.....दूल्हे राजा देख, दुल्हनिया डोली लाई है

-डॉ0 भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी/  21वीं सदी में सामाजिक परम्पराएँ, रस्म-वो-रिवाज लुप्त होते जा रहें हैं- या यह कहा जाए कि वर्तमान में किसी को भीं व्यतीत पर दृष्टिपात करके उस पर अमल करने की फिक्र ही नहीं है। 21वीं सदी के ‘हाईटेक’ जमाने में हर वर्ग मंे समाजवाद पूर्णतया परिलक्षित होने लगा है। आदमी, ‘लोभी’ हो गया है या फिर महत्वाकाँक्षी- शायद दोनों के अर्थ एक ही हैं। हिन्दू समाज में भगवान श्री रामचन्द्र की शादी को ‘मानक’ मानकर ही अब तक वैवाहिक रस्में पूरी की जा रही थीं- अब जमाना बदल चुका है। इस युग में ‘प्रेम विवाह’ का प्रचलन बढ़ा है, लेकिन साथ ही साथ व्यवस्थित शादी में भीं पुरानी रस्म अदा करने से लोगों ने परहेज करना शुरू कर दिया है।
वर्षों पूर्व शादी-ब्याह के अवसर पर ‘‘मेरा यार बना है दूल्हा और फूल खिले हैं दिल के, मेरे भी शादी हो जाए दुआ करो सब मिल के’’ जैसे कर्ण प्रिय फिल्मी गीत बैण्ड-बाजों के साथ बजते थे। बाद में ‘‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले’’ विदाई के समय यह गीत बजने पर वातावरण भावुक हो जाया करता था। ‘आज मेरे यार की शादी है, मेरे दिलदार की शादी है’,  ‘घोड़ी पे होके सवार चला है मेरा यार कमरिया में बाँधे तलवार’, ले जाएँग ले जाएँगे दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे, रह जाएँगे रह जाएँगे पैसे वाले देखते रह जाएँगे बीते वर्षों में इस तरह के फिल्मी गीतों की धुन पर नाचते-थिरकते बाराती कन्या पक्ष के दरवाजे तक जाते थे और दूल्हा घोड़ी पर सवार होकर सेहरा बाँधे पहुँचता था। जहाँ उसकी अगुवानी कन्या पक्ष के लोग करते थे और चरण पूजते थे इसी को ‘द्वारपूजा’ कहते थें। शायद उसी ‘द्वारपूजा’ रस्म अदायगी के लिए वर्तमान के शादी-ब्याह जैसे खुशी के अवसर पर कान फोड़ू आवाजें तो अवश्य ही सुनाई पड़ती हैं लेकिन डी0जे0 ‘साउण्ड-सिस्टम’ पर जिसकी आवाज से ‘विवाह स्थल’ थर्राने लगता है।
पूर्व की शादियों में वर-पक्ष, कन्या-पक्ष के यहाँ धूम-धाम से जाकर शादी-ब्याह रस्मो-रिवाज के साथ करवाता था- अब तो यह देखा जा रहा है कि ‘कन्या-पक्ष’ ही कन्या एवं घरातियों को लेकर वर-पक्ष के बताए स्थान, शहर, कस्बों, होटलों में पहुँचता है। इसे ‘पावपुजाई’ न कहकर वर पक्ष की ‘माँग’ कहा जाता है- ठीक भी तो है। क्योंकि ऐसा करने में ‘कन्या-पक्ष’ का खर्च ही बढ़ता है, साथ ही ‘वर-पक्ष’ को काफी सहूलियतें मिल जाती हैं। भतीजे भीं कलमघसीटी करते हैं- मैंने पूछा डियर ‘नेफ्यू’ कोई फिल्मी गीत का मुखड़ा ऐसा सुना दो जो वर्तमान में ‘कन्या-पक्ष’ पर सटीक लागू होता हो और कन्याओं का रूतबा बढ़ाता हो। उसने पूछा यह काहें को पूँछ रहे हैं? मैंने कहा कि जब सब कुछ उल्टा हो रहा है- तब हाथ में खुजलाहट हो रही है। वह मुस्कुराकर कहता है डियर अंकल इससे तो ‘वर-पक्ष’ की बेइज्जती होगी और हास्यास्पद सा लगेगा। कहना पड़ा डियर 21वीं सदी है किसी को अपने इज्जत और अपमान की चिन्ता नहीं है अपितु सबको धन बचाने, धन कमाने की पड़ी है। उसने कहा तो लिख डालिए ‘‘दूल्हे राजा देख, दुल्हनिया डोली लाई है।’’ भतीजे को धन्यवाद देता हूँ वह आँखों पर काला चश्मा और कान में मोबाइल सेट लगाकर ‘मेन्शन नॉट’ कहते हुए अपने गन्तव्य को चल देता है। फिर मैं अपने सीनियर से इस पर चर्चा करता हूँ। वह बिगड़ खड़े हुए बोले डियर तुम्हें इसी तरह की अनाप-शनाप स्टोरी लिखने की पड़ी रहती है। छोड़ यार कुछ और विषय पर वार्ता कर। मैंने कहा पुरानी रीतियाँ- रिवाज समाप्त हो रहे हैं इन्हें संरक्षित करने की आवश्यकता है- क्या मेरा सोचना गलत है? वह सीरियस हो गए, बोले हाँ यार तुम ठीक कह रहे हो। एक अच्छे कलमकार को ऐसा करना ही चाहिए। उन्होंने कहा कि अपने यहाँ अनेकों शादियाँ कुछ इसी तरह हुई हैं जिनका प्रतिशत अब 50 तक पहुँच रहा है- इन शादियों मे कन्या पक्ष के लोग वर-पक्ष की माँग पर वर के शहर को डोलियाँ लेकर पहुँचते हैं। आजकल शहरों के गेस्टहाउस, होटल, लॉजों में होने वाली शादियों में माँड़व (मण्डप) कुआँ पूजन, सूप, मूसल (पहरूआ), लोढ़ा (सिल-बट्टा) आदि घर-गृहस्थी के उपयोगी उपकरणों के पूजन को कौन कहे वैवाहिक, मंगलगीत तक नहीं गाए जाते हैं। इन्हीं किराए के स्थानों पर वर-कन्या का बगैर पुराने रस्म रिवाजों के ही विवाह हो जाता है। एक ही रात में सभीं कार्यक्रम, न बड़ाहार (शिष्टाचार) न खिचड़ी छूने की रस्म और न ही विदाई के पूर्व माँड़व हिलाना, केवल ‘द्वारपूजा’ ही होती है अब।
आज के युग के पूर्व होने वाली शादियों का लुत्फ वर-कन्या दोनों पक्ष कई महीने से ही उठाते थे। सभीं पुरानी परम्पराओं का निर्वहन होता था। जिस घर में शादी होनी होती थी वहाँ रिश्तेदार- हित- मित्रों का जमावड़ा एक माह पूर्व से ही होने लगता और महीने भर से अधिक दिन तक इसे एक ‘उत्सव’ के रूप में मनाया जाता था। माड़व (मण्डप) गाड़ने के साथ ही तरह-तरह की रस्म अदायगी का सिलसिला चलता था जो मौर/मौरी गाड़ने तक जारी रहता था। इस दौरान महिलाएँ तरह-तरह के नृत्य करती थी और माँगलिक गीत/संगीत से पूरा माहौल गुंजायमान रहता था। बच्चे, बूढ़े और सयाने (युवक) सभीं में एक अजीब सा हर्षोल्लास देखने को मिलता था। वैवाहिक कार्यक्रमों का शुभारम्भ घरों के अन्दर गड़े/ बने माँड़व (मण्डपों) में होता था। इसी के साथ प्रजा कहलाने वाली जातियाँ, नाई, कहाँर, धोबी, सीरवार, बढ़ई, लोहार, कोंहार समेत तमाम लोगों का काम शुरू हो जाता था। विवाह गीत में भगवान श्री राम, माता सीता व बन्ना-बन्नी आदि का जिक्र होता था। वर-कन्या पक्ष के लोग गाँव के सीवान में आमने सामने होते थें- बीच में जनवासा और कन्या गृह के बीच स्थान पर घुड़ दौड़, हाथी दौड़, तलवार बाजी, बन्दूकों के फायर होते थे, फिर घण्टों पश्चात् दोनों पक्ष एक दूसरे के गले मिलते थें। कन्या पक्ष के लोग समधी एवं अन्य वरिष्ठ रिश्तेदारों, बारातियों को ‘पुष्पहार’ पहनाते थे। फिर जलपान शुरू हो जाता था। बाराती जलपान करते थे उधर कन्या के पिता द्वारा दूल्हे का स्वागत करने की रस्म अदा की जाती थी जिसमें मंत्रोच्चार के बीच कन्या का पिता अपने होने वाले दामाद का पाँव छूता था और मंगल कामना करता था। इसे द्वार-पूजा कहते थे।
‘द्वारपूजा’ के समय दुल्हन और उसकी सहेलियों द्वारा ‘बीड़ा’ मारा जाता था। दुल्हन की हमउम्र सहेलियाँ युवक बारातियों पर देख-देख कर बीड़ा मारती थी। द्वारपूजा के उपरान्त अनेकों रस्में निभायी जाती थी। माँड़व (मण्डप) हिलाने की रस्म बारात विदाई के पूर्व की जाती थी और शादी की लगन का अन्त मौर/मौरी सेरवाने (गाड़ने) के बाद होता था। वर्तमान दौर में एक दम ‘फास्ट स्टाइल’ मंे शादी की रस्में निभाई जा रहीं हैं। यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है कि इस तरह की फास्ट शादियाँ धनी वर्गीय घरों में ही हो रही हैं। गाँव/देहात के लोग अब भीं पुराने रीति- रिवाज को नहीं भूले हैं फिर भीं गाँव में राजनीति करने वाले लोग अब ‘रस्म-रिवाज’ अदायगी से परहेज करने लगे हैं। जाति वादी राजनीति ने शादी ब्याह के अवसरों पर अपना-अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर कन्या दान करवाने वाले सहयोगी जातियों (प्रजा जनों) को अहंवादी बना दिया है। आदिवासी लोगों के समाज में शादियों के ‘रस्म रिवाज’ अब भीं पुराने ही हैं उन पर अंग्रेजियत/फास्ट लाइफ स्टाइल और राजनीति ने अपना कुप्रभाव नहीं डाला है।  
-डॉ0 भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी/
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