राजनैतिक हिंसा,हिंसा न भवति

सूबे की जनता लंबे समय तक भ्रष्ट व अराजक तत्त्वों को नहीं झेल सकती

-डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह/ पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव-2016 गंभीर आरोपों-प्रत्यारोपों और विवादों के बीच संपन्न हाने जा रहा है। सात चरणों वाले इस चुनाव का अंतिम चरण आगामी पांच मई को लोकतंत्र के संवैधानिक यज्ञ के बतौर संपन्न होगा। हालांकि इस यज्ञ की आहूति में अब तक लगभग दर्जनों अमूल्य जीवन की बलि दी जा चुकी है। पक्ष-विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ़ तन कर खड़े हैं। ज़ाहिर है सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए ये कुर्बानियां दी जा रही हैं। सवाल है देश के सबसे अधिक राजनैतिक रूप से सचेत प्रदेश पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का यह दौर क्या यों ही चलता रहेगा, या इस पर विराम भी लगेगा! चुनावों के दौरान मतदान के पूर्व या बाद में राजनीतिक हिंसा के शिकार ज़मीनी स्तर के कार्यकताã या स्थानीय स्तर के नेता हो रहे हैं। इस बार की इस ख़्ाूनी जंग की ख़्ाासियत रही कि कमोवेश सत्तासीन व विपक्षी दोनों ही ख्ोमों के लोगों की नृशंस हत्याएं हो रही हैं।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा कोई नयी परिघटना है। वाम मोर्चा सरकार के कार्यकाल से पूर्व सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्रित्व काल में भी वीभत्स हिंसा का ताण्डव चला था। यह वह दौर था जब प्रदेश के साथ ही बिहार, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में नक्सली आंदोलन अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। तब चुन-चुनकर नक्सलियों और माकपाइयों की हत्याएं करायी गयीं...। चारों तरफ़ लूटपाट, हत्या व अराजकता का माहौल था। इसी अराजकता व हिंसक राजनीति के खिलाफ़ 1977 के आम चुनाव में सूबे की जनता ने वाम राजनीति के पक्ष में मतदान कर माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा की सरकार बनवायी। आम जनता को बंगाल में एक नये सूर्य के उदय से शांति व प्रगति के दौर की उम्मीद जगी। देश में गठबंधन राजनीति के रूपकार ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चा ने आम जनों के हित में कुछ अच्छे काम भी किये। मज़दूर-किसान व निमÝ मध्य वर्ग के गणतांत्रिक अधिकार सुनिश्चित हुए। सामंती दमन व उत्पीड़न के अलावा पुलिस तंत्र की मनमानी पर कुछ हद तक रोक भी लगी। लेकिन दस वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद वाममोर्चा के घटक दलों में माफिया व समाजविरोधी तत्त्वों ने अपनी पैठ बनानी शुरू की। नतीजतन राजनीति के अपराधीकरण का दौर शुरू हुआ। राजनैतिक विरोधियों से हिंसक तरीक़े से निपटने की प्रवृत्ति कॉमरेडों में बढ़ी जो वामशासन के अंतिम चरण में अपनी भयावह शक्ल में प्रकट हुई। 34 वर्ष की लंबी शासनावधि में वाममोर्चा नेतृत्व निरंकुशता, भ्रष्टाचार और वित्तीय अनियमितताओं के दलदल में धंसता चला गया। राजनीतिक दलों की सामाजिक घुसपैठ इतनी ज़्यादा बढ़ी कि संगीन पारिवारिक विवाद भी पार्टी के कॉमरेडों की मध्यस्थता में निपटाये जाने लगे। कई मामलों में तो अदालत के आदेश की अवमानना भी सामने आने लगी। संवैधानिक लोकतंत्र के तहत ही बंगाल में, 'डिक्टेटरशिप ऑफ वन पार्टी’ कायम हुई। इसी रफ़्तार से मत विरोध के दमन में समाज विरोधी तत्त्वों की सक्रियता सामने आने लगी। ज़ाहिर है बंगाल और भद्र बंगाली अवाम के लिए यह कदापि संभव नहीं था कि वह ऐसी अराजकता, अभद्रता तथा दार्शनिक असहिष्णुता को सहन करे। आम मतदाताओं ने एक बार बैलट के ज़्ारिए परिवर्तन के पक्ष में मतदान करतेे हुए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के नेतृत्व में अपनी आस्था व्यक्त की। बंगाल में एक बार फिर उम्मीद की जाने लगी कि प्रदेश में लोकतांत्रिक माहौल क़ायम होगा। आम जन शांति व प्रगति का स्वाद चख सकेंगे। लेकिन अफ़सोस कि साढ़े चार से पांच साल के तृकां के कार्यकाल में जनता की चिरलंबित आकांक्षाएं प्रतिफलित नहीं हुईं। बेशक सूबे में बढ़ती हिंसा को ले बंगाल और भद्र बंगाली अवाम बेहद असमंजस में है।
इस चुनाव के परिणामस्वरूप सत्तासीन तृणमूल कांग्रेस पर 'सारधा व नारदा काण्ड’ का कहां तक असर होगा यह तो आगामी 19 मई को ही मतों की गणना के साथ स्पष्ट हो जाएगा। बहरहाल, मुख्य चुनाव आयोग के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तनातनी भी इन दिनों मीडिया की सुर्खियों में बनी हुई है । प्रदेश के चुनाव को लेकर चुनाव आयोग का कुछ ज़्यादा संजीदा होना जहां चर्चा का विषय बना हुआ है वहीं ममता बनर्जी ने अपने असंयमित बयानों के ज़रिये अपनी छवि एक दबंग मुख्यमंत्री की बनायीं हंै। यह निश्चित तौर पर उन उम्मीदों पर प्रश्न चिह्न् लगाती है जिसमें जनता ने सत्ता के 'परिवर्तन’ के बाद नयी सरकार के प्रति लगा रखी थी। यहां पश्चिम बंगाल के संदर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चुनाव के दौरान मर्यादित भाषा के इस्तेमाल और बेतुके बयानों से बचने का ही यह नतीजा रहा कि वह बिहार में नरेंद्र मोदी की करिश्मा को रोकने में सफल रहे।
ऐसा भी नहीं है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का दौर कोई नया हो। कांग्रेस के कार्यकाल में फारवर्ड ब्लॉक के वरिष्ठ नेता हेमंत बोस की राजनीति से जुड़े आतताइयों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। जहां कांग्रेस के शासनकाल में ऐसी राजनैतिक हत्याओं का दीर्घ इतिहास है वैसा ही वाममोर्चा के शासनकाल में भी। राजनीतिक हिंसा का दौर इस बात का संकेत है कि पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की नींव अभी भी पुख़्ता नहीं हुई है। जबकि प्रदेश की जनता ने इसके एवज में काफ़ी कीमत चुकायी है। राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण के अभिशाप से यह प्रदेश भी अछूता नहीं रहा। दरअसल, देश की आज़ादी के बाद से लोकतांत्रिक संस्कृति के विकास और विस्तार में राजनैतिक दलों की जो भूमिका होनी चाहिए थी वह लगभग शून्य रही। माकपा समेत अन्य वामदलों ने अपने विरोधियों से आदर्शगत राजनैतिक संघर्ष की जो प्रारंभिक कोशिश की थी वह सत्ता की जोड़ तोड़ की राजनीतिक के चक्कर में दम तोड़ती नज़र आ रही है। कांग्रेस, भाजपा और तृणमूल कांग्रेस जैसे दक्षिणपंथी दलों में तो यह लोकतांत्रिक संस्कृति शुरू से ही पनप नहीं पायी। नतीजा आज पूरे देश के सामने है। आज लोकसभा में क़रीब एक सौ से अधिक ऐसे सांसद हैं जिनके खिलाफ़ देश के विभिन्न अदालतों और पुलिस थानों में हत्या, अपहरण, दुष्कर्म व आगजनी आदि के मामले लंबित हैं। इसलिए राजनीति में बढ़ रहे अपराधीकरण की प्रवृत्ति के लिए कमोवेश देश का प्रत्येक स्थापित राजनैतिक दल जिम्मेदार है। चुनावों में काले धन का खुलकर इस्तेमाल होने से पार्टियों के अनुभवी व ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए दरवाजे बहुत पहले बंद हो चुके हैं।
आख़्िार इस राजनैतिक हिंसा की रोकथाम कैसे हो इस पर चुनाव आयोग से लेकर राजनेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को मंथन करना होगा वरना, इस कथित 'लोकतंत्र’ की चक्की में आम व मेहनतकश जनता यों हीं पिसती रहेगी। आज़ादी का वास्तविक सपना किसी के सामने साकार नहीं हो सकेगा। ज़ाहिर है हिंसा की राजनीति हर हाल में बंद होनी चाहिए। कारण कि यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल नहीं है। और भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगना चाहिए। ज़ाहिर है सूबे की जनता लंबे समय तक भ्रष्ट व अराजक तत्त्वों को नहीं झेल पायेगी। 
-डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह
संपादक: 'आपका तिस्ता-हिमालय’
'अमरावती’, अपररोड गुरुंगनगर, पोस्ट-प्रधाननगर
सिलीगुड़ी-3 (प.बं.)
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