माल्या प्रा... तुस्सी ग्रेट हो...!!

-तारकेश कुमार ओझा/ जन - धन योजना तब जनता से काफी दूर थी।  बैंक से संबंध गिने - चुने लोगों का ही होता था। आलम यह कि नया एकाउंट खुलवाने के लिए सिफारिश की जरूरत पड़ती। किसी भी कार्य से बैंक जाना काफी तनाव भरा अनुभव साबित होता था। क्योंकि रकम जमा करानी हो या निकासी करनी हो, लंबी कतार अवश्यंभावी होती। एटीएम की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत चेक पर हस्ताक्षर मिलवाने में काफी झंझट। किसी तरह काम आगे बढ़ा तो क्लर्क ने हाथ में पीतल का टोकन पकड़ा दिया। जिसे पकड़ कर देर तक इंतजार करना पड़ता। ऐसे समय में सरकार की स्व- रोजगार योजना के तहत मामूली रकम का लोन छात्र जीवन में ले लिया था। हालांकि कुछ कर गुजरने  के  जुनून के साथ  लिए गए इस लोन को हासिल करने में मुझे एक जोड़ी चप्पल की कुर्बानी देनी पड़ी थी।

 जिस दिन लोन की रकम हाथ लगी , ऐसा लगा मानो हाथ में नोट नहीं बल्कि कोई बड़ा मेडल या कप लेकर घर जा रहे हों। यद्यपि लोन हाथ में लेने से पहले इतने कागजों पर हस्ताक्षर करने पड़े थे कि अंगुलियां दुखने लगी थी। लेकिन मारे जोश के हम नोट हाथ में लिए घर पहुंचे थे। लेकिन कुछ हासिल करने का यह सुख छलावा सिद्ध हुआ। कुछ ही दिनों में लोन की रिकवरी का आतंक मेरे दिलो दिमाग में छा गया। हर समय लगता लोन की उगाही के लिए बैंक का कोई अधिकारी मेरे घर आ धमकेगा और मेरा गला पकड़ लेगा। ली गई लोन की रकम बेहद मामूली थी लेकिन इसके ब्याज के लिए जब बैंक से नोटिस आता तो मेरे अंदर सिहरन दौड़ जाती। लड़खड़ाते कदमों से बैंक पहुंचने पर मुझे वहां मौजूद हर  कर्मचारी थानेदार जैसा लगता। लेकिन  इसी दौरान कांच की दीवार वाले कमरे के भीतर मैनेजर के सामने शहर के दागी लोगों को बेखौफ बैठा देख मुझे हैरत होती। बीच में कांच की दीवार होने से उनकी बातें तो सुनाई नहीं देती थी। लेकिन इतना आभास जरूर हो जाता कि कथित दागियों की लोन देने वाले अधिकारियों के साथ गाढ़ी छनती है। धीरे - धीरे सब समझ में आने लगा और बड़ी मुश्किल से उस लोन से पिंड छुड़ा पाया।

इसी दौरान देश के एक बड़े कारोबारी के तकरीबन 9 हजार करोड़ का कर्ज लेकर निकल लेने की घटना से मैं हैरान हूं। कहां स्व - रोजगार योजना के तहत ली गई वह मामूली रकम के लोन के लिए इतनी जलालत और कल्पना से बाहर के रकम की लोन और लेने वाला बड़े मजे से निकल भी जाए तो नामसझों का चकित होना लाजिमी ही है। चैनल पर न्यूज देखते हुए अनायास ही मुंह से निकल गया... सचमुच माल्या प्रा... तुस्सी ग्रेट हो ...। यह काम आप जैसा कोई टैलेंट वाला आदमी ही कर सकता है। अरे कुछ दिन पहले तक तो आप टेलीविजन स्क्रीन पर किसी न किसी बहाने नजर आ जाते  थे। कभी खुबसूरत हीरोइनों के साथ तो कभी किसी राजनेता के साथ। पता चलता कि आपकी कंपनी नामी खेल  और खिलाड़ियों की स्पांसर भी  है। फिर अचानक...। कमाल है। आपसे पहले एक और टैफून भी इसी तरह...। अब जेल में हैं। कोराबारी बारीकियां कभी अपने पल्ले नहीं पड़ी। 
अपने शहर में भी मैं कारोबार के दांव - पेंच देख - देख कर हैरान - परेशान होता रहता हूं। किसी कारखाने के उद्घाटन समारोह में बड़ा राजनेता लोगों को आश्वस्त कर रहा है... भाईयों और बहनों ... इस कारखाने के खुलने से स्थानीय लोगों की माली हालत सुधरेगी , बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलेगा। फिर कारखाने की ओऱ से बताया जाता है कि अभी हमने इतने सौै करोड़ का निवेश किया है, लेकिन जल्द ही हम अपना निवेश बढ़ा कर इतने हजार करोड़ करने वाले हैं। हमारा उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना नहीं। हम समग्र विकास में विश्वास रखते हैं। ऐसी बातों से  मैं ही नहीं दूसरे लोग गदगद् हुए जा रहे हैं। लेकिन यह क्या , कुछ साल बाद उसी स्थान पर नजर आता है तो बस कारखाने का कंकाल। पता चलता है कि लगातार घाटे की वजह से यह हालत उत्पन्न हुई। कारखाने के साथ कई बैंक भी डूब गए। समझ में नहीं आता कि  करोड़ों के निवेश के बाद इतने बड़े कारखाने का यह हश्र। इससे अच्छा तो अपना चमन चायवाला है जो सालों से अपनी चाय की गुमटी चला रहा हैं। उसे संभालने के लिए तो अब उसकी नई पीढ़ी भी आ गई है। लेकिन करोड़ों - करोड़ के कारखानों का यह हाल। सचमुच कुछ खेल नासमझों की समझ में कभी नहीं आ सकते।
लेखक तारकेश कुमार ओझा पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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