वन संरक्षण के नाम पर मानव उत्पीडन की स्थितियां निर्मित की जाने लगीं हैं। कम दूरी के रास्तों की भूमि पर वन क्षेत्र विकसित करने की योजनाओं को अन्तिम रूप मिलते ही संबंधित विभाग का विशेषाधिकार लागू हो जाता है। आवागमन की सुविधायें नई समस्याओं के रूप में परिभाषित होने लगतीं हैं। राष्ट्रीय उद्यानों की तो बात ही निराली है। संरक्षित पशुओं की संख्या में निरंतर कमी होने के बाद भी उनके वजट में बढोत्तरी ही हो रही है। उपलब्धियों के नाम पर कागजी आंकडों से लेकर आख्याओं तक की बाजीगरी, योजनाओं के नाम पर पक्षियों की गिनती से लेकर दुर्लभ प्रजातियों को संरक्षण देने तक के अनेक कार्यक्रमों का मसौदा और प्रकृति की सुरक्षा के नाम पर वृक्षारोपण से लेकर हरित क्रान्ति तक के उपायों तक का ढिंढोरा पीटने वाले विभाग के पास अनगिनत स्वविवेकी अधिकार है जिनका प्रयोग प्रश्न चिन्ह अंकित करने वालों पर खुलकर किया जाता है। मानव की सुविधा के लिए बनाई जाने वाली रेलवे लाइन से लेकर राष्ट्रीय राजमार्गों तक को वन-उद्यान भूमि से विस्थापित कर दिया जाता है। सीधे रास्तों का लम्बी दूरी में तब्दील होते ही जहां निर्माण कार्यों के वजट में भारी बढोत्तरी होती है वहीं इन रास्तों के उपयोग से निरंतर खर्चों में इजाफा होने की स्थिति भी निर्मित होती है जो समय और धन के दुरुपयोग के रूप में विश्लेषित की जा सकती है। मितव्ययिता के स्थान पर अतिव्ययिता को स्थापित करने वाले हमेशा के लिए खर्चे बढाने की दूरगामी नीतियों को अमली जाम पहनाकर किन्हीं खास कारणों से विकास के नाम पर विनाश का तांडव करने में जुटे हैं। मानवीय सुविधाओं पर पशुओं का अधिकार हावी होता जा रहा है। संसाधनों की प्रगति पर अवरोधों का मकड जाल हावी होता जा रहा है। वन संरक्षण, वन्य जीव संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण सहित अनेक तलवारों से मानवीय काया को किस्तों में कत्ल करने वाले व्यवस्था के ठेकेदार राष्ट्रहित के नाम पर अपने पौ-बारह करने में जुटे हैं। फिलहाल इतना ही, नवप्रभात पर रेखाकिंत किये जाने योग्य एक नये मुद्दे के साथ फिर मिलेंगे। तब तक के लिए अनुमति दीजिये।
मानवीय सुविधाओं पर हावी होता पशुओं का अधिकार
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1:35:00 pm
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