-डाँ नीलम महेंद्र/ परीक्षाओं एवं प्रतियोगिताओं का समय चल रहा है और हमारे बच्चों द्वारा आत्महत्याएं समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनी हुई हैं। पूरे देश में हमारे बच्चे परीक्षा दे रहे हैं या दे चुके हैं और इस दौरान बच्चों से ज्यादा मनोवैज्ञानिक दबाव में माता पिता रहते हैं जिसे वह जाने अनजाने अपने बच्चों के भीतर स्थानांतरित कर देते हैं, यह आज के दौर की सच्चाई है जबकि हम सभी इस तथ्य से वाकिफ हैं कि तनावमुक्त परिस्थितियों का प्रदर्शन तनाव युक्त परिस्थिति से हमेशा बेहतर होता है।अभिभावकों को इस बात का एहसास होना चाहिए कि जिस प्रकार माता पिता दुनिया में सबसे अधिक प्रेम अपने बच्चों से करते हैं उससे कहीं अधिक प्रेम बच्चा अपने माता पिता से करता है,उसे अपनी चोट पर उतना दर्द नहीं होता जितना माता पिता की पीड़ा में होता है।
एक नन्हा सा जीव जब इस दुनिया में आता है तो माता पिता ही उसकी दुनिया होते हैं।धीरे धीरे वह बड़ा होता है तो उसकी दुनिया भी बड़ी होने लगती है उसका वह छोटा सा संसार जिसमें माता पिता का एकाधिकार था अब भाई बहनों, दोस्तों, दादा-दादी, नाना-नानी, अड़ोसी-पड़ोसी आपके नौकर चाकर आदि से विस्तृत होने लगता है किन्तु फिर भी माता पिता का स्थान तो नैसर्गिक रूप से सर्वोपरि ही रहता है। वह बच्चा शब्दों की भाषा से अनजान होता है न बोल पाता है और न ही समझ पाता है किन्तु फिर भी अपनी माँ से बात कर लेता है और माँ उससे --जी हाँ उस भाषा में जो संसार के हर कोने में हर प्राणी के द्वारा समझी व महसूस की जाती है, "प्रेम की भाषा" नि:स्वार्थ प्रेम, न कोई अपेक्षा न कोई शिकायत केवल भावनाओं का संगम!
बच्चा कभी डर जाए तो पिता के मजबूत हाथों का स्पर्श मात्र उसे हौंसला प्रदान करता है,जरा सी धूप की तपिश भी लगे तो माँ का आँचल उसे ममता की छाँव से भिगो देता है, घर के किसी कोने में भी छिप जाए उसे मन ही मन पता होता है कि पापा मम्मी उसे ढूंढ ही लेंगे।वह अनेकों बार इस बात को महसूस कर चुका है कि बिन कहे मम्मी उसकी बात सुन लेती हैं और बिना पूछे पापा उसके मन की बात जान लेते हैं और वो भी तो उनके चेहरे को पढ़ कर समझ जाता है कि आज पापा मम्मी खुश हैं या नाराज !फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि 15-16 वर्ष का होते होते वह कुछ कहना भी चाहता है तो कह नहीं पाता और उसके बिना कहे ही हर बात समझने वाले माता पिता आज उसे समझ नहीं पा रहे? क्या यह माता पिता के रूप में हमारी नाकामी नहीं है? ये कैसा दोराहा आ जाता है जहाँ कभी एक दूसरे के चेहरे की सिलवटों की भाषा समझने वाले आज एक दूसरे को ही नहीं समझ पा रहे!
विद्यालय में प्रवेश लेते ही वह बच्चा जिसकी नादानियों पर हम उसकी बलाएँ लेते थे आज उसकी एक गलती पर उसे डाँटने लगते हैं,जिस बच्चे से हमें कभी कोई शिकायत नहीं होती थी आज उसी से अपेक्षाओं का पहाड़ है!इसका परिणाम --वह बच्चा जिसके ह्रदय में माता पिता को देखते ही सर्वप्रथम प्रेम व लाड के भाव उमड़ते थे आज उन्हें देखते ही उनकी अपेक्षाओं पर अपनी असफलता से उपजे डर और अपराध बोध की अनुभूति होती है। समय के चक्र के साथ भावनाओं का परिवर्तन होने लगता है और प्रेम के ऊपर भय और निराशा की विजय होती है। जैसे कि वह कह रहा हो-
शायद तेरा गर्व भी हूँ,
आज खुद से ही हारा हूँ मैं माँ,
अब शायद तेरा दर्द भी हूँ।
तेरी आँखों में मैंने अपने लिए अनेकों सपने देखे थे
पर वो सपने तुझको नहीं मुझको ही पूरे करने थे
कोशिश बहुत की माँ कि तेरा हर सपना सच्चा कर सकूँ
लेकिन चाहने मात्र से सपने सच्चे नहीं होते ये बात तुझसे मैं कह न सकूँ
इस बार माफ कर दे माँ अगली बार फिर से मैं आऊँगा
फिर तेरी गोद खिलाऊँगा हर सपना सच्चा कर के दिखलाऊँगा।
हम माता पिता हैं ,हमें अपने बच्चों से प्रेम है और होना भी चाहिए।लेकिन हम भूल जाते हैं कि प्रेम में समर्पण होता है अधिकार नहीं, स्वतंत्रता का एहसास होता है बन्धन का नहीं,जो जैसा होता उसे उसी रूप में स्वीकार करने की भावना होती हैं बदलने की अपेक्षाएं नहीं तो फिर हम अपने बच्चों को क्यों बदलना चाहते हैं जो काम वो नहीं कर सकते या फिर करना नहीं चाहते, हम उनसे बड़े और समझदार होते हुए भी उनसे वही काम कराने का बचपना क्यों करने लगते हैं जिसकी कीमत भी बाद में हम ही चुकाते हैं! जिस बच्चे के खिलौने कपड़े बैग बोतल टिफिन जैसी चीजें हम उसकी पसंद से लेते हैं उससे उसी के जीवन,उसके व्यक्तित्व, उसके भविष्य, उसकी खुशी से जुड़ी सबसे अहम बात कि वह अपना जीवन कैसे जीना चाहता है, वह क्या बनना चाहता है, क्या करना चाहता है, यह नहीं पूछते! समाज में स्वयं को ऊँचा दिखाने के लिए पढ़ाई में खराब प्रदर्शन पर हम उसे नीचा दिखाने लगते हैं!
क्या आप जानते हैं हर साल भारत में हमारे बच्चों द्वारा लगभग एक लाख आत्महत्याएं होती हैं?सम्पूर्ण विश्व की होने वाली आत्महत्याओं में से 10% भारत में होती हैं।15 -20 वर्ष के युवाओं में आत्महत्या के मामलों में 200% तक की वृद्धि हुई है।हम अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकते इसमें दोष केवल बच्चों का नहीं है यह माता पिता के रूप में हमारी असफलता की कहानी है।पहले संयुक्त परिवार होते थे माता पिता की डाँट थी तो दादा दादी का दुलार भी था ।जो बच्चे कल तक दादी नानी की कहानियाँ सुनकर परियों के सपने देखते हुए सोते थे , वो आज एकल परिवारों में बाइयों की गोद में माता पिता के इंतजार में रो रो कर सो जाते हैं।तब बच्चों के बेस्ट फ्रेंड उनके दादा दादी होते थे जिनसे वे अपनी हर वो बात शेयर करते थे जो डर के कारण माता पिता को नहीं बता पाते थे,मन भी हल्का हो जाता था और सही मशवरा भी मिल जाता था ।आज अपने बच्चों से हमारी अपेक्षाओं एवं व्यस्तताओं ने दोनों के बीच एक ऐसी अद्रश्य दीवार खड़ी कर दी है जिसके कारण न हम एक दूसरे को पहले जैसे सुन पाते हैं न ही समझ पाते हैं,जो काम घर के बड़े बूढ़े बातों बातों में कर देते थे आज हेल्पलाइन्स और प्रोफेशनल काउन्सलरस करते हैं।
अगर बच्चे के मन में भय की भावना के स्थान पर प्रेम की भावना हो, असफल होने पर माता पिता की ओर से शंका नहीं विश्वास हो कि चाहे कुछ भी हो जाए हम तुम्हारे साथ हैं तो कोई भी बालक इस प्रकार के कदम नहीं उठा सकता क्योंकि विजय हमेशा प्रेम की होती है अगर किसी परिस्थिति में बच्चे को आत्महत्या करने जैसा ख्याल आ भी जाएगा तो खुद से पहले वह अपने मम्मी पापा की सोचेगा।जब उसके मन को यह विश्वास होगा कि मेरी असफलता तो मेरे माता पिता सह सकते हैं लेकिन मेरा बिछोह नहीं, तो प्रेम की सकारात्मक सोच से हर नकारात्मक सोच की हार होगी और हमारे बच्चे ही नहीं हम भी विजेता बन कर उभरेंगे।
क्या आप जानते हैं हर साल भारत में हमारे बच्चों द्वारा लगभग एक लाख आत्महत्याएं होती हैं?सम्पूर्ण विश्व की होने वाली आत्महत्याओं में से 10% भारत में होती हैं।15 -20 वर्ष के युवाओं में आत्महत्या के मामलों में 200% तक की वृद्धि हुई है।हम अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकते इसमें दोष केवल बच्चों का नहीं है यह माता पिता के रूप में हमारी असफलता की कहानी है।पहले संयुक्त परिवार होते थे माता पिता की डाँट थी तो दादा दादी का दुलार भी था ।जो बच्चे कल तक दादी नानी की कहानियाँ सुनकर परियों के सपने देखते हुए सोते थे , वो आज एकल परिवारों में बाइयों की गोद में माता पिता के इंतजार में रो रो कर सो जाते हैं।तब बच्चों के बेस्ट फ्रेंड उनके दादा दादी होते थे जिनसे वे अपनी हर वो बात शेयर करते थे जो डर के कारण माता पिता को नहीं बता पाते थे,मन भी हल्का हो जाता था और सही मशवरा भी मिल जाता था ।आज अपने बच्चों से हमारी अपेक्षाओं एवं व्यस्तताओं ने दोनों के बीच एक ऐसी अद्रश्य दीवार खड़ी कर दी है जिसके कारण न हम एक दूसरे को पहले जैसे सुन पाते हैं न ही समझ पाते हैं,जो काम घर के बड़े बूढ़े बातों बातों में कर देते थे आज हेल्पलाइन्स और प्रोफेशनल काउन्सलरस करते हैं।
अगर बच्चे के मन में भय की भावना के स्थान पर प्रेम की भावना हो, असफल होने पर माता पिता की ओर से शंका नहीं विश्वास हो कि चाहे कुछ भी हो जाए हम तुम्हारे साथ हैं तो कोई भी बालक इस प्रकार के कदम नहीं उठा सकता क्योंकि विजय हमेशा प्रेम की होती है अगर किसी परिस्थिति में बच्चे को आत्महत्या करने जैसा ख्याल आ भी जाएगा तो खुद से पहले वह अपने मम्मी पापा की सोचेगा।जब उसके मन को यह विश्वास होगा कि मेरी असफलता तो मेरे माता पिता सह सकते हैं लेकिन मेरा बिछोह नहीं, तो प्रेम की सकारात्मक सोच से हर नकारात्मक सोच की हार होगी और हमारे बच्चे ही नहीं हम भी विजेता बन कर उभरेंगे।
-डाँ नीलम महेंद्र
क्या इतना बुरा हूँ में माँ, तो.........
Reviewed by rainbownewsexpress
on
1:54:00 pm
Rating:
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें