बाबा साहब को दलितों के मसीहा से आगे ले जाने की जरूरत

-के.पी. सिंह/ बाबा साहब डा.अम्बेडकर की दलित मसीहा के रूप में प्रस्तुति की परंपरा पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस की जानी चाहिये। इससे उनके समूचे योगदान और राजनीतिक रुझान के बारे में तमाम भ्रान्तियां उत्पन्न होती हैं। लखनऊ के बाबा साहब डा.भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय में 7 से 9 मार्च तक हुए अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार के बाबा साहब का वैश्विक दर्शन शीर्षक विषय ने बाबा साहब के बहुआयामी कार्यों और विचारों के कई अनछुए पहलुओं को चर्चा के केन्द्र में लाने का कार्य किया जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके विचारों में ऐसी संभावनायें छुपी हुई हैं जिनसे आज के वैश्विक परिवेश की कई जटिल  गुत्थियों को सुलझाने में मदद मिल सकती है। 
बाबा साहब को शुरूआती दौर में कोई खास मान्यता नहीं दी गयी। इसके बावजूद उनके मानने वालों की संख्या और विचारों पर चर्चा तेज होती गयी। उनके देहावसान के 34 वर्ष बाद भारत सरकार ने उनके शताब्दी वर्ष में तब उनको मरणोपरान्त भारत रत्न देने का फैसला किया जब उन्हें जनमानस के बड़े हिस्से में व्यापक रूप से नवाजा जाने लगा था जबकि संविधान निर्माता होने के नाते उन्हें आजादी के बाद के पहले दशक में ही इस सम्मान से विभूषित कर दिया जाना था। आज तो हालत यह है कि देश का हर राजनीतिक दल बाबा साहब के नाम का मंत्र जाप कर रहा है। देश में ही क्यों विदेशों तक में वे मानवाधिकारवादी विमर्श का केन्द्र बने हुए हैं। आज गैर बराबरी के खिलाफ कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बाबा साहब का नाम लिये बिना होना संभव नहीं है। आने वाले समय में भारत की पहचान बाबा साहब के नाम से होगी क्योंकि वे अब सिर्फ भारत रत्न ही नहीं विश्व रत्न के रूप में स्थापित और मान्य होते जा रहे हैं। 
अपने व्यक्तिगत जीवन में बाबा साहब को अछूत समुदाय में पैदा होने के कारण घोर तिरस्कार और अवहेलना झेलनी पड़ी। अगर उनके पिता सेना में न होते तो संभव था कि अन्य अछूत बच्चों की तरह उनका भी एडमीशन किसी स्कूल में नहीं लिया जाता। स्कूल में दाखिला मिल जाने के बावजूद उन्हें पढ़ाई पूरी करने में नाकों चने चबाने पड़ गये। इसके पीछे उनके पिता की लगन का भी बहुत बड़ा हाथ रहा। जिन्होंने घर के जेवर तक गिरवी रखकर उन्हें पढ़ाया। वे पहले दलित स्टूडेंट थे जिन्होंने देश में मैट्रिक और ग्रेजुएशन तक की शिक्षा पूरी कर पायी लेकिन इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिये कि विपरीत परिस्थितियों की वजह से वे कभी अच्छे अंकों और अच्छी श्रेणी से पास नहीं हो पाये लेकिन उनकी असाधारण विद्वता के प्रस्फुटन के लिये अवसर प्रतीक्षा कर रहा था जो उन्हें तब मिला जब वे अमेरिका और इंग्लैंड में अध्ययन के लिये पहुंचे जहां उन्हें खुली हवा में सांस लेने का मौका था। उन्होंने इस दौरान डाक्टरेट की कई डिग्रियां हासिल कीं और सिर्फ 25 वर्ष की उम्र में कोलम्बिया में हुए एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारत की जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास पर ऐसा अनूठा शोध पत्र पढ़ा कि दुनिया के उस समय के दिग्गज विद्वान उन्हें गम्भीरता से संज्ञान में लेने को विवश हो गये।
दलितों के मसीहा के रूप में पेश करने के पीछे कुछ लोगों की उनके प्रति अगाध श्रद्धा की अभिव्यक्ति है लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो उनके सार्वभौम दृष्टिकोण को दबाने के लिये एक खंडित व्यक्तित्व के रूप में दर्शाने हेतु यह उपक्रम करता है। बाबा साहब ने शूद्र कौन और जाति व्यवस्था के उन्मूलन जैसे शीर्षकों से कई लेख लिखे। अगर उनका दृष्टिकोण खंडित और एकांगी होता तो वे संसार भर के लिये पहेली बनी हुई भारत की जाति व्यवस्था की गुत्थी के विषय में सबसे अलग हटकर और तार्किक रूप से सबसे विश्वसनीय स्थापना प्रस्तुत न कर पाये होते। उन्होंने ब्राह्म्ïाण क्षत्रिय संघर्ष, अनुलोम और विलोम विवाह को रोकने व अटल बौद्ध अनुयायियों को प्रताडऩा के हथियार के तौर पर कठोर उत्पीडऩ की व्यवस्थायें ईजाद करने के क्रम में बर्बर से बर्बरतम होती गई जाति व्यवस्था की ऐसी धारणा प्रस्तुत की जिसे प्रकट रूप में झुठलाना विद्वानों के बस की बात नहीं है। अगर वे समग्रता में सोचने की बजाय दलितों के हितों की रक्षा के लिये प्रतिक्रियावादी रुख अपनाते तो उनका निरपेक्ष होना कैसे संभव था जो कि उनके द्वारा जाति व्यवस्था के निर्माण के आरोप से मनु महाराज को बरी कर देने में झलकता है। उन्होंने कहा कि कोई एक व्यक्ति चाहे वह मनु हो या और उसके बूते की बात नहीं थी कि वह इस व्यवस्था का निर्माण एक बारगी में कर देने की सोच भी पाता और न ही किसी एक व्यक्ति के बस में यह था कि ऐसी व्यवस्था को लागू कर पाता। मनु महाराज ने केवल जाति व्यवस्था को सूत्र बद्ध किया होगा। यही नहीं जाति व्यवस्था के पीछे नस्लभेद की पृष्ठभूमि को स्थापित करने के औपनिवेशिक सोच को भी उन्होंने धराशायी कर दिया यह कहते हुए कि जब द्रविण, आर्य, होमो, सीथियन्स आदि नस्लें भारत में बस चुकी थीं और उनमें रोटी-बेटी के सम्बन्ध हो चुके थे। जाति व्यवस्था इसके बाद अस्तित्व में आयी। इसलिये सवर्ण और दलित के बीच नस्ल और रक्त का कोई अन्तर नहीं ढूंढा जा सकता।
जहां तक उनके राजनीतिक रुझान का सवाल है उन्होंने पहली पार्टी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के नाम से बनायी और आखिर में जिस पार्टी की नींव उन्होंने रखी वह रिपब्लिकन पार्टी थी जिसका नाम पहले वे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी रखना चाहते थे। उन्होंने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के नाम से भी पार्टी बनायी थी लेकिन इसके पीछे उनकी स्वाभाविक इच्छा नहीं कुछ विवशतायें थीं। क्रिप्स मिशन जो भारत की आजादी की रूपरेखा तय करने के लिये भेजा गया था उसने जातिगत और धार्मिक समुदायों के प्रतिनिधियों से ही वार्ता करने की नीति अपना रखी थी इसलिये उन्हें मजदूरों के प्रतिनिधि के रूप में क्रिप्स मिशन के सामने पेश होने में दिक्कत हो रही थी। नतीजतन उनको शेड्यूल कास्ट फेडरेशन बनानी पड़ी लेकिन पूरी तरह यह जाहिर है कि उनकी राजनीतिक सोच के केन्द्र में जाति नहीं वर्ग थे। उन्होंने कई अवसरों पर कांग्रेस के बारे में आगाह किया कि यह पार्टी भारतीय समाज के मुट्ठी भर प्रभावशाली वर्ग को राजनीतिक शक्ति हस्तांतरित कराने के लिये संघर्ष कर रही है लेकिन आम आदमी के बारे में यह पार्टी बिल्कुल नहीं सोचना चाहती।
उन्होंने वायसराय की काउन्सिल में श्रम सचिव रहते हुए बंबई के चैम्बर आफ कामर्स के प्रतिनिधियों के बीच भाषण करते हुए भी यह प्रदर्शित किया था कि वे बेहतर व्यवस्था के निर्माण के लिये जाति से बहुत परे होकर सोचते हैं। उन्होंने इस भाषण में कहा था कि दुनिया मौजूदा समय में तीन बीमारियों से जूझ रही है। पहला युद्ध, दूसरा रंग भेद और तीसरा गरीबी। युद्ध और रंगभेद तो समाप्त हो जायेंगे लेकिन गरीबी तभी खत्म होगी जब आप लोग अपने हितों का त्याग करने के लिये तत्पर होंगे। संविधान सभा को स्टेट्स एंड माइनार्टीज शीर्षक से दिये गये ज्ञापन में उन्होंने सभी प्रमुख उद्योगों और बुनियादी उद्योगों व खेती को सरकार द्वारा चलाने की वकालत की थी। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष होने के पहले पांच और इस तरह की समितियां गठित हो चुकी थीं। इनमें मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित समिति के अध्यक्ष खुद पं.जवाहर लाल नेहरू थे लेकिन बाबा साहब इस समिति में नहीं थे। उन्हें मालूम हुआ कि यह समिति संपत्ति को मौलिक अधिकार में शामिल करने जा रही है तो बाबा साहब ने नेहरू जी के सामने भूमिहीनों के हितों की रक्षा के लिये कड़ा ऐतराज जताया। कांग्रेस ने उनको संविधान सभा में आने से रोकने के लिये जोर इस वजह से नहीं लगाया था कि वे दलितों को लेकर कड़ा रुख अपनाये हुए हैं। हालांकि आभास यही दिया जाता है कि बाबा साहब के आने से कांग्रेस को खतरा यह था कि वे दलितों के मामले में अपने हठधर्मी रवैये को अलगाववाद तक ले जाने की कोशिश करते हैं जिसकी वजह से कांग्रेस के नेता उनसे बचना चाहते थे। वास्तविकता यह है कि कांग्रेस उनके वर्गीय विचारों से डरी हुई थी। उसे अपने वर्ग चरित्र की वजह से किसी तरह का रेडिकल परिवर्तन मंजूर नहीं था। अछूतों की सुरक्षा को लेकर तो आजादी के तत्काल बाद ही सरदार बल्लभ भाई पटेल ने यह घोषित कर दिया था कि अस्पृश्यता को मंजूर नहीं किया जायेगा और इसे रोकने के लिये कड़े दंड की व्यवस्था की जायेगी। इस तरह अछूतों के मामले में बाबा साहब के आग्रह को मंजूर करने में कांग्रेस को कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन संपत्ति को मौलिक अधिकार की श्रेणी में न रखने के उनके विचार को कांग्रेस द्वारा किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं किया गया। 
बाबा साहब वर्गों को समाप्त करने के माक्र्सवाद के विचारों से सहमत थे लेकिन सर्वहारा की तानाशाही में साम्यवादी सत्ता के भी पतित और भ्रष्ट होने का अंदेशा वे महसूस करते थे। इसलिये उन्होंने माक्र्सवाद और बुद्ध को जोड़कर नया व बेहतर विकल्प दुनिया को देने की कोशिश की। इसमें उन्होंने कहा कि बौद्ध पंथ कोई धर्म नहीं है। उन्होंने जानबूझ कर इसे धम्म के रूप में माक्र्सवाद के साथ जोड़ा और कहा कि धर्म जीवन और समाज की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं जबकि धम्म बेहतर मनुष्य व समाज के निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इसलिये माक्र्सवादी सत्ता को बल प्रयोग के आधार पर टिकाने की बजाय स्वतंत्रता व बंधुत्व के परिवेश में बेहतर मनुष्यों के निर्माण की कला से स्थायी किया जाये। उन्होंने कहा कि पूर्व के भौतिकतावादियों से माक्र्स भी खुद इस मामले में अलग थे कि उन्होंने मनुष्य को हर हाल में परिस्थितियों का दास नहीं माना बल्कि यह कहा कि मनुष्य भी इतिहास का निर्माण करता है। इसलिये माक्र्स और बुद्ध के मामले में उनके विचारों का सार यह था कि अच्छे मनुष्यों के निर्माण की साधना होगी तो शानदार इतिहास भी बनेगा। आज जबकि दुनिया हर माडल को विफल महसूस कर रही है। बाबा साहब का माक्र्स और बुद्ध के समन्वय पर आधारित माडल नये विकल्प की तलाश का आधार बन सकता है। 
बाबा साहब के विहंगम दर्शन के पहलू दलितों के साथ-साथ और शोषित वर्गों के क्षितिज को भी कितना स्पर्श करते हैं। इसकी एक मिसाल हिन्दू कोड बिल को पारित न करा पाने की वजह से उनके द्वारा नेहरू मंत्रिमण्डल से किये गये पद त्याग के रूप में भी तलाशी जा सकती है। आर्थिक मामलों में भी उनके विचार सबसे अलग हटकर थे। खासतौर से रुपी पर उनकी थीसिस में मुद्रा के मूल्य निर्धारण को लेकर जो सुझाया गया है उस पर भी वर्तमान में विचार किया जाना चाहिये।
-के.पी. सिंह/ उरई, जालौन (उ.प्र.)
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