आज़ादी सत्तर साल की

-डॉ. सुरजीत कुमार सिंह/ हमारा देश इस साल 15 अगस्त, 2016 को अपनी आज़ादी की 70 वीं साल गिरह मना रहा है. जब हम ब्रिटिशों के गुलाम थे, तो हमारे विकास के सारे मार्ग अवरुद्ध थे. लेकिन जब हमने अनगिनत कुर्बानियां देकर अपनी आज़ादी पाई तो सवाल उठता है कि क्या हम अपने उन महान सपूतों के आदर्शों पर चले ? क्या हमने उनके द्वारा देखे गए सपनों को पूरा किया ? क्या हमने अपने देश के लोगों के लिए रोटी-कपड़ा और मकान की व्यवस्था कर पाए, क्या देश के सब बच्चों को गुणवत्तापूर्ण सरकारी शिक्षा का प्रबंध देश और राज्य की सरकारें कर पायीं, क्या देश के सभी नागरिकों को हम विश्व स्तर की सरकारी चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करा पायें हैं, क्या हम अपने देश के नौजवानों के लिए रोज़गार का प्रबंध कर पाए हैं, क्या हमारी आर्थिक नीतियाँ समाजवादी और लोककल्याणकारी हैं, क्या हम सामाजिक और आर्थिक न्याय की अवधारणा को मजबूती से स्थापित कर पाए हैं, क्या हमारे देश में विधि और न्यायपालिका के समक्ष व्यावहारिक तौर पर सभी नागरिक समान हैं, क्या हम एक समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व से युक्त लोकतांत्रिक समाज बना पाए हैं, क्या हम अपने देश में धर्म निरपेक्षता का वातावरण बनाने में सफल हो पाए हैं, क्या हम भारतीय अपने जीवन से जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न खत्म कर पायें हैं, क्या हमने अपनी महिलाओं, युवतियों और बच्चियों के लिए भयमुक्त वातावरण और मर्यादित समाज का स्वरुप दिया है, क्या हम अपनी युवा पीढ़ी और अपने छोटे बच्चों को यह बताने और अहसास कराने में सफल हो पाए हैं कि यह आज़ादी हमने कितनी कुर्बानियों को देकर प्राप्त की है ?
प्रश्न बहुत सारे हैं और उनमें से कुछ के उत्तर भी सकारात्मक मिल सकते हैं. लेकिन 70 साल समय कोई छोटा समय नहीं होता है. यह एक पीढ़ी के अवसान का समय होता है. यह बात सही कि आज़ादी के वक्त देश को जिस हालत में अंग्रेज छोड़कर गए थे, वह हालात बहुत ही बुरे थे. लेकिन उसके बाद हमको एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर राष्ट्र निर्माण में लगन से लगना चाहिए था. हमारी देश व राज्यों की सरकारों को पूर्ण मनोयोग से जो करना चाहिए था, वह उन्होंने बहुत ही प्रतिबद्धता से नहीं किया ? देश में कई तरह के विकास व सुधार के प्रयास आरम्भ किए गए, देश पहली जवाहरलाल नेहरु सरकार जिस तरह से सभी दलों के लोगों को लेकर बनी, वह फिर बाद में आपसी खींचतान और अंतर्विरोधों में घिर गयी. इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू और उनके समस्त सहयोगी मन्त्री अपनी समझ और राजनैतिक मतभेदों के बाबजूद देश के निर्माण में लगे थे. फिर भी देश के हालात काबू में नहीं आ रहे थे, देश व राज्य की सरकारें और नौकरशाही भी अपनी समार्थ्य के अनुसार राष्ट्र निर्माण के काम में लगी थी. देश में पंचवर्षीय योजनायें बनाई गयीं और हरित क्रान्ति से लेकर नीली क्रान्ति के आवाहन किए गए. देश में कृषि सिंचाई और ऊर्जा उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बाँध और नदी घाटी योजनायें बनाई और चलाई गयीं. लेकिन हमारे देश की अधिकतर जनता तो हाथ पर हाथ रखे बैठी हुयी सरकारों को ताकती रहती थी कि जैसे कोई मसीहा रूपी जिन्न आयेगा और जादू की छड़ी घुमायेगा तो सब कुछ ठीक कर देगा, सबको रोटी-कपड़ा और मकान का जुगाड़ कर देगा. लोगों को लगता है कि सब कुछ सरकारों को करना है, हमें कुछ नहीं करना है, हमको अपने आपको नहीं बदलना है, जब तक कानून और पुलिस का डंडा हमारे ऊपर पड़ता नहीं है तब तक हम सुधरते नहीं हैं, क्या हम अपने व्यवहार में लोकतांत्रिक हुए हैं, क्या हमने कामचोरी और आलस्य छोड़ दिया है. महात्मा गाँधी के जीवन का मन्त्र था कि जो बिना श्रम किए रोटी खाता है, वह चोरी का अन्न खाता है. पंडित जवाहरलाल नेहरु कहते थे कि आराम हराम है और भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन एक-एक क्षण शोषितों और वंचितों के लिए बीता, इसके अलावा उदाहरण बहुत सारे हैं. लेकिन हम भारतीय अपने उन महापुरुषों से क्या सीख पाए और जीवन जीने के लिए हमने उनसे क्या सबक लिया ?
सत्तर साल की आज़ादी में आज हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हुए हैं, लेकिन हमको करोड़ों लोगों के लिए दाल और तिलहन का आयात करना ही पड़ता है. चिकित्सा के मामले में देश के नेता एम्स के होते हुए विदेश का रुख करते हैं और एक तत्कालीन प्रधानमंत्री अपने घुटने बदलने के लिए विदेशी डाक्टर पर निर्भर थे और देश की शीर्ष हस्तियाँ अपनी अन्य गोपनीय व्याधियों का उपचार विदेश में करवाती हैं. इन्हीं लोगों के बच्चे विदेश में पढ़ने जाते हैं. इसके अलावा इन लोगों को पर्यटन और भ्रमण के मामले भारत का कोई शहर पसंद नहीं आता, आखिर क्यों नहीं बनाये विश्वस्तरीय अस्पताल, शिक्षा केंद्र, पर्यटन स्थल और अन्य सब कुछ. देश की सेनाओं के सारे उपकरण हम विदेशों से खरीद रहे हैं, यहाँ तक कि हमारे पास अपने सैनिकों के लिये बुलेट प्रूफ जैकेट भी विदेश से मंगवानी पड़ रही है. उद्योग धंधों के मामले में हमारे अधिकतर व्यापारी सभी तरह की टैक्स चोरी करते हैं, केवल टाटा को छोड़कर हमारे पास कोई भी विश्वस्तरीय औद्योगिक ब्राण्ड नहीं है. जिस समाजवादी और लोककल्याणकारी राज्य का स्वप्न, हमारी आज़ादी के सिपाहियों ने देखा था, आज उसके विपरीत सारी आर्थिक नीतियों का बंटाधार हो रहा है. आज सब कुछ निजी व्यापारियों और दलालों के हाथों में बेचा जा रहा है, देश की कोयला व लौह अयस्क की खदानों को, देश के पानी को, प्राकृतिक गैस के भण्डारों को, कृषि कार्यों वाली बहुमूल्य उपजाऊ जमीन कौड़ी के भाव में रक्त पिपासु विल्डर्स रूपी माफियाओं और कंस्ट्रक्शन कम्पनियों को बेची जा रही है.
आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी देश की विधि और न्याय व्यवस्था की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है. एक ही केस में सरकार बदलने पर वही सरकारी जाँच एजेंसियां अपनी ही जाँच रिपोर्ट बदल देती हैं, फिर सवाल है मालेगांव विस्फोट में लोगों को किसने मारा, क्या वे अपनी मौत ही मर गए ? इरसत जहाँ कौन थी, यह सच आज तक हमारे समाने नहीं आया है. देश के एक प्रसिद्ध लोकप्रिय अभिनेता ने सड़क पर बम्बई में लोगों को कुचल डाला, लेकिन वह दौलत के दम पर बच गया और उसका चश्मदीद गवाह, जो बम्बई पुलिस का कांस्टेबल था, उसको नौकरी से निकलवाया, फिर वह बम्बई की सड़कों पर भीख मांगते हुए लावारिश व विक्षिप्त होकर मर गया. राजस्थान में चिंकारा को किसने मारा, यह पता नहीं चला और वहाँ की अदालत ने मुख्य गवाह से गवाही लिए बिना ही बम्बई के फिल्म वालों को निर्दोष बरी कर दिया. अपने देश में कई सौ केस तो ऐसे हैं कि जिसमें लोगों को पुलिस ने अपनी गुंडागर्दी में या किसी के कहने पर सबक सीखाने के लिए निर्दोष आदमी को उठाकर जेल भेज दिया, फिर उस आदमी को उसके घर वाले भूल गए, पुलिस भूल गयी, अदालत भूल गयी और जिस जेल में रह रहा है वह जेल भी भूल गयी और उन असहाय, निरक्षर व गरीब लोगों की पूरी जिन्दगी न्याय के इंतज़ार में जेल में ही कट गयी. वर्ष 2002 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकवादी हमले के मामले में मुफ्ती अब्दुल कयूम को 11 साल तक जेल में बंद रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया. अब्दुल कयूम ने एक ऐसे अपराध के लिए 11 साल जेल में बिता दिये, जो उन्होंने किया ही नहीं था. ऐसा ही एक अन्य मामला है जिसमें कि फार्मेसी के एक छात्र निसारउद्दीन अहमद को साल 1994 में बाबरी मस्जिद ध्वंस की पहली बरसी पर हुए धमाके के आरोप में पुलिस ने कर्नाटक के गुलबर्गा से गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. निसारउद्दीन अहमद 23 साल तक जेल में रहा, लेकिन पुलिस उसके खिलाफ एक भी सबूत पेश नहीं कर पाई और सुप्रीम कोर्ट ने उसको बरी कर दिया. यह आज की पुलिस और हमारी अदालतों का सच है, जो हमारी गाड़ी-कमाई के पैसे से पलती और चलती हैं. आज महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य शोषित समाज के लोगों पर अत्याचार बढ़े हैं. किसी भी अपराधी को न्याय और अदालतों कोई खौफ़ है ही नहीं, सब वेलगाम और उन्मुक्त हैं.
इसके अलावा हमारे राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में भ्रष्टाचार बढ़ा है. हमारे आज के नेताओं की समझ और उनका कद पहले के नेताओं के समाने बौना नज़र आता है. देश की नौकरशाही और बाबूगिरी तो अक्षम और निक्कमी होकर रह गयी है. आज़ादी के बाद तो देश के शैक्षणिक संस्थान व विश्वविद्यालय तो जातिगत उत्पीड़न के नए प्रतीक बनकर उभरे हैं, जो जितना बड़ा प्रगतिशील और विद्वान कहलाता है, वह पर्दे के पीछे उतना ही बड़ा कट्टर जातिवादी और मनुवादी व्यवस्था का पोषक नज़र आता है. आज देश के विश्वविद्यालयों में कब्ज़ा जमाए बैठे जातिवादी प्रोफेसरों तथा देश की जनता की कमाई पर पलने वाले परजीवी रूपी तथाकथित विद्वानों व बुद्धिजीवियों में और देश के सुदूर गाँव के एक अनपढ़ कट्टर ब्राहमणवादी मनुवादी में कोई अंतर नज़र नहीं है. बल्कि अनुभव तो यह कहता है कि उस गाँव के गँवार को समझाया जा सकता है और वह कुछ हद तक अपनी निर्ममता को कम कर सकता है. लेकिन देश के शैक्षणिक संस्थानों में कब्ज़ा जमाए इन तथाकथित बुद्धिजीवियों और शिक्षकों से न्याय या दयालुता की उम्मीद करना बेमानी है, यह लोग जितने कट्टर और जातिवादी हो सकते हैं, वह एक आम-आदमी की कल्पना से परे है. इनके जुल्मों के आगे तो महाभारत का द्रोणाचार्य भी लज्जित महसूस करेगा. यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए एक नयी तरह की कब्रगाह बन गए हैं. तब भी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं का संघर्ष जारी है और उनकी आवाज़ आज यह लोग दबा नहीं सकते हैं. देश में कई तरह की निराशा का वातावरण है, जैसे कि रोज़गार के साधन नहीं हैं, खेतीबाड़ी में कुछ बच नहीं रहा है, उलटे किसान और आत्महत्या करने को मजबूर हैं. देश के सार्वजनिक बैंकों का घाटा अरबों में पहुँच गया है, उद्योगपतियों को अरबों का ऋण दे दिया गया है, लेकिन किसान को मरता छोड़ दिया जा रहा है. देश के कई हिस्सों का वातावरण अशांत है, वहाँ की समस्याओं का मानवीय हल निकालने के बजाय दमन की नीतियाँ अपनाई जा रहीं हैं. विदेशों से हमारे राजनैतिक और कुटनीतिक संबंध अब पहले की तरह स्थाई नहीं रह गए हैं, सरकार पूंजीवादी देशों की नीतियों का समर्थन कर रही है और उन्हीं शक्तियों को अपना अगुआ भी मानकर चल रही है. इन सबके बाबजूद बृहत भारतीय उपमहाद्वीप में लोकतंत्र संकट में रहा है, इराक़ से लेकर मालदीव देश तक. जैसे: इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत, नेपाल, बंगलादेश, म्यांमार, थाईलैंड और मालदीव व अन्य देशों में लोकतंत्र कई बार खतरे में पड़ा और कई देशों में यह अब भी बंधक ही है. लेकिन भारत में यह बचा रहा है, तो इसका श्रेय भारतीय नागरिकों के जाता है. लेकिन हम भारतीय ही हैं जो तमाम तरह के संकटों और विभिन्न सामाजिक अंतर्विरोधों के बाबजूद अपना लोकतंत्र बहुत ही अच्छे से चला रहे हैं और आज आज़ादी की सत्तरवीं साल गिरह शान से सभी भारतवासी मिलकर मना रहे हैं. 
  -डॉ. सुरजीत कुमार सिंह
(लेखक वर्धा स्थित महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक हैं और उसी विश्वविद्यालय में डॉ. अम्बेडकर अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक रहे हैं.)
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