"घर को ही आग लग गई घर के चिराग से"
8 जुलाई 2016 को कश्मीर के एक स्कूल के प्रिंसिपल का बेटा और हिजबुल मुजाहिदीन का दस लाख रुपए का ईनामी आतंकवादी बुरहान वानी की मौत के बाद से आज तक लगातार सुलगता कश्मीर कुछ ऐसा ही आभास कराता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर को मुद्दा बनाने के मकसद से घाटी में पाक द्वारा इस प्रकार की प्रायोजित हिंसा कोई पहली बार नहीं है।
15 अगस्त 1947 में भारत की आज़ादी के महज़ दो महीने के भीतर 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला करके अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। तब से लेकर आज तक कश्मीर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं 1947, 1965, और 1999 में कारगिल। आमने सामने की लड़ाई में हर बार असफल होने पर अब पाक इस प्रकार से बार बार पीठ पीछे वार करके अपने नापाक इरादों को सफल करने की असफल कोशिशों में लगा है।
12 अगस्त 2016, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है। वह जम्मू कश्मीर के चार हिस्सों : जम्मू, कश्मीर घाटी, लद्दाख और पीओके में शामिल है और बातचीत में इन सभी को शामिल करना होगा। इससे पहले भारतीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इसी प्रकार का वक्तव्य दे चुके हैं।
22 अक्तूबर 1947 से इस बात को कहने के लिए इतने साल लग गए ।पहली बार भारत ने कश्मीर मुद्दे पर दिए जाने वाले अपने बयान में मूलभूत बदलाव किया है। भारत सरकार ने पहली बार कश्मीर मुद्दे पर रक्षात्मक होने के बजाये आक्रामक शैली अपनाई है. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर मुद्दे पर पाक को स्पष्ट रूप से यह सन्देश दे दिया है कि अब बात केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर एवं घाटी में पाक द्वारा प्रयोजित हिंसा पर ही होगी. साथ ही बलूचिस्तान एवं पी ओ के में रहने वाले लोगों की दयनीय स्थिति एवं वहाँ होने वाले मानव अधिकारों के हनन के मुद्दे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठा कर न सिर्फ भारतीय राजनीति में बल्कि पाक एवं वैश्विक स्तर पर भी राजनैतिक परिद्रश्य बदल दिया है.
बीते अक्तूबर में यूनाइटेड नेशनस जनरल एसेम्बली में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से कहा था कि मुद्दा "पीओके" है न कि जम्मू कश्मीर।
कश्मीर हमारे देश की जन्नत है भारत का ताज है और हमेशा रहेगा लेकिन क्यों आज तक हमने कभी अपने ताज के उस हिस्से के बारे में जानने की कोशिश नहीं करी जो पाकिस्तान के कब्जे में है? हमारे अपने ही देश से कश्मीर में मानव अधिकार हनन का मुद्दा कई बार उठा है लेकिन क्या कभी एक बार भी राष्ट्रीय अथवा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पाक अधिकृत कश्मीर में मानव अधिकारों के हनन पर चर्चा हुई है? इसे पाक सरकार की कूटनीतिक चातुरता और अब तक की भारतीय सरकारों की असफलता ही कहा जा सकता है कि पाक द्वारा लगातार प्रायोजित आतंकवाद, सीमा पर गोली बारी और घुसपैठ के कारण कश्मीर में होने वाली मासूमों की मौतों के बावजूद अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर एक मुद्दा है लेकिन पीओके पर किसी का कोई बयान नहीं आता, उसकी कोई चर्चा नहीं होती। दरअसल कश्मीर समस्या की जड़ को समझें तो शुरुआत से ही यह एक राजनैतिक समस्या रही है जिसे पंडित नेहरू ने यू एन में ले जाकर एक अन्तराष्ट्रीय समस्या में तब्दील कर दिया था। यह एक राजनैतिक उद्देश्य से प्रायोजित समस्या है जिसका हल राजनीति कूटनीति और दूरदर्शिता से ही निकलेगा।
कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने हाल ही में स्वीकार किया है कि कुल दो प्रतिशत लोग हैं जो कश्मीर की आज़ादी की मांग करते हैं और अस्थिरता फैलाते हैं जबकि वहाँ का आम आदमी शांति चाहता है रोजगार चाहता है तरक्की चाहता है और अपने बच्चों के लिए एक सुनहरा भविष्य चाहता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह दो प्रतिशत लोग वे ही हैं जो पाकिस्तान के छिपे एजेन्डे को ही आगे बढ़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा कि जिन हाथों में लैपटॉप होने चाहिए थे उनमें पत्थर थमा दिए अब उन हाथों से पत्थर छुड़ा कर लैपटॉप थमाने की राह निश्चित ही आसान तो नहीं होगी।
कश्मीर भारत के उत्तरी इलाक़े का वो राज्य है जिसमें जम्मू, कश्मीर और लद्दाख आता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि आज़ादी के बाद से ही जम्मू और लद्दाख भारत में खुश हैं तो कश्मीर क्यों नहीं है? क्यों आज कश्मीर का उल्लेख भारत के एक राज्य के रूप में न होकर समस्या के रूप में होता है। क्यों आज कश्मीर की जब हम बात करते हैं तो विषय होते हैं आतंकवाद, राजनीति, कश्मीरी पंडित या लाइन आफ कंट्रोल पर होने वाली गोलाबारी? वहाँ की खूबसूरती, वहाँ का पर्यटन उद्योग क्यों नहीं होता? हम केवल अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले कश्मीर की बात करते आये हैं वो भी बैकफुट पर! लेकिन क्या हमने कभी पाक अधिकृत कश्मीर की बात करी ? कश्मीर में आतंकवादियों तक के मानव अधिकारों की बातें तो बहुत हुई लेकिन क्या कभी पीओके अथवा तथाकथित आज़ाद कश्मीर में रहने वाले कश्मीरियों की हालत के बारे में हमने जानने की कोशिश की? क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की कि कितना "आज़ाद" है
'आज़ाद कश्मीर'! हाल ही में ब्रिटिश थिंक टैंक "चथम हाउस" द्वारा पीओके में कराए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य निकल कर आया है कि वहाँ के 98% स्थानीय कश्मीरी पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते हैं।
कश्मीरी नागरिक अरीफ शहीद द्वारा उर्दू में लिखी उनकी पुस्तक "कौन आज़ाद कौन ग़ुलाम" में उन्होंने तथाकथित आज़ाद कश्मीरियों के दर्द को बखूबी प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार भारत में रहने वाले कश्मीरी आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से उसी प्रकार आज़ाद हैं जैसे भारत के किसी अन्य राज्य के लोग। किन्तु पाक अधिकृत कश्मीर में आने वाले गिलगित और बाल्टिस्तान के लोगों की स्थिति बेहद दयनीय है।
जहाँ भारत सरकार आज तक इस बात को सुनिश्चित करती है कि किसी भी दूसरे राज्य का व्यक्ति कश्मीर में रह नहीं सकता, वहाँ का नागरिक नहीं बन सकता, वहीं दूसरी ओर पीओके आतंक का अड्डा बन चुका है। वहाँ पर आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैम्प चलते हैं और वह लश्कर ए तैयबा का कार्य स्थल है।इन ट्रेनिंग कैम्पों के कारण वहाँ का स्थानीय नागरिक बहुत परेशान है ।उनमें से कुछ ने तो वहाँ से पलायन कर लिया है और भारत में शरणार्थी बन गए हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि 26/11 के आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाला अजमल कसाब की ट्रेनिंग भी यहीं हुई थी।
आज जब पश्चिमी मीडिया और भारतीय मीडिया के कुछ गिने चुने लोगों द्वारा पीओके की सच्चाई दुनिया के सामने आ रही है तो प्रश्न यह उठता है कि अगर अब तक इस मुद्दे की अनदेखी एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था तो यह भारत के ख़िलाफ एक बहुत ही भयानक साजिश थी लेकिन यदि यह नादानी अथवा अज्ञानता वश हुआ तो यह हमारी अत्यधिक अक्षमता ही कही जाएगी।
पाकिस्तान द्वारा अन्तराष्ट्रीय मंचों पर बार बार कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग उठाई जाती रही है। उसकी इस मांग पर अखबारों एवं टीवी चैनलों पर अनेकों वाद विवाद हुए लेकिन यह भारतीय मीडिया एवं अब तक की सरकारों की अकर्मण्यता ही है कि आज तक 13 अगस्त 1948 के उस यू एन रेसोल्यूशन का पूरा सच देश के सामने नहीं रखा गया कि किसी भी प्रकार के जनमत संग्रह के बारे में 'सोचने' से भी पहले पाकिस्तान को कश्मीर के उस हिस्से को खाली करना होगा।
समस्या कोई भी हो हल निकाला जा सकता है आवश्यकता इच्छाशक्ति की होती है। यह सर्वविदित है कि कश्मीर मुद्दा पाक नेतृत्व के लिए संजीवनी बूटी का काम करता है इसी मुद्दे के सहारे वे सरकारें बनाते हैं और इसी के सहारे अपनी नाकामयाबियों से वहाँ की जनता का ध्यान हटाते हैं तो कश्मीर समस्या का हल पाक कभी चाहेगा नहीं, सबसे पहले इस तथ्य को भारत को समझना चाहिए । अत: इस समस्या का समाधान तो भारत को ही निकालना होगा।
सबसे पहले भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान की रोटियाँ कश्मीर की आग से सिकनी बन्द हों। कुछ ऐसी कूटनीति करनी होगी कि जिस आग से वह अपना घर आज तक रोशन करता आया है, वही आग उसका घर जला दे। कश्मीर का राजनैतिक लाभ तो अब तक बहुत उठा लिया गया है अब समय है राजनैतिक हल निकाल कर अपने ताज के टूटे हुए हिस्से को वापस लाने का।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर को मुद्दा बनाने के मकसद से घाटी में पाक द्वारा इस प्रकार की प्रायोजित हिंसा कोई पहली बार नहीं है।
15 अगस्त 1947 में भारत की आज़ादी के महज़ दो महीने के भीतर 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला करके अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। तब से लेकर आज तक कश्मीर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं 1947, 1965, और 1999 में कारगिल। आमने सामने की लड़ाई में हर बार असफल होने पर अब पाक इस प्रकार से बार बार पीठ पीछे वार करके अपने नापाक इरादों को सफल करने की असफल कोशिशों में लगा है।
12 अगस्त 2016, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर भी भारत का अभिन्न अंग है। वह जम्मू कश्मीर के चार हिस्सों : जम्मू, कश्मीर घाटी, लद्दाख और पीओके में शामिल है और बातचीत में इन सभी को शामिल करना होगा। इससे पहले भारतीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी इसी प्रकार का वक्तव्य दे चुके हैं।
22 अक्तूबर 1947 से इस बात को कहने के लिए इतने साल लग गए ।पहली बार भारत ने कश्मीर मुद्दे पर दिए जाने वाले अपने बयान में मूलभूत बदलाव किया है। भारत सरकार ने पहली बार कश्मीर मुद्दे पर रक्षात्मक होने के बजाये आक्रामक शैली अपनाई है. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर मुद्दे पर पाक को स्पष्ट रूप से यह सन्देश दे दिया है कि अब बात केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर एवं घाटी में पाक द्वारा प्रयोजित हिंसा पर ही होगी. साथ ही बलूचिस्तान एवं पी ओ के में रहने वाले लोगों की दयनीय स्थिति एवं वहाँ होने वाले मानव अधिकारों के हनन के मुद्दे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठा कर न सिर्फ भारतीय राजनीति में बल्कि पाक एवं वैश्विक स्तर पर भी राजनैतिक परिद्रश्य बदल दिया है.
बीते अक्तूबर में यूनाइटेड नेशनस जनरल एसेम्बली में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से कहा था कि मुद्दा "पीओके" है न कि जम्मू कश्मीर।
कश्मीर हमारे देश की जन्नत है भारत का ताज है और हमेशा रहेगा लेकिन क्यों आज तक हमने कभी अपने ताज के उस हिस्से के बारे में जानने की कोशिश नहीं करी जो पाकिस्तान के कब्जे में है? हमारे अपने ही देश से कश्मीर में मानव अधिकार हनन का मुद्दा कई बार उठा है लेकिन क्या कभी एक बार भी राष्ट्रीय अथवा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पाक अधिकृत कश्मीर में मानव अधिकारों के हनन पर चर्चा हुई है? इसे पाक सरकार की कूटनीतिक चातुरता और अब तक की भारतीय सरकारों की असफलता ही कहा जा सकता है कि पाक द्वारा लगातार प्रायोजित आतंकवाद, सीमा पर गोली बारी और घुसपैठ के कारण कश्मीर में होने वाली मासूमों की मौतों के बावजूद अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कश्मीर एक मुद्दा है लेकिन पीओके पर किसी का कोई बयान नहीं आता, उसकी कोई चर्चा नहीं होती। दरअसल कश्मीर समस्या की जड़ को समझें तो शुरुआत से ही यह एक राजनैतिक समस्या रही है जिसे पंडित नेहरू ने यू एन में ले जाकर एक अन्तराष्ट्रीय समस्या में तब्दील कर दिया था। यह एक राजनैतिक उद्देश्य से प्रायोजित समस्या है जिसका हल राजनीति कूटनीति और दूरदर्शिता से ही निकलेगा।
कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने हाल ही में स्वीकार किया है कि कुल दो प्रतिशत लोग हैं जो कश्मीर की आज़ादी की मांग करते हैं और अस्थिरता फैलाते हैं जबकि वहाँ का आम आदमी शांति चाहता है रोजगार चाहता है तरक्की चाहता है और अपने बच्चों के लिए एक सुनहरा भविष्य चाहता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह दो प्रतिशत लोग वे ही हैं जो पाकिस्तान के छिपे एजेन्डे को ही आगे बढ़ा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा कि जिन हाथों में लैपटॉप होने चाहिए थे उनमें पत्थर थमा दिए अब उन हाथों से पत्थर छुड़ा कर लैपटॉप थमाने की राह निश्चित ही आसान तो नहीं होगी।
कश्मीर भारत के उत्तरी इलाक़े का वो राज्य है जिसमें जम्मू, कश्मीर और लद्दाख आता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि आज़ादी के बाद से ही जम्मू और लद्दाख भारत में खुश हैं तो कश्मीर क्यों नहीं है? क्यों आज कश्मीर का उल्लेख भारत के एक राज्य के रूप में न होकर समस्या के रूप में होता है। क्यों आज कश्मीर की जब हम बात करते हैं तो विषय होते हैं आतंकवाद, राजनीति, कश्मीरी पंडित या लाइन आफ कंट्रोल पर होने वाली गोलाबारी? वहाँ की खूबसूरती, वहाँ का पर्यटन उद्योग क्यों नहीं होता? हम केवल अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले कश्मीर की बात करते आये हैं वो भी बैकफुट पर! लेकिन क्या हमने कभी पाक अधिकृत कश्मीर की बात करी ? कश्मीर में आतंकवादियों तक के मानव अधिकारों की बातें तो बहुत हुई लेकिन क्या कभी पीओके अथवा तथाकथित आज़ाद कश्मीर में रहने वाले कश्मीरियों की हालत के बारे में हमने जानने की कोशिश की? क्या हमने कभी यह जानने की कोशिश की कि कितना "आज़ाद" है
'आज़ाद कश्मीर'! हाल ही में ब्रिटिश थिंक टैंक "चथम हाउस" द्वारा पीओके में कराए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य निकल कर आया है कि वहाँ के 98% स्थानीय कश्मीरी पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते हैं।
कश्मीरी नागरिक अरीफ शहीद द्वारा उर्दू में लिखी उनकी पुस्तक "कौन आज़ाद कौन ग़ुलाम" में उन्होंने तथाकथित आज़ाद कश्मीरियों के दर्द को बखूबी प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार भारत में रहने वाले कश्मीरी आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से उसी प्रकार आज़ाद हैं जैसे भारत के किसी अन्य राज्य के लोग। किन्तु पाक अधिकृत कश्मीर में आने वाले गिलगित और बाल्टिस्तान के लोगों की स्थिति बेहद दयनीय है।
जहाँ भारत सरकार आज तक इस बात को सुनिश्चित करती है कि किसी भी दूसरे राज्य का व्यक्ति कश्मीर में रह नहीं सकता, वहाँ का नागरिक नहीं बन सकता, वहीं दूसरी ओर पीओके आतंक का अड्डा बन चुका है। वहाँ पर आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैम्प चलते हैं और वह लश्कर ए तैयबा का कार्य स्थल है।इन ट्रेनिंग कैम्पों के कारण वहाँ का स्थानीय नागरिक बहुत परेशान है ।उनमें से कुछ ने तो वहाँ से पलायन कर लिया है और भारत में शरणार्थी बन गए हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि 26/11 के आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाला अजमल कसाब की ट्रेनिंग भी यहीं हुई थी।
आज जब पश्चिमी मीडिया और भारतीय मीडिया के कुछ गिने चुने लोगों द्वारा पीओके की सच्चाई दुनिया के सामने आ रही है तो प्रश्न यह उठता है कि अगर अब तक इस मुद्दे की अनदेखी एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा था तो यह भारत के ख़िलाफ एक बहुत ही भयानक साजिश थी लेकिन यदि यह नादानी अथवा अज्ञानता वश हुआ तो यह हमारी अत्यधिक अक्षमता ही कही जाएगी।
पाकिस्तान द्वारा अन्तराष्ट्रीय मंचों पर बार बार कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की मांग उठाई जाती रही है। उसकी इस मांग पर अखबारों एवं टीवी चैनलों पर अनेकों वाद विवाद हुए लेकिन यह भारतीय मीडिया एवं अब तक की सरकारों की अकर्मण्यता ही है कि आज तक 13 अगस्त 1948 के उस यू एन रेसोल्यूशन का पूरा सच देश के सामने नहीं रखा गया कि किसी भी प्रकार के जनमत संग्रह के बारे में 'सोचने' से भी पहले पाकिस्तान को कश्मीर के उस हिस्से को खाली करना होगा।
समस्या कोई भी हो हल निकाला जा सकता है आवश्यकता इच्छाशक्ति की होती है। यह सर्वविदित है कि कश्मीर मुद्दा पाक नेतृत्व के लिए संजीवनी बूटी का काम करता है इसी मुद्दे के सहारे वे सरकारें बनाते हैं और इसी के सहारे अपनी नाकामयाबियों से वहाँ की जनता का ध्यान हटाते हैं तो कश्मीर समस्या का हल पाक कभी चाहेगा नहीं, सबसे पहले इस तथ्य को भारत को समझना चाहिए । अत: इस समस्या का समाधान तो भारत को ही निकालना होगा।
सबसे पहले भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान की रोटियाँ कश्मीर की आग से सिकनी बन्द हों। कुछ ऐसी कूटनीति करनी होगी कि जिस आग से वह अपना घर आज तक रोशन करता आया है, वही आग उसका घर जला दे। कश्मीर का राजनैतिक लाभ तो अब तक बहुत उठा लिया गया है अब समय है राजनैतिक हल निकाल कर अपने ताज के टूटे हुए हिस्से को वापस लाने का।
-डाँ नीलम महेंद्र
जम्मू और लद्दाख भारत में खुश हैं तो कश्मीर क्यों नहीं है
Reviewed by rainbownewsexpress
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12:40:00 pm
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