बिलखती आजादी का स्वच्छंद परिंदा...?

-प्रभुनाथ शुक्ल/ 15 अगस्त 2016 को हम आजादी की 70 वीं सालगिरह मानाने जा रहे हैं। लेकिन हमें एक बात बार-बार कचोटती है कि हमने अपनी आजादी के साथ न्याय नहीं किया। हम उसे सहेज नहीं पाए। जिसका नतीजा है कि हम आज अशांति, हिंसा और उग्रवाद, अतिवाद और नक्सली हिंसा का सामना कर रहे हैं। हमने अपनी आजादी को निर्भया बना दिया। हमने ही देश में कुछ अतिवादी विचारधारा की संस्थाएं और लोग उसका चीरहरण कर रहे हैं और हम हाथ पर हाथ रखे उनकी तमाशाबाजी देख रहे हैं। संसद से सड़क तक एक अजीब स्थिति है। हमारे नैतिक मूल्यों के हर क्षेत्र में गिरावट आयी है। भारत आज आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर विषमताओं से जुझ रहा है। यह सब क्यों हो रहा है। हमारे विचार में इसकी एक मूल वजह है हमारी आजादी और उसकी सीमा। यक्ष प्रश्न है कि हमारा अधिकार और हमारी आजादी कहां तक है। यह बात स्वयं में भारत का हर नागरिक जानता है। उसे संविधान और उसके अधिकार बताने की आवश्यकता नहीं है। उसे अच्छी तरह मालूम है कि उसने कहां संविधान और राष्ट और उसकी गरिमा को चोट पहुंचायी है लेकिन इसेक बाद भी वह सब करता है जिसे वह नहीं करना चाहिए। आजादी को किसी दायरे में बांधने जरुरत नहंी है। उसके लिए हमारे संविधान में समुचित व्यवस्था है। वह हमारे संवैधानिक जंजीरों में बांधी भी गयी है। लेकिन संविधान और उसके अनुपालन की जिम्मेदारी जिन हाथों में शायद वे खुद अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं यही हमारी सबसे बड़ी बिड़ंबना है। हमारी वैचारिक स्वतंत्रता कितनी और कहां तक होनी चाहिए। इस पर अब लक्ष्मण रेखा खींचने की आवश्यकता है हलांकि उसकी भी आवश्यकता नहीं है वह तो हमारे संविधान में खींची गयी है लेकिन शायद उसे बताने की जरुरत है कि अब आप हद से अधिक जा रहे हैं। जिसे हम अपनी भाषा में स्वतंत्रता का अतिरेक या अतिक्रमण कहते हैं। हमारी स्वतंत्रता का अधिकार किस हद तक है इस पर कभी हमने गौर नहीं किया। हमें लगता है कि आजादी के अर्थ को हमने कभी पढ़ने और समझने की कोशिश नहीं करी। अजादी की शाब्दिक सत्ता से हमने कभी बाहर निकला नहीं चाहा। हमारी आजादी कितनी कब कहां और कैसे ? अब यह जरुरी हो गया है। स्वाधीन भारत में 70 सालों के बाद अब यह महसूस किया जाने लगा है कि वास्तव में हमें आजादी के रुप में स्वाधीनता के बजाय स्वच्छंता मिल गयी। जहां स्वच्छंता होती है वहां बेलौंस और बेलगाम की स्थिति पैदा हो जाती है। जिसे हम नियंत्रण के बाहर की बात करते हैं। हमारी आजादी कहां तक होनी चाहिए इस पर कभी हमने गौर नहीं किया। हम बंदेमातरम् नहीं बोलेंगे। हम राष्टगान नहीं गाएंगे। हम कश्मीर में कालाझंडा लहराएंगे और बुरहानी बानी जैसे आतंकी को शहादत का बादशाह बताएंगे। तिरंगे को आग के हवाले करेंगे। सुरक्षा बलों पर हैंडग्रेनेड और पत्थर से हमला करेंगे। नक्सल प्रभावित इलाकों में हम बेगुनाह सेना की बारुदी सुरेंगे बिछा जान लेंगे। यह सब क्यों ? यह क्या हमारी आजादी का अतिरेक नहीं है। दुनिया का कोई धर्म क्या राष्टधर्म और उसकी गरिमा, अस्मिता और अस्तित्व से बड़ा है। धर्म के निहितार्थ को हमने कभी पढ़ने की कोशिश नहीं की। धर्म को हमने अपने स्वार्थ के लिए ढाल के रुप मे इस्तेमाल किया। जबकि इसका उपयोग हमें राष्टीय उन्नति और उसके विकास में करना चाहिए था। हम भारत में रहते हैं। इसका सम्मान करना हमारा फर्ज है। हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं हैे कि भारत हमारा भाग्य विधाता है। भारत हमें अपनी धार्मिक, मौलिक और वैचारिक स्वाधीनता के साथ अपनी-अपनी सांस्कृति स्वाधीनता के साथ रहने की आजादी देता है। हमारी आवश्यकताओं की यह पूर्ति करता है। हम इसकों मां नहीं कह सकते तो कम से कम गाली देने का हमें अधिकार भी छोड़ना चाहिए। दुनिया के क्या किसी मुल्क में इस तरह की आजादी है कि जिस मुल्क में वहां के लोग रहते हों और उसी का संविधान न मानते हों, वहां के राष्टगीत और गान को न पढ़ने का फरमान जारी करते हों वहां के राष्टीय ध्वज को आग के हवाले हर उस देश के खिलाफ विरोधी नारे लगाते हों। भला ऐसी स्वतंत्रता भारत के शिवाय कहां मिल सकती है। पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा गढ़ने वालों कभी यह सोचा है कि अगर इसी तरह का नारा वे पाकिस्तान में लगाते तो उनकी क्या स्थिति होती। वंदेमातरम् और जन-गण-मन का सस्वर उच्चारण गलत है। इस तरह का कोई धर्म हमें इजाज नहीं देता है। हमारी पहली प्राथमिकता हिंदुस्तन और हिंदुस्तानी हैं। हमारी नजर में हिंदू, मुसलमान, ईसायियत, सिखीयत कोई मायने नहीं रखती है। हम हिंदू हो न हो, मुस्लिम हो या न हो लेकिन हम सबसे पहले भारत और भारतीय हैं। हमारा धर्म भारत हमारा कर्म भारत इसके शिवाय सब बाद में आते हैं। हिंदुस्तान में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों का भाग्यविधाता भारत ही है और कोई नहीं। किसी भी व्यक्ति या संस्था को संविधान में मूल अधिकार प्रदान दिए है। उन अधिकारों के संदर्भ में सभी को अपनी धर्म और संस्कृति के अनुसार आजादी है। लेकिन यह आजादी तभी तक है जब तक राष्ट की गरिमा पर कोई आंच नहीं आए। हमारी धार्मिक स्वतंत्रता अगर हमारी राष्टीय अस्मिता के लिए खतरा बन रही हैे वैसी आजादी हमें नहीं चाहिए। हम ऐसे किसी धर्म की हिमायत नहीं करते हैं जो हमारी राष्टीय भावना और उसके सम्मान और गरिमा पर ठेस पहुंचाए। भारतवासियों के लिए उसका पहला धर्म राष्ट है इसके बाद अपनी धार्मिक स्वच्छंता है। अभी सप्ताह भर पूर्व यूपी के इलाहाबाद से एक स्कूल प्रबंधक की तरफ से राष्टगान पर पाबंदी लगाने का फरमान सुना दिया गया। प्रबंधक को भारत भाग्य विधाता शब्द से एतराज है। उनका कहना है कि जब तक भातर शब्द नहीं हटा दिया जाता स्कूल में राष्टगान नहीं होंने देंगे। यह फरमान उस स्कूल प्रबंधक की तरफ से जारी किया जिसका स्कूल गैर मान्यता के चलाया जा रहा था। अब बताइये इससे बड़ी आजादी और कहां मिल सकती है। यह हुई न स्वच्छंता की बात। भारत शब्द को अगर वे अछूत मानते हैं फिर भारवंशियों के खिलाफ भी कल उनका फरमान आ सकता है। यहां स्कूल की स्थाना के बाद से ही राष्टगान नहीं गाया जा रहा था। 12 साल बीत गए और जिला प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं लगी। जरा सोचिए यह आजाद देश की आजाद विचाराधारा ही है न। भारत मां की जय, वंदेमातरम् और राष्टगान पर कोई यह नया विवाद नहीं है। यहां तक महाराष्ट विधानसभा में भी एक दल के विधायक ने सदन में गलाफाड़ फाड़ कर भारत मां की जय बालने से इनकार किया। उन्होंने कहा हम जयहिंद बालेंगे लेकिन भारत माता की जय नहीं। क्योंकि भारत माता शब्द उनके लिए साम्प्रदायिक लगता है। शायद यह हिंदू व्यवस्था से पोषित शब्द है। व्ंादेमातरम् गीत ने स्वाधीनता संग्राम में अहम भूमिका निभायी। 24 जनवरी 1950 को इसे राष्टीय गीत के रुप में संविधान में शामिल किया गया। इसका प्रारुप स्वयं देश के प्रथम राष्टपति डा. राजेंद्र प्रसाद जी ने पढ़ा था। अगर हम वंदेमातम् पर सवाल उठते हैं तो हमें महान शायर इकबाल की उस भावना का खयाल करना चाहिए ‘‘ सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा....। बंकिमचंद्र चटर्जी वंदेमातरम् ने बंगभंग आंदोलन में अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया था। यह आजादी से लेकर स्वाधीनता संग्राम तक वंदेमातरम् जान से भी प्यारा गीत रहा है। लेकिन आज इस पर वेजह विवाद मचा है। जबकि जन-गण-मन जिसे राष्टगान के रुप में गाया जाता है यह गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर की रचना है। इस स्थिति में हमें राष्टवाद के खिलाफ अलगाववाद की बात करने वालों के खिलाफ एकजुट होना चाहिए। हमें भारत की एकता, अखंडता और उसकी अस्मिता एंव गौरव के लिए सभी मतभेद भूला कर एक मंच पर आना चाहिए। राष्ट नीति पर राजनीति से बाज आना चाहिए। आज कश्मीर और महिला के सुरक्षा के साथ बढ़ता भ्रष्टाचार और आतंरिक अलगावाद सबसे बड़ी समस्या है। आजादी के 70 वीं सालगिरह पर हमें राष्टीय एकता के संकल्प के साथ राष्ट निर्माण और उन्नति में आगे बढ़ना चाहिए। तभी हमारी आजादी का सपना सच होगा।
-प्रभुनाथ शुक्ल
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं 
परिचय : प्रभुनाथ शुक्ल बरिष्ठ स्तम्भकार हैं। समसामयिक विषयों के साथ राजनीति पर उनकी अच्छी पकड़ है। महिला, पर्यावरण और समाजिक समस्याएँ उनके लेखन का विषय हैं। शुक्ल हिन्दुस्तान, स्वतंत्र भारत और जनसंदेश टाइम्स के लिए बतौर भदोही ब्यूरो काम किया है। कई अखबारों के लिए वे नियमित साप्ताहिक कालम लिखते हैं। देश के चर्चित पोर्टल्स पर उनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। Mo-8924005444/7052124090, E-mail- pnshukla6@gmail.com
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2 टिप्‍पणियां:

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 15 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Ananta Sinha ने कहा…

आदरणीय सर,
अत्यंत सटीक और सुंदर वैचारिक लेख।
हाँ , भारत के नागरिक होने के नाते हमारा कर्तव्य है की हम अपनी स्वतंत्रता का सम्मान करें और स्वतंत्रता के नाम पर ऐसा कोई भी कदम न उठाएँ जिस से हमारे देश या समाज को कोई भी क्षति पहुंचे। हमें अपने अधिकार मांगने में इतना अँधा नहीं होना चाहिए की हम अपने कर्तव्य भूल जाएँ. सुंदर व् प्रेरणादायक रचना के लिए ह्रदय से आभार।
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