धर्म को किससे खतरा, कैसे बचे धर्म

मर्यादा पूर्ण समाज व्यवस्था के लिये धर्म प्रारम्भिक स्थिति है। दुनियां अपने प्रगतिशील चरित्र के कारण अपनी आवश्यकता के उपकरणों का रूपान्तरण करती रहती है। समाज में और व्यापकता व वैश्विकता बढ़ने पर धर्म के आगे की स्थिति विकास के रूप में राजनैतिक दर्शन और व्यवस्थायें अस्तित्व में आयी। लेकिन धर्म का जलबा इसके बाद भी फीका नहीं पड़ा है। हिन्दुस्तान इसका उदाहरण है जहां इन दिनों धर्म को बचाने की गर्मा गर्मी चरम सीमा पर है। अगर इसका अर्थ मर्यादा पूर्ण व्यवस्था को बचाना है तो यह जद्दोजहद अलग तरह की होनी चाहिये। लेकिन अगर धर्म को धर्म से ही खतरा है तब आज धर्म बचाने की जद्दोजहद जिस रूप में चल रही है शायद उसे जायज ही कहना पड़ेगा। कुछ ही सप्ताह गुजरे है जब हिन्दुओं का नवरात्रि पर्व खत्म हुआ है। यह पर्व संदेश देता है कि स्त्री कन्या स्वरूपा में पूज्य है। जिसके प्रति किसी तरह के अश्लील भाव को लाने का पाप मन में नहीं आना चाहिये। लेकिन अचानक बढ़ी पास्को एक्ट की घटनायें बताती है कि नवरात्र में हुये कन्या भोज जैसे कर्म काण्डों के बावजूद कन्या को पवित्र रूप में देखने का मूल्य प्रतिष्ठापित नहीं रह पा रहा। 
निश्चित रूप से यह स्थिति धर्म के क्षय की द्योतक है। लेकिन धर्म बचाने वाले महारथियों ने नवरात्र पर इस पर कोई चिन्तन शिविर नहीं किया। मान्यताओं और करनी में एक रूपता शायद समाज में आज एक भुला देने वाली चीज बन गयी है। बालिकाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाओं में तेजी के पीछे मान्यता और करनी के बीच बढ़ता फासला भी कहीं न कहीं जिम्मेदार है। आखिर कन्या भोज आयोजित करने वाले लोग अपने लड़के लड़कियों के विवाह समारोह में कन्याओं से बैरागीरी कराने के लिये राजी होने के पहले सौ बार सोचने की जरूरत क्यों महसूस नहीं करते। आज कन्याओं से कोल्ड ड्रिंक सर्व करायी जा रही है। सभ्यता और फैशन और बढ़ा तो अगले साल तक वे ड्रिंक भी सर्व करेंगी और उस समय नशे की खुमारी में डूबे लोग उन्हें किस भाव से देखेंगे यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन शायद यह छोटी मोटी बाते है इसलिये धर्म के ठेकेदारों का ध्यान इस ओर खीचने वाले लोग धर्म के असली दुश्मनों के एजेन्ट कहें जायेंगे। जिनसे लड़कर ही ठेकेदारों की दुकानदारी चल पा रही है।
इन दिनों परशुुराम जयन्ती का आयोजन भी बड़े धूमधाम से हुआ। इसमें वक्ताआंे ने बताया कि धर्म को बचाने के लिये परशुराम को 21 बार संहार करना पड़ा था। उस समय तो देश में ईसाई और मुसलमान जैसे विधर्मी नहीं थे। फिर धर्म को खतरा किन लोगों द्वारा पैदा किया जा रहा था। आज तो यह दिखाई दे रहा है कि हमारा धर्म हम जो चाहे करें। दूसरों को क्या। इसलिये धार्मिक ग्रन्थों में अनिवार्य बताये गये संयम अगर हमसे नहीं सध रहे तो किसी को क्या लेना देना। लेकिन लगता है कि परशुराम जी के समय ऐसी स्थिति नहीं थी। तब धर्म के खिलाफ अगर अपने ही चले तो उनका दमन करना भी जरूरी था। तब मर्यादाओं को बचाने के लिये हथियार उठाने लाजिमी थे। लेकिन आज दूसरे धर्मों से शक्ति परीक्षण में हथियार उठाने की जरूरत समझी जाती है। बहरहाल धर्म के शत्रु कौन है परशुराम जी की कथा से यह प्रश्न एक जटिल पहेली बन जाता है। 
धर्म को समझना है तो उन लोगों को समझना पड़ेगा जिन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम और धर्मराज की उपाधियों से विभूषित किया गया। धर्म का निर्वाह कैसे करना पड़ता है उक्त उपाधि धारक इसके रोल माॅडल है। लेकिन एक असमंजस इसमें भी कठिन है। धर्मराज का यह आचरण कौन से धर्म का निर्वाह है कि वह द्यूत व्यसनी हो और इस हद तक हो कि अपनी पत्नी को भी दाव पर लगा दे। महाराणा प्रताप की जयन्ती के आयोजन की भी नयी परम्परा शुरू हुयी है। महाराणा प्रताप अपेक्षाकृत आधुनिक नायक है। जिनका इतिहास कुछ सैकड़ो साल ही पुराना है। जबकि क्षत्रिय जाति काफी प्राचीन है और उसमें महाराणा प्रताप के पहले भी कुल गौरव पैदा होते रहे होंगे और उनकी जयन्तियां मनती रही होगी। लेकिन आज वे नायक विस्मृत हो गये। महाराणा प्रताप वीर योद्धा थे इसमें संदेह नहीं लेकिन आज उनकी स्मृति इसलिये सर्वोपरि आलोडि़त करने वाली हो गयी है क्योंकि धर्म रक्षा का उद्देश्य इतर धर्मियों से निपटने तक में सीमित हो गया है। 
मजे की बात यह है कि इतिहास कहता है कि महाराणा प्रताप और अकबर के बीच जंग की बुनियाद धर्म नहीं था बल्कि राज्य विस्तार और अपने राज्य की अस्मिता को सुरक्षित रखने का द्वन्द्व था। इसलिये महाराणा प्रताप की सेना में कई ओहदेदार मुसलमान थे तो अकबर की सेना के तो सेनापति ही क्षत्रिय थे। बहरहाल भारत का मौजूदा स्वरूप बहुलतावादी है जिसे अब पूर्व की एक रूप स्थिति में स्थिर नहीं किया जा सकता। जिस तरह से अमेरिका के लिये उसका वर्तमान हीं यथार्थ है और अपने राष्ट्रीय स्वरूप की मजबूती के लिये इसी ढ़ाचे में अमेरिका ने सारी रणनीतियां तैयार की है। भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने का सपना हर देशवासी देख रहा है लेकिन सवाल यह है कि वह जिस स्वरूप में आज पहुंच चुका है क्या उसे यथार्थ मानकर इसके लिये रणनीति तैयार करने की बुद्धिमत्ता दिखाई जा रही है।
-के.पी. सिंह, उरई, जालौन (उ.प्र.)
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