पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष तक लगातार सत्ता में बने रहने का ख़्ाामियाजा वाममोर्चा को स्वाभाविक रूप से भुगतना पड़ा और उसे सत्ता से बेदख़्ाल होना पड़ा। हालांकि तृणमूल कांग्रेस नीत राज्य सरकार के साढ़े चार साल के शासन काल ने वाममोर्चा और ख़्ाास तौर पर माकपा नेतृत्व को सत्ता तक पहुंचने के लिए बेशक उत्साहित तो किया है लेकिन माकपा के भीतर का विचारधारात्मक संकट उसकी राह में रोड़ा बन रहा है। यह कोई कल्पनाप्रसूत तथ्य नहीं है बल्कि पिछले दिनों कोलकाता में आयोजित स्वयं पार्टी - प्लेनम में चर्चा का विषय रहा। इन चार से साढ़े चार वर्ष के दौरान जन आंदोलनों के तमाम असरदार अवसर आने के बावजूद माकपा नेतृत्व उनका अपेक्षित राजनैतिक लाभ नहीं उठा सका। कारण कि उसका जो मज़बूत जनाधार निमÝ मध्य वर्ग और युवा वर्ग में था वह अब सत्तासीन अन्य दलों क ी ओर खिसक रहा है।
नब्बे के दशक में वित्तीय संकट से उबरने के लिए भारत सहित विश्व के समाजवादी देश रूस, चीन और वियतनाम तक को बाजारवाद का सहारा लेना पड़ा। ज़ाहिर है मरणासन्न पूंजीवाद को नया जीवन मिला। उसे भारत और चीन जैसे दो वृहद बाजार मिल गये थ्ो। ऐसा नहीं है कि इसका न्यूनतम लाभ इन विकासशील देशों को नहीं मिला। औद्योगिक व वाणिज्यिक विकास ने मध्य व निमÝ मध्यम वर्ग के सामने उन्नत जीवनश्ौली के कतिपय द्बार खोल दिये। उनके सपनों ने पर पसारने शुरू किये। अर्थात् गरीबी व अमीरी के बीच व्यवस्थाजन्य जो खाई है, वाममोर्चा नीत सरकार उसे नहीं पाट सकी। दरअसल वर्तमान संसदीय गणतंत्र की परिधि में खाई को पूरी तरह पाटना यह किसी के लिए संभव नहीं है। जबकि मरणासन्न पूंजीवाद की एक ख़्ाास विकास-धारा ने जनमानस में एक उम्मीद जगाई थी। महंगे बंगलों में रहने की बात हो या फिर चौपहिया वाहनों की उपलब्धता, दरअसल निमÝ मध्यम वर्ग को उसने खूब भरमाया व लुभाया था। और जो दूसरा अहम् कारण था वह यह कि अर्से से सत्ता-सियासत की राजनीति ने माकपा-संगठन के विभिन्न स्तरों तथा मोर्चा के भीतर एक वैचारिक संकट उत्पन्न कर दिया था। ज़ाहिर है कालिख की कोठरी में लंबे समय तक असावधान होकर रहने के कारण माकपा तथा फं्र ट का दामन दाग़दार हुआ। जिसका यथ्ोष्ट लाभ विरोधी दलों ने उठाया। परिणामत: वामपंथी दलों से लोग विमुख होते चले गये। जाहिर है कम्युनिस्ट आंदोलन उन्हीं राज्यों और इलाकों में ज़्यादा फला-फूला जहां गरीबी, पिछड़ापन और अशिक्षा का बोलबाला था। वैश्वीकरण की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती गयी वैसे-वैसे निमÝ-मध्यम व युवा वर्ग का जुड़ाव वामपंथ से कम होता गया। वामपंथ की त्याग व सादगी की विचारधारा एक तो युवा पीढ़ी को रास नहीं आ रही है और दूसरे वाममोर्चा के घटक दलों के नेताओं की विलासप्रियता भी छिपी नहीं रही। पूंजीपतियों और व्यवसायी वर्ग के साथ इनके नेताओं का घनिष्ठ संबंध जनता के सामने उजागर हो चुका था। भले ही इसे क़ानून के आवरण में छिपाने की लाख कोशिशें हुई हों। इन नेताओं का सार्वजनिक व नैतिक आचारण भी अनुकरणीय नहीं रहा। नेतागण जिस महत आदर्श व दर्शन की बात अपने भाषणों में किया करते हैं दरअसल उनके व्यक्तिगत जीवन में उसका प्रतिफलन देखने को नहीं मिलता। ज़ाहिर है वामपंथ के प्रति जनदुराव का यह भी एक कारण रहा।
ऐसा भी नहीं है कि वर्तमान पंूजीवादी व्यवस्था में शोषण कम हो। आकाश छूती हुई महंगाई और श्रमिक-कर्मचारियों की तेज़ी से घट रही वास्तविक आय ने निमÝ-मध्यम वर्ग को एक नयी महाजनी व्यवस्था का गुलाम बना दिया है। पहले के निजी सूदखोरों की जगह सरकारी व प्राइवेट बैंकों ने ले ली है। आज खुद सरकारी कर्मचारी जो कभी श्रमजीवी वर्ग कहलाता था आज सुविधाभोगी सामंतों की श्रेणी में तब्दील हो चुका है। ये वर्ग प्रखर समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया के शब्दों में नूतन वर्ग में तब्दील हो गये हैं। यह अकारण नहीं है कि सुविधावादी यह वर्ग माकपा का पुरजोर समर्थक और झण्डाबरदार था। लेकिन इस वर्ग की नयी पीढ़ी भी अपनी पुरानी भूमिका की जगह अब नयी भूमिका में आना चाहती है। स्मार्ट फोन और इंटरनेट की दुनिया ने इस युवा पीढ़ी के सामने अवसर के असीम द्बार खोल दिए हैं। साम्यवाद के महत आदर्श की जगह आधुनिक बाज़ार प्रदत्त सुख को हासिल करने का ठोस यथार्थ उसके सामने है तो वह संघर्ष व आंदोलनों की चौखट क्यों लांघे?
हालांकि यह कहना भी गलत होगा कि साम्यवादी आंदोलन अपने अंत की ओर है। योरोप, अफ्रीका व लैटिन अमेरिकी देशों में इस आंदोलन ने नये रूपों में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। लेकिन भारत के कम्युनिस्ट तो अपने जन्मकाल से ही कतिपय कमजोरियों के शिकार रहे हैं। कांग्रेस के प्रति इनके मिलनात्मक संबंंध जग ज़ाहिर है। देश की प्रकृत समस्याओं को समझने में भी इन्होंने अतीत में कतिपय गलतियां कीं। और साथ ही वैचारिक दृढ़ता की कमी भी एक कारण रहा। समय-समय पर विदेशी कॉमरेडों पर इनकी निर्भरता भी प्रकट होती रही। इनमें मौलिक चिंतन व उस सृजनशील प्रयोगों की आदत नहीं रही जिसने रूस, चीन और वियतनाम के नेताओं को सफल क्रांति की तरफ़ उन्मुख किया था। ज़ाहिर है कि पंचसितारा होटलों और वातानुकूलित फ्लैटों में रहकर क्रांतिकारी सृजनशीलता की हम उम्मीद नहीं कर सकते। वी.आई. लेनिन, माओत् सेतुंग व हो चि मिन्ह ने पूरी जिंदगी क्रांतिकारी सृजनशीलता की महता के लिए समझौता जीन लड़ाई की। उन्हें अपने देश की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों की पहचान तो थी ही। साथ ही सर्वहारा वर्ग के साथ उनके जीवन की एकरूपता ने उन्हें सृजनशील चिंतन के लिए हमेशा प्रेरित किया। वह सृजनशीलता राइटर्स बिल्डिंग या अलीमुद्दीन स्ट्रीट के दफ्तर में कहां पनप सकती थी! कॉमरेड लेनिन ने कहा ही है; ''क्रांति कोई टी पार्टी या भोज नहीं। वह तो एक तूफ़ान है जो हमें मुसीबतों और हर तरह के संकटों से जूझने की ताक़त देती है।’’ अतीत की गलतियों से आदमी सीखता है और फिर संभल कर आगे की राह तय करता है। माकपा राज्य नेतृत्व ही नहीं बल्कि केंद्रीय नेतृत्व तथा पोलिट ब्यूरो इस संबंध में अपनी वैचारिक दृढ़ता और दूरदर्शिता क्या दिखा पायेगा? ...
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह
संपादक: आपका तिस्ता-हिमालय
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दिग्भ्रमित नेतृत्व या विचारधारा का अन्तर्द्बन्द्ब
Reviewed by rainbownewsexpress
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9:23:00 pm
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1 टिप्पणी:
good..........
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