सुंदर पिचाई गूगल जैसे उद्यम का क्रिएटर नहीं बन सका। यह बात इसलिये कहनी पड़ रही है कि सुंदर पिचाई के सम्बन्ध में यह हवाला दिया गया है कि वे दुनिया के किसी भी सीईओ से बहुत ज्यादा आय वाली शख्सियत हैं। इसमें उन्हें दिये गये शेयर का पूर्ण मालिकाना उनको हस्तांतरित होने के बाद उनकी खरबों की हैसियत आंकी गयी है लेकिन साथ में यह भी बताया गया है कि फिर भी वे गूगल का क्रिएशन करने वाले उसके अमेरिकी मूल मालिकों से हैसियत में बहुत कमतर होंगे। अमेरिका की सिलिकान वैली जो कि साफ्टवेयर इंजीनियरों की बस्ती है। उसमें सबसे ज्यादा संख्या भारतीय इंजीनियरों की है लेकिन उनमें से कोई फेसबुक और व्हाट्सएप जैसा उद्यम खड़ा नहीं कर पाया। जिसमें इतनी अपार दौलत बरसी कि कोई कल्पना नहीं कर सकता था। यानि भारतीय किसी उद्यम को चला तो बहुत अच्छा सकते हैं लेकिन उसके सृजनकर्ता नहीं हो सकते। वजह साफ है कि मूल प्रवृत्ति के अनुरूप न होने और बोझिल व यांत्रिक शिक्षा व्यवस्था के संत्रास में उलझकर भारतीय प्राकृतिक शक्तियों और सक्षमता को गंवा देने के लिये अभिशप्त हुए हैं। जिससे उनके द्वारा कोई मौलिक देन दुनिया के लिये संभव नहीं हो पा रही है।
विडम्बना यह है कि जिस देश में आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष को ही सर्वोच्च सुख के रूप में परिभाषित किया गया हो वह देश भी अंधी भौतिक पिपाशा के दुष्चक्र में उलझने से अपने को नहीं रोक सका जबकि यह पिपाशा समाज को पतनोन्मुखी बना देती है। जो कई संकटों का कारण बन जाती है। मुस्लिम विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर अपने एकाधिकार के लिये मुनाफाखोर पश्चिमी समाज द्वारा अतीत से लेकर अभी तक की गयी तिकड़मों के अपशिष्ट के रूप में इस्लामी आतंकवाद का विस्फोटक स्वरूप देखकर पूरा विश्व समुदाय आज त्रस्त हो रहा है। इस आतंकवाद की विनाशकारी क्षमता को पश्चिमी समाज के अत्यंत मारक हथियार ही खाद पानी देने का काम कर रहे हैं। यानि आतंकवाद के रूप में पश्चिमी समाज के लिये भस्मासुर का मिथक चरितार्थ हो रहा है। दूसरी ओर प्राकृतिक आपदायें और अवश्यंभावी तौर पर जीवन को नष्ट करने वाली नई-नई बीमारियों की उत्पत्ति भी भोग पिपाशा की धमाचौकड़ी का ही नतीजा है। पर्यावरण का इतना सत्यानाश हो चुका है कि अब उसमें सुधार के किसी भी कर्मकांड से स्थिति संभलने वाली नहीं है। ऐसे में जरूरत है राजनीति से लेकर अर्थनीति तक वैकल्पिक दिशाबोध की। जो केवल भारत द्वारा ही विश्व समाज को कराया जाना संभव है। बशर्ते वह शिक्षा व्यवस्था और सांस्कृतिक तौर पर अपने मूल की ओर लौटे।
-के.पी. सिंह, उरई, जालौन (उ.प्र.)

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