-डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह/ आज पूरा विश्व ही कमोवेश आतंकवाद की गिरफ़्त में है। दरअसल आतंकवाद का यह अपना ख़्ाूनी दर्शन ही है जो विश्व के लगभग हर भू-भाग में हिंसा का बीभत्स क़हर बरपा रहा। ज़ाहिर है आतंकवाद आज पूरी मानव-सभ्यता के लिए एक बड़ा ख़्ातरा बन चुका है। एक बड़ी चुनौती भी। जिस क़दर यह आज मानवीय मूल्यों को निर्ममता से रौंद रहा, क्या यह बौद्धिक जगत के लिए चिंता का सबब नहीं! आतंकी उन्माद तथा हिंसा को ले हमें अवश्य ही चिंतित होना चाहिए, लेकिन सिर्फ़ हमारी चिंता ही इस समस्या का हल नहीं है। अगर हम वाक़ई समस्या का मुकम्मल समाधान चाहते हैं, आतंकी-हिंसा का समूल ख़्ाात्मा चाहते हैं तो हमें इसके गर्भनाल को निर्ममतापूर्वक काटने की दिशा में सही क़दम उठाना होगा और इसके लिए यह अत्यंत ज़रूरी है कि हम अपने अतीत की उन सड़ी-गली, ग़लीज़ जकड़नों से सर्वप्रथम ख़्ाुद को मुक्त करें। फ़िर सामाजिक-संस्कार को ले समझौताहीन जंग में अग्रसर हों। हमारे विश्वास, हमारी आस्था व हमारे अंधआवेग की जड़ें बहुत गहरी हैं। आतंकी हिंसा का गर्भनाल भी कहीं न कहीं इनसे जुड़ी हुई हैं। वस्तु-जगत व जीव-जगत के क्रमविकास के बारे में हम कितना जानते हैं! क्या, यह सच नहीं कि हम जिस समाज में रह रहे हैं उसकी कई मान्यताएं भ्रामक हैं। मिथ्या हैं। कुछ विचार व दर्शन ऐसे भी हैं जो युक्ति-तर्क और विज्ञान की ज़रा भी परवाह नहीं करते, किसी ख़्ाास व्यक्ति की ध्यान-धारणा व विश्वास पर आधारित हैं। क्या उन्हें इसलिए हमें अपने समाज-जीवन का हिस्सा बना लेना चाहिए? जो विचार या दर्शन विज्ञान की ख़्ाबर नहीं रखते, बल्कि हमारे चिंतन व विवेक के समक्ष अवरोध खड़ा कर रहे हैं, क्या उन्हें भी हमें स्वीकार करना चाहिए? यह एक अहम् सवाल है। क्या यह सत्य नहीं कि हमारे राष्ट्र-जीवन में ऐसे दर्शन व विचारों का आज अबाध हस्तक्ष्ोप हो रहा?
कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी शक्ति-संपन्न व प्रतिभावान क्यों न हो, उसके चिंतन-मनन की अपनी जो एक परिधि है, उसे वह कतई पार नहीं कर सकता। हमारे वेद-पुराण हों या बाइबिल अथवा क़ुरआन-हदीश या फ़िर और कोई मज़हबी ग्रंथ, उनमें जो बातें कही गयीं हैं वे एक ख़्ाास समय तथा सामाजिक-व्यवस्था का बोध कराती हैं। उनमें बहुत -सी अनर्गल बातें भी हैं। वे सार्वकालिक सत्य का बोध नहीं करा सकतीं। दरअसल मूल समस्या यहीं पर है। जो लोग इन ग्रंथों की शिक्षाओं को देश, काल व वस्तु-जगत यानी कि भौतिक परिस्थितियों के सीमा-क्ष्ोत्र से परे समझते हैं, उन्हें हम बेवकूफ़ कहें या धूर्त? अगर हम निरक्षर लोगों की बात छोड़ भी दें तब भी हमारे साक्षर समाज में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत में है। ये लोग काईयां हैं। पाखंडी हैं। जाने-अनजाने परजीवी व्यवस्था के संवाहक हैं। श्रम-संस्कृति से कटे हुए प्रवंचक। आजकल हमारे समाज में तथाकथित संत-महात्माओं, बाबाओं व इमामों जैसों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हो रही है जो इन विषयों पर मज़हबी जुनून पैदा कर अपने धंध्ो को आगे बढ़ा रहे। आजकल जाकिर नायक की भी ख़्ाूब चर्चा है। इन्हें हम सीध्ो तौर पर आतंकवादी तो नहीं कह सकते लेकिन इनकी शिक्षाओं में आतंकी हिंसा के यथ्ोष्ट सामग्री हैं। ज़ाहिर है लंपट-लुटेरों की यह बौद्धिक जमात पूरी दुनिया में फैली हुई है। एक अवोध शिशु का इसमें क्या क़ुसूर! वह तो मिSी का नरम घड़ा है, उसे आप जैसा ढालेंगे वैसी ही शक़्ल वह अख़्ितयार कर लेगा। उसे आप धार्मिक बनाना चाहते हैं और अपने साथ मंदिर में ले जाते हैं, फिर पत्थर की एक बेदम मूर्ति को दिखाकर उससे कहते हैं-' ये मां दुर्गा हैं, ये शिवशंकर हैं, ये बजरंगबली हैं, ये भगवान हैं, सर्वशक्तिमान...।’ एक बच्चे को आप चर्च में ले जाते हैं और जेसस क्राइस्ट के बारे में न जाने कितनी झूठी-सच्ची व कपोल-कल्पित क़िस्से उसे सुनाते हैं! उसमें ईसा मसीह के प्रति विश्वास पैदा करते हैं। एक बच्चे को आप मसजिद में ले जाते हैं और उससे कहते हैं महम्मद साहब इस धरती के आख़्िारी पैगम्बर हैं। अल्लाह के संदेशवाहक...। मानो अल्लाह ने किसी बहुरूपिये के मानिंद महम्मद साहब को अपनी बात बता दी। उन्हें धरती पर क्या करना है समझा दिया। आम-अवाम के वास्ते अपना मेसेज भ्ोजवा दिया। ज़ाहिर है आम लोगों के बीच ईश्वर ने ख़्ाुद प्रकट होकर कभी अपनी बात नहीं कही। आप जानते हैं समाज का पुराना नियम है, हर काम के लिए एक माध्यम चाहिए। अगर ज़मीन की ख़्ारीद-बिक्री करनी हो तो भी हमें दलाल चाहिए। अल्लाह ने भी अपने संदेशवाहक के बतौर महम्मद साहब को चुन लिया। ये बातें कतई वैज्ञानिक नहीं हैं। झूठ और अफ़वाह के हाथ-पैर नहीं होते, फ़िर भी इनकी रफ़्तार बेहद तेज़ होती है। बच्चे को आप सच्चा मुसलमान बनाना चाहते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि बच्चा रोज़ा रख्ो और समय पर नमाज़ अदा करे। आप उसे ख्ोलने-कूदने की उम्र में हथियार थमा रहे...। आप अपनी आस्था के अनुकूल एक नादान मूरत को गढ़ रहे। मैं पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि आगे चलकर आप का बच्चा एक उन्मादी होगा, इनसान कतई नहीं। यह इसलिए कि इनसान बनाने की आपने कोई पहल ही नहीं की। मेरे हिसाब से एक सच्चा हिन्दू होना अथवा एक सच्चा ईसाई होना या एक सच्चा मुसलमान होना कोई ख़्ाास बात नहीं है। आप अपने बच्चे पर सब कुछ छोड़ दें, उसे प्रकृति से सीखने दें। उसे बुरी आदतों से बचाएं। मानव-सभ्यता के क्रमविकास की उसे मुकम्मल जानकारी दें। आप अपने अंधआवेग के तहत उसे न ढालें। विज्ञान मनस्वी चेतना उसमें विकसित होने दें। गॉड, अल्लाह अथवा ईश्वर अगर आपकी कल्पना में युगों से बास कर रहा हो तो उसे सिर्फ़ अपनी कल्पना में ही रहने दें, किसी पर जबरन थोपने की ज़हमत न करें। प्रकृति-जगत किसी की कल्पना की पैदाइश नहीं है।
हमें आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के आलोक में आतंकवाद के मानवघाती दर्शन को समझने की कोशिश करनी होगी। जो मूल्यबोध अब मर चुका है, ज़ाहिर है समाज और देश-दुनिया को आगे की राह वह नहीं दिखा सकता। जो मूल्यबोध सड़ चुका है, उससे भी लोग ख़्ाुशबू की उम्मीद कर रहे...! जो मूल्यबोध ज्ञान की रोशनी का दुश्मन है, अंधआवेग और भ्रम में मनुष्य जाति को अब भी पूरी तरह जकड़े हुए है, जगत को मिथ्या व जन्नत की ख़्ाुशबू का ख़्वाब दिखाने की अपनी श्ौतानी साजिश का हिस्सा बन चुका है, उससे मानव-समाज को आज़ाद कराने की सख़्त ज़रूरत है।
ज़ाहिर है यह कार्य उन तथाकथित धर्मधारी काइयों एवं पाखंडियों के बूते का नहीं है जो मंदिरों, गिरजाघरों तथा मसजिदों में कुण्डली मार कर बैठे हुए हैं। इनके पास बेशुमार दौलत हैं। इतनी दौलत कि इससे दुनिया की भुखमरी व फटेहाली मिटायी जा सकती है। दुनिया के समस्त रोग-व्याधि मिटाया जा सकता है। देश-दुनिया के करोड़ों बच्चों की अनाहार मौत को रोका जा सकता है। लेकिन यह जो दौलत है, लंपट पूंजी किसी उत्पादन के काम नहीं आ रही, बल्कि आतंकवाद के लिए ईंधन जुटाने में लगी हुई है।
बेशक लंपट-लुटेरों की हिंसक बिरादरी का ही ये हिस्सा हैं। मानो ईश्वर व अल्लाह ने ही इन्हें धरती पर लोगों के बीच ज्ञान बांटने तथा जन्नत की राह दिखाने को ले यहां भ्ोजा है। यह बात लोगों के मगज में क्यों नहीं घुसती कि आख़्िार अल्लाह अपना संदेश पहुंचाने के लिए क्यों किसी दूसरे पर निर्भर होगा? अगर सचमुच अल्लाह है तो, क्या यह कार्य वह ख़्ाुद नहीं कर सकता! कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रम-संस्कृति से कट चुके धूर्त काइयों और दुराचारियों ने इस इन्द्रजाल की रचना की है!
किसी भी जाति का अनिश्चित-असुरक्षित वर्तमान कतई सुरक्षित-सुनिश्चित भविष्य की गारंटी नहीं दे सकता। जबकि इन पाखंडियों व दुराचारियों के पास हर चीज़ की गारंटी है। अगर आप इनकी सुनें तो ये आप को मरने से सौ साल पूर्व जन्नत की ख़्ाुशबू ही नहीं बल्कि हूरें भी उपलब्ध करा सकते हैं। हर जेèहादी को जन्नत की ख़्ाुशबू का एहसास करा सकते हैं। निस्संदेह आतंकवाद की जड़ें इन्हीं काइयों व पाखंडियों से शुरू होती हैं। और यहीं आकर ख़्ात्म भी हो जाती हैं। सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि राष्ट्र इन्हीं तत्त्वों का पोषण-संरक्षण करता है। वक़्त-बेवक़्त वह अपने कड़े तेवर भी दिखाता है। दरअसल परजीवी व्यवस्था की ये ठोस बुनियाद हैं। दोनों ही एक-दूसरे के संरक्षक और पोषक हैं। इनके परस्पर के द्बंद्ब विरोधात्मक नहीं, बल्कि मिलनात्मक हैं। ये चाहते हैं आम-अवाम भ्ोड़-बकरियों के मानिंद इनके हुक़्म की तामील करता रहे। कोई सवाल खड़ा न करे। क़ुरआन, बाइबिल और वेद की हदें क्या इंसान पार न करे? हमारे पुरखों ने जो लक़ीरें खींच दी हैं, उसके आगे कोई लक़ीर न खींची जाये? बस यहीं तक! इसके आगे और नहीं...।
द्बितीय विश्व युद्ध के पूर्व नाजीवादी जर्मनी और फासिस्ट इटली में नस्लवाद व उग्र राष्ट्रवाद अपने चरम पर था। जर्मनी में तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने तो यहूदियों के क़त्लेआम व दमन-उत्पीड़न की संस्थागत अनुमति तक दे डाली थी। उसके बाद से यहूदियों का योरोप के लगभग अधिकतर देशों में इतना अधिक दमन व उत्पीड़न हुआ कि यहूदियों को अपने लिए एक अलग राष्ट्र के गठन का फैसला लेना पड़ा। इजरायल और जिन इस्लामी मुल्क़ों के बीच प्रतिशोध की आज जो भयावह चिंगारी सुलग रही है, वह अकारण नहीं है।
बेशक फ़िरकापरस्ती व धर्मांधता ही अहम् वजह है जो आज गैर मुस्लिमों और शिया मुस्लिमों पर आतंकवादी हमले हो रहे। हालांकि शिया और सुन्नी दोनों ही इस्लाम में यक़ीन रखते हैं। इनमें कौन सच्चा मुसलमान है और कौन झूठा, यह हम नहीं कह सकते। हमें सिर्फ़ इतना ज्ञात है कि ये दोनों ही उस इस्लाम के अनुयायी हैं जिसने आज पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है। जहां एक ओर इस्लामी कSरता एक बड़ी समस्या है वहीं दूसरी ओर नये सिरे से साम्राज्यवाद का संप्रसारण। इनके बहुआयामी ख़्ातरे समाज-संस्कृति के समक्ष मुंह बाये खड़े हैं।
हमारे पड़ोसी मुल्क़ बांग्लादेश में आइएस ने अपना प्रभाव-विस्तार कर जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील व संतुलित सोच वाले बुद्धिजीवियों,अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौद्धों एवं ईसाइयों की हत्या की मुहिम छेड़ी है, निकट भविष्य में उसे हमारे देश में भी नहीं दोहराया जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता है। यह मसला हम तमाम बुद्धि-विवेक व चेतनासंपन्न नागरिकों से आत्ममंथन की अपेक्षा रखता है।
आख़्िार उस जर्मनी का क्या क़ुसूर था जिसने सीरिया से किसी तरह अपनी जान बचाकर शरण लेने आये अरब लोगों को नये सिरे से ज़्िांदगी गुजर-बसर करने का एक मौक़ा दिया था! लेकिन नतीजे दुखदायी रहे। जर्मन लोगों को क्या मिला! नववर्ष के अवसर पर जर्मन महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ ज़ाहिर है वह मज़्ाहबी जुनून का एक हिस्सा है। यह कृत्य उन्हीं लोगों द्बारा किया गया जिन्हें अपना मेहमान बनाकर जर्मनी ने अपने यहां पनाह दी थी। आख़्िार वे कौन से कारण हैं जो इंगलैंड व फ्रांस में पले, बढ़े मुस्लिम युवाओं को अपने ही राष्ट्र के नागरिकों की सामूहिक हत्या के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इसलिए यह कहना कि आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं, सही मालूम नहीं पड़ता। जरूरी है कि इस्लाम धर्म के अनुयायी और ख़्ाास तौर से सुन्नी मत के अनुयायी आतंकी विध्वंश व नर संहार के खिलाफ़ खुलकर सामने आयें। साथ ही आतंकवाद के खिलाफ मोर्चेबंदी में भी गैर मुस्लिम राष्ट्रों के साथ कंध्ो से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ें। वरना, इनकी चुप्पी भी आतंकी कार्रवाइयों की मौन स्वीकृति ही समझी जाएगी।
वैसे तो आतंकवाद के फलने-फूलने के पीछे कई ताकतें जिम्मेदार हैं जिनमें भारत के तथाकथित धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले दल भी शामिल हैं। इन दलों व संगठनों ने अपने राजनैतिक समीकरण वोट-बैंक के हित में कSरपंथी तत्त्वों को हमेशा शह दी है। दरअसल, ये कSरपंथी तत्त्व ही आतंकवाद की मूल में हैं जिन्होंने आतंकी संगठनों को वैचारिक खाद-पानी व बीज़्ा मुहैया कराई है और आज भी विभिन्न गैर पंजीकृत एवं पंजीकृत मदरसों से करवा रहे हैं। कहना न होगा कि बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल में पनाह देने के सवाल पर तत्कालीन वामफ्रंट सरकार की भूमिका बेहद शर्मसार करने वाली रही। तस्लीमा को जबरन बंगाल से निकाल बाहर कर दिया गया और तृणमूल की ममता सरकार में भी तस्लीमा को बंगाल में जगह नहीं मिली। ये दोनों सरकारें फिरकापरस्त ताक़तों के आगे अपने घुटने टेक दिये। हैरत इस बात की होती है कि पाखंडी एवं साम्प्रदायिकता को बेनकाब करने वाली तस्लीमा नसरीन को जब अपने ही देश से निर्वासित होना पड़ता है तो न तो उन्हें वाममोर्चा नीत सरकार और न ही तृणमूल कांग्रेस की सरकार से सुरक्षा मिलती है। दरअसल, 'मुस्लिम तुष्टिकरण’ के नाम पर जिस तरह से महात्मा गांधी ने कSरपंथी मुस्लिमों के खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन दिया था वह भी पाकिस्तान के निर्माण में अंतत: सहायक ही रहा। उसी तरह सुप्रीम कोर्ट द्बारा 23 अप्रैल 1985 में शाहबानो मुकदमें के 'धर्मनिरपेक्ष’ फैसले को उलटते हुए संसद में क़ानून पारित करवाकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कSरपंथी मुस्लिमों को तुष्ट करते हुए मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील तत्त्वों को पनपने का अवसर ही नहीं दिया। मसलन वोट बैंक की राजनीति ने इस समस्या को सुलझाने के बजाय ज़्यादा ही उलझा दिया है।
यह भी सही है कि हिदू समाज में भी राजनीतिकरण के चलते कSरपंथी तत्त्व एक बार फिर सक्रिय हो गये हैं। गौ-रक्षा के नाम पर धार्मिक व जातीय उन्माद भड़काने की कोशिश हो रही है जिसकी कठोरतम भाषा में भर्त्सना होनी चाहिए। चूंकि कSरपंथी तत्त्व चाहे वे मुस्लिम समुदाय में हों या किसी अन्य समुदाय में हों, वे भी उतने ही ख़्ातरनाक हैं। लेकिन, चूंकि हिंदू समाज मूल रूप से एक विकेंद्रीकृत धर्म है इसलिए इसमें कSरपंथी सोच को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल सकती जिस अनुपात में इस्लाम के सुन्नी मत वालों में मिल रही है।
इतिहास को यदि हम देख्ों तो यहूदी धर्म, ईसाई धर्म एवं इस्लाम लगभग एक ही क्ष्ोत्र से उपजे हुए धर्म हैं जहां धार्मिक सहिष्णुता एवं दार्शनिक सहनशीलता की परंपरा बहुत कम रही है। इस्लामी कSरता के अजस्र उदाहरण हैं। इन दिनों कश्मीर में हर जगह पोस्टर चिपाकाये गये हैं कि लड़कियां स्कूटी न चलायें वर्ना गाड़ी समेत उन्हें जला दिया जायेगा। लड़कियों के कभी स्कूल जानं पर पाबंदी लगायी जाती है तो कभी बèुर्के में रहने पर बाघ्य किया जाता है। ऐसे अनेक ऐतिहासिक वाक़ये हंै जो इस्लाम को एक कSरपंथी मजहब के बतौर स्थापित करते हैं। आज विश्व बिरादरी में मुस्लिम क़ौम अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं तो इससे तो आतंकवाद को ही बल मिलेगा। ख़्ाास बात यह कि इससे मुस्लिम समुदाय का भविष्य दांव पर लग जाएगा। इस विषय की गंभीरता का अंदाजा आज सीरिया, इराक और लीबिया में जारी गृह युद्ध से अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी ताकतें लाभ उठा रही हैं। यह मानने में भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि अमेरिका तो आतंकवाद को जन्म देने व आग में घी डालने का काम करता रहा है। लेकिन इस दरम्यान हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है। आज तक जितना विनाश होना था, नर-संहार होना था, हो चुका। अब से भी इस शस्य श्यामला विश्व धरा पर अमन व शांति की बहाली के लिए हम सभी को खुलकर सामने आना होगा। विश्ोष रूप से मुस्लिम बुद्धिजीवियों को। हम बुद्धिजीवियों का कर्त्तव्य बनता है कि हम साहस के साथ आतंकवाद की बुनियाद पर चोट करें ताकि समाज में सही समझ विकसित हो सके।
कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी शक्ति-संपन्न व प्रतिभावान क्यों न हो, उसके चिंतन-मनन की अपनी जो एक परिधि है, उसे वह कतई पार नहीं कर सकता। हमारे वेद-पुराण हों या बाइबिल अथवा क़ुरआन-हदीश या फ़िर और कोई मज़हबी ग्रंथ, उनमें जो बातें कही गयीं हैं वे एक ख़्ाास समय तथा सामाजिक-व्यवस्था का बोध कराती हैं। उनमें बहुत -सी अनर्गल बातें भी हैं। वे सार्वकालिक सत्य का बोध नहीं करा सकतीं। दरअसल मूल समस्या यहीं पर है। जो लोग इन ग्रंथों की शिक्षाओं को देश, काल व वस्तु-जगत यानी कि भौतिक परिस्थितियों के सीमा-क्ष्ोत्र से परे समझते हैं, उन्हें हम बेवकूफ़ कहें या धूर्त? अगर हम निरक्षर लोगों की बात छोड़ भी दें तब भी हमारे साक्षर समाज में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत में है। ये लोग काईयां हैं। पाखंडी हैं। जाने-अनजाने परजीवी व्यवस्था के संवाहक हैं। श्रम-संस्कृति से कटे हुए प्रवंचक। आजकल हमारे समाज में तथाकथित संत-महात्माओं, बाबाओं व इमामों जैसों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हो रही है जो इन विषयों पर मज़हबी जुनून पैदा कर अपने धंध्ो को आगे बढ़ा रहे। आजकल जाकिर नायक की भी ख़्ाूब चर्चा है। इन्हें हम सीध्ो तौर पर आतंकवादी तो नहीं कह सकते लेकिन इनकी शिक्षाओं में आतंकी हिंसा के यथ्ोष्ट सामग्री हैं। ज़ाहिर है लंपट-लुटेरों की यह बौद्धिक जमात पूरी दुनिया में फैली हुई है। एक अवोध शिशु का इसमें क्या क़ुसूर! वह तो मिSी का नरम घड़ा है, उसे आप जैसा ढालेंगे वैसी ही शक़्ल वह अख़्ितयार कर लेगा। उसे आप धार्मिक बनाना चाहते हैं और अपने साथ मंदिर में ले जाते हैं, फिर पत्थर की एक बेदम मूर्ति को दिखाकर उससे कहते हैं-' ये मां दुर्गा हैं, ये शिवशंकर हैं, ये बजरंगबली हैं, ये भगवान हैं, सर्वशक्तिमान...।’ एक बच्चे को आप चर्च में ले जाते हैं और जेसस क्राइस्ट के बारे में न जाने कितनी झूठी-सच्ची व कपोल-कल्पित क़िस्से उसे सुनाते हैं! उसमें ईसा मसीह के प्रति विश्वास पैदा करते हैं। एक बच्चे को आप मसजिद में ले जाते हैं और उससे कहते हैं महम्मद साहब इस धरती के आख़्िारी पैगम्बर हैं। अल्लाह के संदेशवाहक...। मानो अल्लाह ने किसी बहुरूपिये के मानिंद महम्मद साहब को अपनी बात बता दी। उन्हें धरती पर क्या करना है समझा दिया। आम-अवाम के वास्ते अपना मेसेज भ्ोजवा दिया। ज़ाहिर है आम लोगों के बीच ईश्वर ने ख़्ाुद प्रकट होकर कभी अपनी बात नहीं कही। आप जानते हैं समाज का पुराना नियम है, हर काम के लिए एक माध्यम चाहिए। अगर ज़मीन की ख़्ारीद-बिक्री करनी हो तो भी हमें दलाल चाहिए। अल्लाह ने भी अपने संदेशवाहक के बतौर महम्मद साहब को चुन लिया। ये बातें कतई वैज्ञानिक नहीं हैं। झूठ और अफ़वाह के हाथ-पैर नहीं होते, फ़िर भी इनकी रफ़्तार बेहद तेज़ होती है। बच्चे को आप सच्चा मुसलमान बनाना चाहते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि बच्चा रोज़ा रख्ो और समय पर नमाज़ अदा करे। आप उसे ख्ोलने-कूदने की उम्र में हथियार थमा रहे...। आप अपनी आस्था के अनुकूल एक नादान मूरत को गढ़ रहे। मैं पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि आगे चलकर आप का बच्चा एक उन्मादी होगा, इनसान कतई नहीं। यह इसलिए कि इनसान बनाने की आपने कोई पहल ही नहीं की। मेरे हिसाब से एक सच्चा हिन्दू होना अथवा एक सच्चा ईसाई होना या एक सच्चा मुसलमान होना कोई ख़्ाास बात नहीं है। आप अपने बच्चे पर सब कुछ छोड़ दें, उसे प्रकृति से सीखने दें। उसे बुरी आदतों से बचाएं। मानव-सभ्यता के क्रमविकास की उसे मुकम्मल जानकारी दें। आप अपने अंधआवेग के तहत उसे न ढालें। विज्ञान मनस्वी चेतना उसमें विकसित होने दें। गॉड, अल्लाह अथवा ईश्वर अगर आपकी कल्पना में युगों से बास कर रहा हो तो उसे सिर्फ़ अपनी कल्पना में ही रहने दें, किसी पर जबरन थोपने की ज़हमत न करें। प्रकृति-जगत किसी की कल्पना की पैदाइश नहीं है।
हमें आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के आलोक में आतंकवाद के मानवघाती दर्शन को समझने की कोशिश करनी होगी। जो मूल्यबोध अब मर चुका है, ज़ाहिर है समाज और देश-दुनिया को आगे की राह वह नहीं दिखा सकता। जो मूल्यबोध सड़ चुका है, उससे भी लोग ख़्ाुशबू की उम्मीद कर रहे...! जो मूल्यबोध ज्ञान की रोशनी का दुश्मन है, अंधआवेग और भ्रम में मनुष्य जाति को अब भी पूरी तरह जकड़े हुए है, जगत को मिथ्या व जन्नत की ख़्ाुशबू का ख़्वाब दिखाने की अपनी श्ौतानी साजिश का हिस्सा बन चुका है, उससे मानव-समाज को आज़ाद कराने की सख़्त ज़रूरत है।
ज़ाहिर है यह कार्य उन तथाकथित धर्मधारी काइयों एवं पाखंडियों के बूते का नहीं है जो मंदिरों, गिरजाघरों तथा मसजिदों में कुण्डली मार कर बैठे हुए हैं। इनके पास बेशुमार दौलत हैं। इतनी दौलत कि इससे दुनिया की भुखमरी व फटेहाली मिटायी जा सकती है। दुनिया के समस्त रोग-व्याधि मिटाया जा सकता है। देश-दुनिया के करोड़ों बच्चों की अनाहार मौत को रोका जा सकता है। लेकिन यह जो दौलत है, लंपट पूंजी किसी उत्पादन के काम नहीं आ रही, बल्कि आतंकवाद के लिए ईंधन जुटाने में लगी हुई है।
बेशक लंपट-लुटेरों की हिंसक बिरादरी का ही ये हिस्सा हैं। मानो ईश्वर व अल्लाह ने ही इन्हें धरती पर लोगों के बीच ज्ञान बांटने तथा जन्नत की राह दिखाने को ले यहां भ्ोजा है। यह बात लोगों के मगज में क्यों नहीं घुसती कि आख़्िार अल्लाह अपना संदेश पहुंचाने के लिए क्यों किसी दूसरे पर निर्भर होगा? अगर सचमुच अल्लाह है तो, क्या यह कार्य वह ख़्ाुद नहीं कर सकता! कहीं ऐसा तो नहीं कि श्रम-संस्कृति से कट चुके धूर्त काइयों और दुराचारियों ने इस इन्द्रजाल की रचना की है!
किसी भी जाति का अनिश्चित-असुरक्षित वर्तमान कतई सुरक्षित-सुनिश्चित भविष्य की गारंटी नहीं दे सकता। जबकि इन पाखंडियों व दुराचारियों के पास हर चीज़ की गारंटी है। अगर आप इनकी सुनें तो ये आप को मरने से सौ साल पूर्व जन्नत की ख़्ाुशबू ही नहीं बल्कि हूरें भी उपलब्ध करा सकते हैं। हर जेèहादी को जन्नत की ख़्ाुशबू का एहसास करा सकते हैं। निस्संदेह आतंकवाद की जड़ें इन्हीं काइयों व पाखंडियों से शुरू होती हैं। और यहीं आकर ख़्ात्म भी हो जाती हैं। सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि राष्ट्र इन्हीं तत्त्वों का पोषण-संरक्षण करता है। वक़्त-बेवक़्त वह अपने कड़े तेवर भी दिखाता है। दरअसल परजीवी व्यवस्था की ये ठोस बुनियाद हैं। दोनों ही एक-दूसरे के संरक्षक और पोषक हैं। इनके परस्पर के द्बंद्ब विरोधात्मक नहीं, बल्कि मिलनात्मक हैं। ये चाहते हैं आम-अवाम भ्ोड़-बकरियों के मानिंद इनके हुक़्म की तामील करता रहे। कोई सवाल खड़ा न करे। क़ुरआन, बाइबिल और वेद की हदें क्या इंसान पार न करे? हमारे पुरखों ने जो लक़ीरें खींच दी हैं, उसके आगे कोई लक़ीर न खींची जाये? बस यहीं तक! इसके आगे और नहीं...।
द्बितीय विश्व युद्ध के पूर्व नाजीवादी जर्मनी और फासिस्ट इटली में नस्लवाद व उग्र राष्ट्रवाद अपने चरम पर था। जर्मनी में तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने तो यहूदियों के क़त्लेआम व दमन-उत्पीड़न की संस्थागत अनुमति तक दे डाली थी। उसके बाद से यहूदियों का योरोप के लगभग अधिकतर देशों में इतना अधिक दमन व उत्पीड़न हुआ कि यहूदियों को अपने लिए एक अलग राष्ट्र के गठन का फैसला लेना पड़ा। इजरायल और जिन इस्लामी मुल्क़ों के बीच प्रतिशोध की आज जो भयावह चिंगारी सुलग रही है, वह अकारण नहीं है।
बेशक फ़िरकापरस्ती व धर्मांधता ही अहम् वजह है जो आज गैर मुस्लिमों और शिया मुस्लिमों पर आतंकवादी हमले हो रहे। हालांकि शिया और सुन्नी दोनों ही इस्लाम में यक़ीन रखते हैं। इनमें कौन सच्चा मुसलमान है और कौन झूठा, यह हम नहीं कह सकते। हमें सिर्फ़ इतना ज्ञात है कि ये दोनों ही उस इस्लाम के अनुयायी हैं जिसने आज पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है। जहां एक ओर इस्लामी कSरता एक बड़ी समस्या है वहीं दूसरी ओर नये सिरे से साम्राज्यवाद का संप्रसारण। इनके बहुआयामी ख़्ातरे समाज-संस्कृति के समक्ष मुंह बाये खड़े हैं।
हमारे पड़ोसी मुल्क़ बांग्लादेश में आइएस ने अपना प्रभाव-विस्तार कर जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील व संतुलित सोच वाले बुद्धिजीवियों,अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौद्धों एवं ईसाइयों की हत्या की मुहिम छेड़ी है, निकट भविष्य में उसे हमारे देश में भी नहीं दोहराया जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता है। यह मसला हम तमाम बुद्धि-विवेक व चेतनासंपन्न नागरिकों से आत्ममंथन की अपेक्षा रखता है।
आख़्िार उस जर्मनी का क्या क़ुसूर था जिसने सीरिया से किसी तरह अपनी जान बचाकर शरण लेने आये अरब लोगों को नये सिरे से ज़्िांदगी गुजर-बसर करने का एक मौक़ा दिया था! लेकिन नतीजे दुखदायी रहे। जर्मन लोगों को क्या मिला! नववर्ष के अवसर पर जर्मन महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ ज़ाहिर है वह मज़्ाहबी जुनून का एक हिस्सा है। यह कृत्य उन्हीं लोगों द्बारा किया गया जिन्हें अपना मेहमान बनाकर जर्मनी ने अपने यहां पनाह दी थी। आख़्िार वे कौन से कारण हैं जो इंगलैंड व फ्रांस में पले, बढ़े मुस्लिम युवाओं को अपने ही राष्ट्र के नागरिकों की सामूहिक हत्या के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इसलिए यह कहना कि आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं, सही मालूम नहीं पड़ता। जरूरी है कि इस्लाम धर्म के अनुयायी और ख़्ाास तौर से सुन्नी मत के अनुयायी आतंकी विध्वंश व नर संहार के खिलाफ़ खुलकर सामने आयें। साथ ही आतंकवाद के खिलाफ मोर्चेबंदी में भी गैर मुस्लिम राष्ट्रों के साथ कंध्ो से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ें। वरना, इनकी चुप्पी भी आतंकी कार्रवाइयों की मौन स्वीकृति ही समझी जाएगी।
वैसे तो आतंकवाद के फलने-फूलने के पीछे कई ताकतें जिम्मेदार हैं जिनमें भारत के तथाकथित धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले दल भी शामिल हैं। इन दलों व संगठनों ने अपने राजनैतिक समीकरण वोट-बैंक के हित में कSरपंथी तत्त्वों को हमेशा शह दी है। दरअसल, ये कSरपंथी तत्त्व ही आतंकवाद की मूल में हैं जिन्होंने आतंकी संगठनों को वैचारिक खाद-पानी व बीज़्ा मुहैया कराई है और आज भी विभिन्न गैर पंजीकृत एवं पंजीकृत मदरसों से करवा रहे हैं। कहना न होगा कि बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल में पनाह देने के सवाल पर तत्कालीन वामफ्रंट सरकार की भूमिका बेहद शर्मसार करने वाली रही। तस्लीमा को जबरन बंगाल से निकाल बाहर कर दिया गया और तृणमूल की ममता सरकार में भी तस्लीमा को बंगाल में जगह नहीं मिली। ये दोनों सरकारें फिरकापरस्त ताक़तों के आगे अपने घुटने टेक दिये। हैरत इस बात की होती है कि पाखंडी एवं साम्प्रदायिकता को बेनकाब करने वाली तस्लीमा नसरीन को जब अपने ही देश से निर्वासित होना पड़ता है तो न तो उन्हें वाममोर्चा नीत सरकार और न ही तृणमूल कांग्रेस की सरकार से सुरक्षा मिलती है। दरअसल, 'मुस्लिम तुष्टिकरण’ के नाम पर जिस तरह से महात्मा गांधी ने कSरपंथी मुस्लिमों के खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन दिया था वह भी पाकिस्तान के निर्माण में अंतत: सहायक ही रहा। उसी तरह सुप्रीम कोर्ट द्बारा 23 अप्रैल 1985 में शाहबानो मुकदमें के 'धर्मनिरपेक्ष’ फैसले को उलटते हुए संसद में क़ानून पारित करवाकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कSरपंथी मुस्लिमों को तुष्ट करते हुए मुस्लिम समुदाय के प्रगतिशील तत्त्वों को पनपने का अवसर ही नहीं दिया। मसलन वोट बैंक की राजनीति ने इस समस्या को सुलझाने के बजाय ज़्यादा ही उलझा दिया है।
यह भी सही है कि हिदू समाज में भी राजनीतिकरण के चलते कSरपंथी तत्त्व एक बार फिर सक्रिय हो गये हैं। गौ-रक्षा के नाम पर धार्मिक व जातीय उन्माद भड़काने की कोशिश हो रही है जिसकी कठोरतम भाषा में भर्त्सना होनी चाहिए। चूंकि कSरपंथी तत्त्व चाहे वे मुस्लिम समुदाय में हों या किसी अन्य समुदाय में हों, वे भी उतने ही ख़्ातरनाक हैं। लेकिन, चूंकि हिंदू समाज मूल रूप से एक विकेंद्रीकृत धर्म है इसलिए इसमें कSरपंथी सोच को व्यापक स्वीकार्यता नहीं मिल सकती जिस अनुपात में इस्लाम के सुन्नी मत वालों में मिल रही है।
इतिहास को यदि हम देख्ों तो यहूदी धर्म, ईसाई धर्म एवं इस्लाम लगभग एक ही क्ष्ोत्र से उपजे हुए धर्म हैं जहां धार्मिक सहिष्णुता एवं दार्शनिक सहनशीलता की परंपरा बहुत कम रही है। इस्लामी कSरता के अजस्र उदाहरण हैं। इन दिनों कश्मीर में हर जगह पोस्टर चिपाकाये गये हैं कि लड़कियां स्कूटी न चलायें वर्ना गाड़ी समेत उन्हें जला दिया जायेगा। लड़कियों के कभी स्कूल जानं पर पाबंदी लगायी जाती है तो कभी बèुर्के में रहने पर बाघ्य किया जाता है। ऐसे अनेक ऐतिहासिक वाक़ये हंै जो इस्लाम को एक कSरपंथी मजहब के बतौर स्थापित करते हैं। आज विश्व बिरादरी में मुस्लिम क़ौम अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं तो इससे तो आतंकवाद को ही बल मिलेगा। ख़्ाास बात यह कि इससे मुस्लिम समुदाय का भविष्य दांव पर लग जाएगा। इस विषय की गंभीरता का अंदाजा आज सीरिया, इराक और लीबिया में जारी गृह युद्ध से अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी ताकतें लाभ उठा रही हैं। यह मानने में भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि अमेरिका तो आतंकवाद को जन्म देने व आग में घी डालने का काम करता रहा है। लेकिन इस दरम्यान हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है। आज तक जितना विनाश होना था, नर-संहार होना था, हो चुका। अब से भी इस शस्य श्यामला विश्व धरा पर अमन व शांति की बहाली के लिए हम सभी को खुलकर सामने आना होगा। विश्ोष रूप से मुस्लिम बुद्धिजीवियों को। हम बुद्धिजीवियों का कर्त्तव्य बनता है कि हम साहस के साथ आतंकवाद की बुनियाद पर चोट करें ताकि समाज में सही समझ विकसित हो सके।
-डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह
संपादक: आपका तिस्ता-हिमालय
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कितना गैर इस्लामी है आतंकवाद!
Reviewed by rainbownewsexpress
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1:25:00 pm
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