कश्मीर से कब रुकेगा पंड़ितों का पलायन

प्रभुनाथ शुक्ल/ कश्मीर और घाटी में लोगों का भरोसा जीतने बजाय राजनीति की जा रही है। देश द्रोहियों को सियासतदा खाद-पानी दे रहे हैं। आतंकवाद को नायक बना पेश किया जा रहा है। इन सबके पीछे सिर्फ बस सिर्फ वोट की राजनीति है। कश्मीर कभी बैलेट बाक्स की राजनीति से बाहर नहीं आया। वहां के स्थानीय राजनीतिक दलों सत्ता से बेदखल होते ही राजनीति की भाषा बदल जाती है वह चाहे पीडीपी हो या नेशनल कांफ्रेंस। क्योंकि उन्हें घाटी में वोट की राजनीति करनी है। वोट की राजनीति वहां अल्पसंख्यकों के बल पर ही की जा सकती है। जबकि कश्मीरी पंड़ितों को वहां से पत्थर मार-मार भगा दिया गया है। कश्मीर पर दिल्ली का नजरिया उन्हें नहीं भाता। यह उनकी भूल और सोच का फर्क है। 
दिल्ली बंदूक के बल पर कश्मीर को शांत नहीं करना चाहती, लेकिन वहां के अलगाववादी और पाकिस्तान यहीं यहीं चाहता है कि भारत कश्मीर में सेना का अधिक से अधिक इस्तेमाल करे और आम कश्मीरी उसका निशाना बने जिससे लोगों को सेना और दिल्ली सरकार के खिलाफ भड़काया जाय और यहीं हो रहा है। आतंकी बुरहान वानी की मौत पर राज्य के पूर्व सीएम उमर ने जिस तरह का उसकावे वाला बयान दिया वह किसी से छुपा नहीं है। राजनेता और अलगाववादी सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ने का काम कर रहे हैं। इसके लिए आम पब्लिक को भड़काया जा रहा है। मुठभेंड में मारे गए हिजबुल कमांडर बुरहानबानी को घाटी का हीरो बताया गया। उसके जनाने में दो लाख से अधिक भीड़ कहां से जमा हो गयी। 
यह किसकी ढिल का नजीता था दिल्ली या कश्मीर की सरकार का। बयानबाजी के इस महाभारत में राज्य की सीएम महबूबा भी पीछे नहीं दिखी। उनका बयान हैरान करने वाला था। जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि उन्हें तीन उग्रवादियों के छिपे होने का शक हुआ। उन्हें मालूम था कि वे कौन हैं। अगर मुझे उनके बारे में जानकारी मिलती, तो मैं उसे एक मौका देती‘‘ उनकी यह सहानूभूति वानी के प्रति दिखी। मोहतरमा की इस हमदर्दी के पीछे का आखिर राज क्या था यह भी किसी से छुपा नहीं है। बयान के बाद जब देश भर में उनकी आलोचना होने लगी। मीडिया पर पैनल बहस शुरु हो गयी। 
भाजपा, कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों ने जब घेरा तो वे बुरे फंस गयी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह की तरफ से इस पर कड़ा एतराज जताने के बाद मैडम की नींद खुली तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और सफाई में अपनी बात कुछ यूं रखी ‘‘मैं यह कहना चाहती हूं कि अगर पता होता की बुरहान वानी वहां है तो एक फीसदी चांस था कि सुरक्षा बल उसे नहीं मारते, क्योंकि घाटी में हालात बेहर हो रहे थे‘‘ किस तरह बयान तो तोड़ा गया। सफाई पर आया बयान पहले के बयान से उलट है वह खुद गो-बैक होती दिखती हैं। लेकिन वानी के प्रति उनकी सहानूभूति साफ दिखती है। अच्छी तरह जानती हैं कि राज्य में वह भाजपा गठबंधन की सरकार मंे हैं। इस लिहाज से उसे नाराज करना सरकार और खुद के हित में नहीं होगा। गृहमंत्रालय के दबाब में आखिर उन्हें पलटना पड़ा। क्योंकि उनके इस बयान से भाजपा की भी किरकीरी हो रही थी। राज्य में उसी के समर्थन में महबूबा सरकार चल रही है। 
अतंतः उन्हें सफाई देनी पड़ी हलांकि यह उन्होंने नहीं कहा कि हम पीछले बयान का खंडन करते हैं उनका आरोप रहा कि हमारे बयान को गलत पेश किया गया। कश्मीर पर इस तरह के बयान हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं। कम से कम राष्टीय अस्मिता और सुरक्षा के सवाल पर हमें राजनीति से बाज आना चाहिए। वानी पर जितनी आत्मीयता जतायी गयी काश कश्मीरी पंड़ितों के साथ यह न्याय किया जाता। जहां पंड़ितों पर पत्थर मारे गए उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर किया गया। बुरहान की मौत के बाद घाटी में भड़की हिंसा में जहां 47 लोगों की मौत हो चुकी है। वहीं 3,000 सुरक्षा कर्मियों के साथ 55,00 लोग घायल हुए हैं। दूसरी तरफ पंड़ितों को पलायन के लिए मजबूर किया गया। 1990 में पांच लाख से अधिक कश्मीरी पंड़ित पलायन कर चुके हैं। हाल मंें चल रही घाटी की हिंसा में पुलवामा से पुनः पंड़ितों का पालायन हुआ। 
400 से अधिक परिवार पलायित हुए। यह वे परिवार हैं जो नब्बे के दशक में भी नहीं पलायित हुए थे लेकिन घाटी में भड़की हिंसा में उन्हें पलायित होना पड़ा। लोगों ने उनके घरों को निशाना बनाया पत्थर डाले गए पंड़ितों के खिलाफ नरारेबाजी की गयी। आखिरकार मजबूर पंिड़तों ने घाटी छोड़ दिया। हाल की कालोनियों में जो लोग बसाए गए उनके लिए अपना ही वतन बेगाना हो चला। पंड़ित आज जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर है। 40 हजार पंड़ित जम्मू और 20 हजार से अधिक लोग दिल्ली के शिविरों में रह रहें हैं। इस समस्या पर क्यों आंसू नहीं बहाए जाते उन्हें क्यों नहीं गले गलाया जाता। उनकी कालोनियों का विरोध क्यों किया जा रहा है। एक आतंकवादी की मौत पर अलगाववादी और पाकिस्तान शीर्षासन कर रहा है जबकि पंड़ितों का की पीड़ा उन्हें नहीं दिख रही है।
यह आतंकवाद और अलगाववाद का दोहरा चेहरा है। शाह गिलानी दिवालों पर इंडिया गो बैक के नारे लिख रहा है। पाकिस्तान और कश्मीर में सार्क सम्मेलन में गृहमंत्री राजनाथ सिंह के शामिल होने पर हाफीज सईद वहां के राजनीतिक दलों के साथ मीटिंग कर रहा है और उन्हें रोकने की पाकिस्तान सरकार को सीधे चेतावनी दे रहा है। दूसरी तरफ रविवार को बानी की मौत के खिलाफ श्रीनगर में उसके पिता की तरफ से बुलायी गयी रैली में जहां लश्कर-ए-तैयबा का टाप लीडर अबु दुजाना पहुंख वहीं पाकिस्तान में आतंक का सरगना सलाउद्दीन शामिल हुआ। मीडिया की मौजूदगी में भारत के खिलाफ आग उगली गयी। इसमें कई संगठन एक मंच पर दिखे। पुलवामा में आतंकियों ने इस तरह की खुली रैली कैसे किया। 
यह सरकार की नीति और नीयति में खोट पैदा करता है। दुनिया क्या यह सब नहीं देख रही है। फिर पाक प्रायोजित आतंक पर चुप्पी क्यों साध रखी गयी है। अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ क्यों दोहरी चाल चलता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शरीफ की सराफत गलीज हो चली है। एक आतंकवादी को शहीद बताया जा रहा है। पाक में ब्लैक डे मनाया जा रहा है। यह सब क्यों। सवाल है कि घाटी और कश्मीर में अमन कैसे लौटेगा। वादियों में खुशहाली कैसे आएगी। शिकारा में पर्यटक कब बेखौफ  घूमेंगे। आतंकवाद कब और कैसे खत्म होगा। निश्चित रुप से लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए ही इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। लेकिन इसकी शुरुवात कहां से और कैसे होगी। इस बातचीत की अगुवाई पाकिस्तान करेगा। उसमें अलगाववादी शामिल होंगे। 
आम कश्मीरियों से उनकी मन की बात क्या सामने आएगी। यह कोई बताने को तैयार नहीं दिखता है। लोकतांत्रित संस्थाएं जब आतंक और अलगाव की भाषा बोलेंगी, शांति फिर कैसे आएगी। घाटी में तिरंगे को आग के हवाले किया जाएगा। आईएसआई का काला झंडा लहराया जाएगा। सुरक्षाबलों पर हमले किए जाएंगे, पत्थर और हैंडग्रेनेड डाले जाएंगे। भारत विरोधी नारे लगाए जाएंगे। फिर बात कैसे बनेगी। क्या इस तरह से कश्मीर में शांति बहाल हो सकती है, कभी नहीं। आतंकवादी, अलगावावादी और पाकिस्तान की यह नापाक साजिश कभी कामयाब नहीं होगी। कश्मीर भारत का का है और रहेगा। वहां कश्मीरीयत, जम्हूरियत और इंसानियत से अमन चैन लौटेगा। यही हमारी सरकार चाहती है। लेकिन भारत कश्मीर पर किसी भी गलत मंसूबे को कामयाब नहीं होने देगा। यह बात आतंक के आकाआंे को समझ लेनी चाहिए।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं
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